मनुष्य अपने जीवन में आखिर चाहता क्या है? सब एक ही उत्तर देते हैं, ‘सुख और शांति’ ! केवल सुख और शांति की ही कामना सब करते हैं पर क्या वास्तव में ये दोनों अर्थात् ‘सुख और शांति’ आज के मानव के जीवन में हैं? जिसके पास पैसा है वह बीमार है, जो स्वस्थ है उसके पास पैसा नहीं है। गाड़ी वाला, हवाई जहाज चाहता है। हवाई जहाज वाला, पैरासूट से कूदना चाहता है। शांति है कहाँ? सुख है कहाँ? सुख और शांति एक दूसरे के पर्याय हैं या यूँ कहिये एक ही हैं।
सुप्रसिद्ध लेखक आचार्य मनोज सिंह जी अपनी कालजयी पुस्तक ‘मैं रामवंशी हूँ’ में एक बहुत बड़ी विडंबना पर संकेत करते हुए लिखते हैं, “आज व्यक्ति अशांत है, परिवार अशांत हैं, समाज अशांत हैं, देश अशांत हैं और यह पूरा विश्व ही अशांत है लेकिन हम दिन भर शांति की कामना करते रहते हैं !” अब सोचिये ये विडंबना है कि नहीं? कामना शांति कि करते हैं लेकिन चारों ओर फैली आशांति है और दूसरी बड़ी विडंबना यह है कि ये शांति आएगी कैसे ये शायद किसी को पता नहीं है और अगर मान लीजिये किसी को पता भी है तो वे लोग न जाने कहाँ हैं? और अगर वे लोग हैं भी तो उनके प्रयास कहीं दिख नहीं रहे क्योंकि छाई तो हर जगह अशांति ही है।
जब हम थोडा सा ठंडे दिमाग से विचार करेंगे तो इस प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा और वह उत्तर होगा कि ये शांति और सुख आएंगे ‘संस्कार’ से। शिक्षा और नैतिक मूल्यों या संस्कारों को जब अलग-अलग किया गया तब विकराल समस्या प्रकट हुई। आचार्य मनोज जी लिखते हैं, “हमने दूध की कमी से निपटने के लिए दुग्ध क्रांति की है, अन्न की समस्या से निपटने के लिए हरित क्रांति की है, अभी हम सूचना क्रांति के दौर से गुजर रहे हैं। लेकिन इन सभी क्रांतियों के बाबजूद जो सुख और शांति हमको चाहिए वो कोसो दूर है, इसलिए अब समय है ‘संस्कार क्रांति’ करने का।”
कुछ समय पूर्व एक समाचार पढ़ा था कि हिमाचल में पिछले वर्ष आत्महत्या की दर 7-8 प्रतिशत बढ़ी है। आत्महत्या के कारणों में प्रमुख कारण बताएं गए हैं पारिवारिक और वैवाहिक परेशानियाँ, पेशेवर परेशनियाँ, और बीमारी। लेटेस्ट आंकड़ा है। 800 से अधिक आत्महत्याएँ हुई हैं जिसमें 500 से अधिक पुरुष हैं। ये सभी शिक्षित ही थे। 200 से अधिक महिलाएं थीं ये सभी शिक्षित ही थीं।
अब थोडा पीछे जाईये, जब जीवन कठिन था, सुख सुविधाएँ नहीं थीं, अधिकांश लोग अनपढ़ या अशिक्षित थे। संयुक्त परिवार थे। आज भी वो पीढ़ी है। 8-8 बच्चे होते थे। न हॉस्पिटल न डॉक्टर। वैद्य होते थे, वो भी घर आते थे। बिमारियों का नामों निशान नहीं था। घर के भंडार अनाज और घी दूध से भरे रहते थे। लोग जी भरके के खाते थे कोई पथ्य परहेज नहीं होता था। एक एक किलो घी शक्कर खा जाते थे। क्विंटल के हिसाब से वजन उठाते थे। जो भेड़ बकरी पालते थे, खेती करते थे, घास काटते थे, जिनको लोग बिना सिंग पूंछ के जानवर बोलते थे वे अधिकांश लोग 90 या 100 साल की उम्र पाए। उन लोगों ने वेद, पुराण नहीं पढ़े थे लेकिन वेद वाक्य शतायु भव को चरितार्थ किया। आखिर क्यों?
विचार करना आवश्यक है ये पीढ़ी सौ साल जीवन जी। उनकी अगली पीढ़ी थोडा बहुत स्कूल गयी नौकरी भी करने लगी और 70-80 साल तक का जीवन जी। इनकी अगली पीढ़ी आई तो पूरी तरह शिक्षा ली स्कूल-कॉलेज यूनिवर्सिटी तक गए। लेकिन आयु 60-70 तक आ गई। उनकी अगली पीढ़ी जो आज चल रही है 30-40 में लुढकने लग गई। इनकी जो पीढ़ी आ रही है वो तो गर्भ में ही दवाई खाने लगी है, शिशु काल में भी चश्में लगने लगे हैं? चिट्टा, दारु, सोशल मीडिया रील्स का नशा उनको होने लगा है। आज के बच्चे बिना फोन के खाना नहीं खाते ! डॉक्टर मोबाइल फास्टिंग की बातें करने लगे हैं। ये जो कुछ भी अभी तक मैंने कहा है ये सब आपके शिक्षा प्राप्त किये लोगों के बारे में बताया है आप लोग और जोड़ सकते हैं।
कोई कह सकता है कि मैं पुराने समय में वापस जाने की बात कर रहा हूँ। नहीं ऐसा नहीं है, मैं सनातन धर्म या नैतिक मूल्यों या संस्कार की विशेषता के बारे में संकेत करना चाहता हूँ। सनातन धर्म में नेति नेति कहा गया है। सनातन ही नित्य नूतन निरंतर है। प्रकृति में परिवर्तन होना शास्वत सत्य है। लेकिन वो परिवर्तन भी प्रक्रति के अनुसार और प्रकृति योग्य होना चाहिए।
आज की शिक्षा संस्कारविहीन है। तर्क के लिए कहा जा सकता है कि ऐसा नहीं है। यदि इस तर्क को मान लिया जाए तो भी यह प्रश्न उठेगा कि शिक्षा में नैतिक मूल्यों अर्थात् संस्कारों का क्षरण क्यों हो रहा है? उत्तर ढूंढने लगेंगे तो ध्यान आएगा कि यह समस्या ही तब पैदा हुई जब शिक्षा में से ‘भारतीयता’ को साजिश करके हटाया गया और ये साजिश आज तक चल रही है। जिस दिन भारतीयता मिटना शुरू हुई क्षरण शुरू हो गया था। अब प्रश्न उठता है कि भारतीयता क्या है या थी जिसे मिटाया गया?
तो ये भारतीयता थी या है, माता भूमि पुत्रोहम पृथिवीयाम, सर्वे भवन्तु सुखिनः, कृण्वन्तो विश्वार्यम, धर्म की जय हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, तेरा तुझको अर्पण आदि भाव या संस्कार। हमारे संस्कार क्या थे- चींटियों को दाना दो, गौमाता की सेवा करो, मातृदेवो भाव, पितृदेव भव, गुरुदेवो भव, ब्रहम मुहुर्त में उठना, रोज स्नान करना, पहली रोटी गाय के लिए, सूर्य को अर्घ देना, शंख बजाना, भजन कीर्तन करना, योग व्यायाम करना। शुद्ध आहार विहार था। बहुत सी चीजे और जोड़ी जा सकती हैं। ये सब क्या हैं?
यही तो नैतिक मूल्य हैं, यही तो हमारा संस्कार है और यही भारतीयता थी। शिक्षा और विज्ञान दर्शन अर्थात् फिलोसोफी में गुंथा था। इन सभी मूल्यों को शिक्षा में फिर से जोड़ दीजिये और यह केवल बोलकर नहीं बल्कि आचरण में लाकर। यह समस्या गायब हो जायेगी। यही संस्कार क्रांति होगी। और इसकी शुरुआत हमें अपने से करनी होगी।
अब प्रश्न आता है ये संस्कार पैदा कैसे होंगे? शतायु जीवन जीने वाले अनपढ़ लोगों के पास ये संस्कार बिना स्कूल गए थे। इस समस्या के निदान के लिए आचार्य चाणक्य ने एक सूत्र दिया था: सुखस्य मुलं धर्मं, धर्मस्य मुलं अर्थः, अर्थस्य मुलं राज्यं, राजस्य मुलं इन्द्रियजयः, इन्द्रियजयस्य मुलं विनयः, विनयस्य मुलं वृद्धोपसेवा।
एक श्लोक में सब कुछ बता दिया गया है। आपको सुख चाहिए या शांति चाहिए तो धर्म उसका मूल है। धर्म का मूल अर्थ है, अर्थ का मूल राज्य यानी शक्ति है, राज्य का मूल इन्द्रियों पर जय पाना है, इन्द्रियों पर जय करने का सूत्र विनय है आपकी विनम्रता है। और उस विनय का मूल वृद्धों की सेवा करना है। आपका धर्म आचरण का विषय है, इसे ही शास्त्रों में सदाचार कहा गया है।
अपने से बड़ों अथवा वृद्धों की सेवा ही संस्कार हैं, नैतिक मूल्य है। तो नैतिक मूल्य पैदा होंगे दादा-दादी के चरणों में, माता पिता गुरु के चरणों में। घर के बड़ों के सानिध्य में। पर ये केवल एक पक्षीय कार्य नहीं है। यदि बच्चा सेवा करना चाहे लेकिन दादा शराब पीकर टुन्न हो, पिता टुन्न हो, माता रील्स बनाने में मस्त हो तो फिर संस्कार सृजन नहीं होगा। वास्तव में ये द्विपक्षीय कार्य है। जो क्षरण आया है वो इसी से तो आया है। जिस दादा को बच्चे को ऊँगली पकड़कर चलाना था, कहानी सुनानी थी वो आज ताश के पत्ते फैंकता रहता है, शराब पीता है, उस दादा के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है। माता पिता की तो बात ही छोड़ दीजिये।
आज के बच्चे पारिवारिक संबंधों का महत्त्व नहीं जानते हैं इसके पीछे घर के बड़े लोगों का अपना धर्म नहीं निभाना भी है। और यदि बच्चे महत्त्व जानते भी हैं तो यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि अब संबंधों के प्रति अब बच्चों में उदासीनता या गिरावट आ रही है। यही बच्चे बड़े होकर लिव इन में रहने लगे हैं, और माता पिता को घर से निकाल रहे हैं, वृद्धाश्रम में भेज रहे हैं। यही हाल रहा तो गति और बढ़ेगी। हमने गाँव में देखा है कि पुरानी पीढ़ी के तथाकथित ‘अनपढ़’ लोग कैसे अपने माता पिता की सेवा करते रहे हैं। वे स्कूली शिक्षा से भले ही ‘अनपढ़’ हों लेकिन संस्कारी शिक्षा में ‘पीएचडी’ हैं।
अब प्रश्न उठता है क्या करना चाहिए? उत्तर है: घर को विद्यालय बनाना और ये अविभावकों का काम है। प्रथम गुरु माता पिता है। आज के माता पिता ने अपने इस धर्म का त्याग कर दिया है। माता पिता ये काम ‘आउटसोर्स’ कर रहे हैं। बच्चों की देखभाल के लिए आया आती है, ‘डे केयर’ चल रहे हैं, खुद पढ़ लिखकर दूसरों से बच्चों को ट्यूशन दिलवा रहे हैं। माँ की ममता की जगह यूट्यूब ले रहा है। ये सब छोड़ना होगा। अपने मातृत्व और पितृत्व धर्म का पालन तन्मयता से करना होगा। इसका उदाहरण इतिहास में है। इतिहास में ही पता चलता है कि ये क्षरण कैसे शुरू हुआ था।
महाभारत काल याद करिये। कुंती महारानी ने अपना माता का धर्म निभाया, लेकिन गांधारी और धृतराष्ट्र ने नहीं निभाया। उसी समय नैतिक मूल्यों का क्षरण शुरू हुआ। माता-पिता की जगह ये भार कंधों पर लिया दादा भीष्म ने। जो स्वयं बहुत व्यस्त रहते थे। पहले खुद थोडा बहुत प्रयास किया लेकिन फिर ‘ट्यूशन टीचर’ रख लिया द्रोणाचार्य जी को। भीष्म स्वयं भी सीखा सकते थे लेकिन व्यवस्तता बहुत थी। यही से क्षरण शुरू हुआ। जब शिष्य गुरु के पास न जाकर, गुरु शिष्य के पास जाने लगा तबसे शिक्षा और उसके पर्याय संस्कारों का क्षरण शुरू हुआ। कौरवों का व्यवहार हम जानते ही हैं। क्या परिणाम हुआ तो उत्तर मिलेगा ‘सर्वनाश’। वहीं भगवान् राम का जीवन देखिये घर से दूर आश्रम में गए। उनके पास गुरु विश्वामित्र आये जरुर, लेकिन जो सीखा था उसकी टेस्टिंग करने के लिए और वे रामजी को वन में राक्षसों का वध करने के लिए ले गए।
शिक्षकों को घर में अपने माता पिता होने का धर्म पहले अच्छे से निभाना होगा। उसी संस्कार से स्कूल में शिक्षक का धर्म क्या है वो समझ आ जायेगा। आजकल शिक्षकों के बच्चे उस स्कूल में नहीं पढ़ते हैं जहाँ वे खुद पढ़ाते हैं? और ये प्रचलन बढ़ता जा रहा है। कारण हम सब जानते ही हैं। जब शिक्षक का अपना बच्चा सामने होगा तो वो अपना पिता या माता का धर्म याद रखेगा। आज सब अपने धर्म से भाग रहे हैं इसलिए समस्या उत्पन्न हुई है।
हमारे स्कूल से इतने डॉक्टर निकले, इतने इंजीनियर निकले, ये गणना और प्रचार करने से कुछ न होने वाला। जितना अच्छे अच्छे पढ़े लोग कमाते हैं उससे ज्यादा आजकल गोल गप्पे बेचने वाला अनपढ़ कमा रहा है। मैंने खेती-बाड़ी करने वाले, लेबर का काम करने वाले को डिप्रेशन का रोगी नहीं देखा है। आत्महत्या करते नहीं देखा है। संस्कारयुक्त शिक्षा देना और माता-पिता के साथ इसके लिए काम करना ये शिक्षक का धर्म है। यही धर्म एहसास कराएगा कि नैतिक शिक्षा के लिए क्या नए उपाय अपनाए जा सकते हैं? और उसका मार्ग भी प्रशस्त करेगा। नारायणायेती समर्पयामि ……….