नया नहीं है समुद्री क्षेत्र में भारत का आधिपत्य, हजारों साल पहले भी हमारे पास थी अपनी नौ सेना

भारत से बाहर सुमात्रा, मलेशिया और थाईलैंड तक पहुंचे थे भारतीय सम्राट राजेंद्र चोल के नौ सैनिक

हजारों साल पहले भी हमारे पास थी अपनी नौसेना, नया नहीं है समुद्री क्षेत्र में हमारा आधिपत्य

प्रतीकात्मक तस्वीर

एक हज़ार साल से भी पहले, जब दुनिया का ज़्यादातर हिस्सा अंधकार में डूबा हुआ था, तमिल हृदयभूमि का एक शक्तिशाली सम्राट समुद्र पर राज कर रहा था। वह पूरे एशिया में भारत का धार्मिक प्रभाव स्थापित कर रहा था। राजा राज चोल के यशस्वी पुत्र राजेंद्र चोल सिर्फ़ एक सम्राट ही नहीं थे, वे एक समुद्री दूरदर्शी भी थे। उनके नौ सैनिक अभियान सुमात्रा, मलेशिया और थाईलैंड तक पहुंचे, जिससे वे भारतीय और विश्व इतिहास के उन शुरुआती शासकों में से एक बन गए, जिन्होंने सच्ची समुद्री नौ सेना तैनात की। आज जब भारत अपने आखिरी आयातित युद्धपोत के साथ एक नया अध्याय शुरू कर रहा है, राजेंद्र चोल की विरासत हमें याद दिलाती है कि यह समुद्री प्रभुत्व का हमारा पहला अध्याय नहीं है। हम बस उस सभ्यतागत परंपरा की ओर लौट रहे हैं, जहां कभी समुद्र पर भारत का झंडा लहराता था।

भारत की पहली समुद्री नौसेना

जानकारी हो कि राजेंद्र चोल ने 1014 से 1044 ईस्वी तक शासन किया। इस दौरान उन्होंने ऐसी नौसेना का निर्माण किया, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप से भी आगे तक अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। उनकी नौसेना सिर्फ़ रक्षा के लिए नहीं थी, यह सांस्कृतिक प्रभुत्व का साहसिक साधन थी। श्रीलंका से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया के सुदूर तटों तक, चोल नौसेना ने साम्राज्यों को तहस-नहस कर दिया और भारत की आध्यात्मिक, व्यापारिक और सांस्कृतिक उपस्थिति स्थापित की।

राजेंद्र चोल ने कई देशों पर किये थे रणनीतिक हमले

विशेष रूप से श्रीविजय साम्राज्य पर उनकी विजय प्रसिद्ध हैं। कदरम (आधुनिक मलेशिया में केदाह), म्यांमार में पेगु और सुमात्रा के बंदरगाहों पर तीव्र और रणनीतिक हमले कर राजेंद्र चोल ने दुनिया को यह संदेश दिया कि भारत नौकायन कर सकता है, आक्रमण कर सकता है और सफल हो सकता है। उनके अभियान लूटपाट के लिए नहीं थे। वे व्यापार मार्गों की रक्षा, धर्म की रक्षा और भारतीय विश्वदृष्टि का विस्तार करने के लिए थे।

आज भी महत्वपूर्ण हैं राजेंद्र चोल के अभियान

लोभ से प्रेरित आधुनिक साम्राज्यवाद के विपरीत, राजेंद्र चोल के विदेशी कार्य धार्मिक लोकाचार से प्रेरित थे। दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार लंबे समय से तमिल समाज का हिस्सा रहा था और ये क्षेत्र हिंदू मंदिरों, संस्कृति और भाषा से अपरिचित नहीं थे। राजेंद्र चोल के अभियान उपनिवेशीकरण से ज़्यादा सभ्यताओं के पुनर्मिलन थे। मणिग्रामम और ऐन्नुरूवर जैसे तमिल व्यापारी संघ उनके शासनकाल में फले-फूले और चोल जगत के आर्थिक राजदूत बन गए। ये आज की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्राचीन समकक्ष थे। लेकिन, इनका एक पवित्र मिशन था वाणिज्य के माध्यम से धर्म का प्रचार करना।

हालांकि, राजेंद्र चोल की राजधानी गंगईकोंडचोलपुरम, केवल सत्ता का केंद्र नहीं थी। यह नगरीय नियोजन और मंदिर स्थापत्य कला का एक अद्भुत नमूना था। साम्राज्य का आध्यात्मिक और आर्थिक जीवन इन मंदिरों के इर्द-गिर्द घूमता था। इससे भारत के उस शाश्वत आदर्श को बल मिला, जहां आस्था और शासन कला का सामंजस्य था।

अब से भारत में ही बनेंगे युद्धपोत

आज की बात करें तो भारतीय नौसेना ने हाल ही में रूस में निर्मित तलवार-श्रेणी के युद्धपोत, आईएनएस तमाल को नौसेना में शामिल किया है। हालांकि यह भारत का आखिरी विदेशी निर्मित युद्धपोत है, लेकिन इसका आगमन एक महत्वपूर्ण मोड़ का संकेत देता है। अब से हर भारतीय युद्धपोत का डिज़ाइन और निर्माण भारत में ही किया जाएगा। यह केवल रणनीतिक स्वायत्तता नहीं है, यह एक सभ्यतागत पुनरुत्थान है।

राजेंद्र चोल की नौसेना की तरह आज की नौसेना केवल सीमाओं की रक्षा ही नहीं कर रही है। यह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की ताकत का प्रदर्शन कर रही है। हमारे 90% से ज़्यादा नौसैनिक प्लेटफ़ॉर्म अब भारत में ही निर्मित हैं। इसलिए आत्मनिर्भरता का सिद्धांत चोलों की भावना को ही आगे करता है। इसका प्रतीकात्मक अर्थ स्पष्ट है, जिस तरह राजेंद्र चोल ने धार्मिक मशाल को विदेशी धरती पर पहुंचाया, उसी तरह आधुनिक भारत वैश्विक समुद्री मामलों में अपना उचित स्थान पुनः प्राप्त कर रहा है।

भारत की उभरती नौसैनिक शक्ति: एक चोल प्रेरित सिद्धांत

भारत अब केवल क्षेत्रीय शक्ति नहीं रह गया है, यह तेज़ी से समुद्री महाशक्ति बनता जा रहा है। मझगांव डॉक, कोचीन शिपयार्ड और जीआरएसई जैसे स्वदेशी शिपयार्ड अत्याधुनिक विध्वंसक, फ्रिगेट और पनडुब्बियां बना रहे हैं। आसियान देशों के साथ हमारी साझेदारियाँ, मालाबार और मिलान जैसे नौसैनिक अभ्यास और ऑस्ट्रेलिया व जापान के साथ रक्षा सहयोग, ये सभी एक व्यापक समुद्री दृष्टिकोण का हिस्सा हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि यह दृष्टिकोण पश्चिम से उधार नहीं लिया गया है। इसकी जड़ें हमारे अपने इतिहास में हैं। चोल साम्राज्य ने सिद्ध किया कि नौसैनिक शक्ति एक उच्चतर उद्देश्य की पूर्ति कर सकती है। सभ्यतागत मूल्यों का संरक्षण, व्यापार की रक्षा और आध्यात्मिक आदान-प्रदान को प्रेरित करने में यह महत्वपूर्ण है। राजेंद्र चोल ने कार्य करने की अनुमति नहीं मांगी। उन्होंने स्पष्टता, धर्म और निर्णायकता के साथ कार्य किया। आज भारत को ठीक इसी की आवश्यकता है।

समुद्र में आध्यात्मिक और सभ्यतागत पुनर्जागरण

चोल विरासत केवल हथियारों और युद्धपोतों तक ही सीमित नहीं रहा। यह भारत की आत्मा की अभिव्यक्ति है। आज, जब अयोध्या में राम मंदिर से लेकर काशी विश्वनाथ के जीर्णोद्धार तक, भव्य मंदिरों का एक बार फिर से उदय हो रहा है, हम एक धार्मिक पुनरुत्थान देख रहे हैं। भारत की नदियां और महासागर, जो कभी आध्यात्मिक जीवन के केंद्र थे, अब फिर से सभ्यतागत अभिव्यक्ति के माध्यम बन रहे हैं। मंदिर पर्यटन और आध्यात्मिक विरासत को बढ़ावा देने वाला गंगा विलास क्रूज़ इसका एक उदाहरण है। भारत अपनी प्राचीन शक्तियों को आधुनिक क्षमताओं के साथ मिला रहा है। चोलों की तरह, हम फिर से सांस्कृतिक गौरव को सैन्य शक्ति के साथ जोड़ रहे हैं।

अपनी जगह फिर से लेने को तैयार है भारत

हमारे पूर्वजों ने कभी पूर्वी महासागरों पर राज किया था, वैसे ही आधुनिक भारत समुद्री क्षेत्र में अपनी जगह फिर से हासिल करने के लिए तैयार है। अनुयायी के रूप में नहीं, बल्कि एक सभ्य नेता के रूप में। हम कोई ऐसा राष्ट्र नहीं हैं, जो निर्माण करना सीख रहा हो।

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