आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने संस्कृत को दैनिक संवाद की भाषा के रूप में बढ़ावा देकर भारत की सांस्कृतिक आत्मा को पुनर्जीवित करने का जोरदार आह्वान किया है। नागपुर के रामटेक स्थित कवि कुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय में अभिनव भारती अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक भवन के उद्घाटन के अवसर पर भागवत ने भारत के लोगों से संस्कृत को केवल एक शास्त्रीय या शैक्षणिक भाषा के रूप में ही नहीं, बल्कि दैनिक संवाद के जीवंत माध्यम के रूप में अपनाने का आग्रह किया।
संस्कृत को सभी भारतीय भाषाओं की जननी घोषित करते हुए, उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह प्राचीन भाषा भारत की बौद्धिक और भावनात्मक पहचान को समझने की कुंजी है। इस कार्यक्रम में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी उपस्थित थे, जिन्होंने संस्कृत के विकास और प्रसार के लिए राज्य सरकार के पूर्ण समर्थन का आश्वासन दिया।
संस्कृत को सीखना नहीं, जीना होगा
मोहन भागवत ने भावुकतापूर्वक बताया कि कैसे संस्कृत सिर्फ़ एक भाषा नहीं, बल्कि एक ऐसा माध्यम है जो व्यक्ति के आंतरिक भावों को बढ़ाता है। उन्होंने संस्कृत जानने और उसे धाराप्रवाह बोलने में अंतर को स्वीकार किया और कहा कि भले ही उन्होंने यह भाषा सीख ली हो, फिर भी धाराप्रवाह बोलना एक चुनौती बनी हुई है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि दैनिक जीवन में संस्कृत बोलने को सभी स्तरों पर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “संस्कृत को हर घर तक पहुंचाने की ज़रूरत है।” उन्होंने आगे कहा कि अगर भारत वास्तव में अपने सांस्कृतिक लोकाचार और आत्म-पहचान को संरक्षित करना चाहता है, तो संस्कृत को केवल सीखना ही नहीं, बल्कि जीना भी होगा।
इसके प्राचीन ज्ञान पर प्रकाश डालते हुए, भागवत ने कहा कि संस्कृत भारत की सभ्यतागत निरंतरता से गहराई से जुड़ी हुई है। उन्होंने कहा कि पश्चिमी भाषाओं के विपरीत, जिनकी जड़ें अक्सर व्यावसायिक या औपनिवेशिक संदर्भों में होती हैं। संस्कृत अपने साथ स्वत्व की भावना लेकर चलती है। उन्होंने कहा, “स्वत्व भौतिकवादी नहीं है, बल्कि व्यक्तित्व को दर्शाता है और यह व्यक्तित्व भाषा के माध्यम से ही व्यक्त होता है।”
संस्कृत को जानना, देश को समझने जैसा
मोहन भागवत का भाषण केवल भाषा के बारे में नहीं था, यह आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन का एक गहरा संदेश था। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि राष्ट्र आत्मनिर्भर बनने की अपनी महत्वाकांक्षा में एकजुट है। लेकिन, यह शून्य में नहीं हो सकता। सांस्कृतिक आत्म-जागरूकता, बौद्धिक विकास और भावनात्मक स्पष्टता इस यात्रा के अनिवार्य अंग हैं, और भाषा ही इन गुणों का वाहक है। भागवत ने नागरिकों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने में भाषा की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा, “संस्कृत जानना देश को समझने जैसा है।”
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि सच्चा विकास केवल तकनीकी या आर्थिक ही नहीं, बल्कि बौद्धिक और आध्यात्मिक भी होता है। संस्कृत, एक ऐसी भाषा होने के नाते जो प्राचीन ज्ञान और नैतिक स्पष्टता को समाहित करती है, इस परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उन्होंने तर्क दिया कि संस्कृत के बिना, भारत अपनी सभ्यतागत पहचान से अलग हो जाएगा।
संस्कृत को जनसमर्थन की अपील
मोहन भागवत ने संस्कृत को बढ़ावा देने में सरकार के सहयोग की सराहना की। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि जनभागीदारी और भी महत्वपूर्ण है। कवि कुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय जैसे संस्थान अपने लक्ष्य को तभी प्राप्त कर सकते हैं, जब उन्हें सामाजिक समर्थन प्राप्त हो। उन्होंने नागरिकों से साधारण, रोज़मर्रा की बातचीत में संस्कृत का प्रयोग शुरू करने का आग्रह करते हुए कहा, “संस्कृत विश्वविद्यालय को सरकारी संरक्षण तो मिलेगा, लेकिन जनसमर्थन भी आवश्यक है।”
उन्होंने विश्वस्तरीय संस्कृत अनुसंधान और शिक्षा के लिए अभिनव भारती अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक भवन जैसे विश्वस्तरीय बुनियादी ढाँचे और शैक्षणिक मंचों के निर्माण में विश्वविद्यालय के प्रयासों की सराहना की। हालांकि, उन्होंने श्रोताओं को याद दिलाया कि संस्कृत केवल शैक्षणिक दीवारों के भीतर ही नहीं पनप सकती, इसे भारत के घरों, गलियों और बातचीत में जीवित रहना होगा।
भारत का संदेश: वैश्विक बाज़ार से वैश्विक परिवार तक
आर्थिक वैश्वीकरण के पश्चिमी नैरेटिव के उलट मोहन भागवत ने भारत के वसुधैव कुटुम्बकम—विश्व एक परिवार है—के सभ्यतागत दृष्टिकोण को सुदृढ़ किया। उन्होंने कहा कि “पश्चिमी दुनिया ने एक ‘वैश्विक बाज़ार’ की अवधारणा गढ़ी, जो अब विफल हो चुकी है। दूसरी ओर, भारत हमेशा एक वैश्विक परिवार में विश्वास करता रहा है,” उन्होंने 2023 में भारत की जी20 अध्यक्षता का ज़िक्र करते हुए कहा, इसने इसी विषय को अपनाया।
उन्होंने तर्क दिया कि यह दार्शनिक दृष्टिकोण संस्कृत ग्रंथों और वैदिक चिंतन से उत्पन्न हुआ है, जो दुनिया को प्रतिस्पर्धी और लाभ-प्रेरित के बजाय परस्पर संबद्ध और सामंजस्यपूर्ण मानते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि संस्कृत न केवल भारतीय संस्कृति के लिए प्रासंगिक है, बल्कि शांति, ज्ञान और साझा मूल्यों पर आधारित वैश्विक विमर्श को आकार देने की क्षमता रखती है।
भाषा से शुरू होता है राष्ट्रीय पुनरुत्थान
संस्कृत को घरेलू भाषा बनाने का मोहन भागवत का आह्वान एक सांस्कृतिक अभियान से कहीं बढ़कर एक सभ्यतागत पुनरुत्थान है। ऐसे युग में जब भारत अर्थशास्त्र, रक्षा और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना रहा है, उसे अपनी भाषाई और आध्यात्मिक विरासत को भी पुनः प्राप्त करना होगा। संस्कृत भारत के प्राचीन ज्ञान और आधुनिक आकांक्षाओं के बीच एक अनूठा सेतु प्रदान करती है। सरकारी सहयोग, शैक्षणिक संस्थानों और सक्रिय जनभागीदारी से, संस्कृत एक औपचारिक भाषा से कहीं बढ़कर हो सकती है। यह एकता, बौद्धिकता और पहचान की जीवंत भाषा बन सकती है। आरएसएस प्रमुख का संदेश स्पष्ट है: जब संस्कृत हमारे घरों में वापस आएगी, तभी भारत वैश्विक मंच पर सचमुच ऊँचा उठेगा।