‘संघ की कार्यशैली का प्रतिबिंब’: पुस्तक ‘तन समर्पित मन समर्पित’

268 पृष्ठों की इस पुस्तक में 50 अध्याय रूपी संस्मरण हैं और प्रत्येक संस्मरण अनुपम है, ‘कुछ न कुछ’ प्रेरणा देने वाला है और वो ‘कुछ न कुछ’ ऐसा है जिसका आभाव आज की युवा पीढ़ी में साफ़ साफ़ दिखता है ।

तन समर्पित, मन समर्पित

सोशल मीडिया और कृत्रिम बुद्धि (AI) के इस युग में जीवन के हर क्षेत्र में बड़ी भागदौड़ चलती रहती है। शहरों में तो ये गति और भी तेज है, ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों के पास ठहराव का समय नहीं है। परिवार छोटे होते जा रहे हैं, जिम्मेदारियां बड़ी होती जा रही है। दाम्पत्य जीवन टूटने के समाचार तो रोज ही छपते हैं, बल्कि दम्पतियों द्वारा एक दूसरे की हत्याओं या आत्महत्याओं का सिलसिला भी बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। पारिवारिक जीवन के लिए ‘टेस्ट ड्राइव’ जैसी बचकाना बातें करने वाले लोग भी खूब उछल कूद कर रहे हैं। कुल मिलकर परिवार संभालना लोगों के लिए कठिन हो रहा है। ऐसे में अपना परिवार अच्छे से सँभालते हुए दिन रात देश सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले दम्पत्ति देव दुर्लभ हो जाते हैं। वैसे ऐसे लोग आज भी हैं और पुरानी पीढ़ी में तो अधिकांश ऐसे ही थे।

तन समर्पित मन समर्पित’ एक पुस्तक है, जिसे पढ़ने के बाद देश सेवा हेतु अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले ऐसे ही एक दम्पत्ति स्व. रमेश प्रकाश जी और उनकी धर्म पत्नी आशा जी के बारे में पता चलता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विविध दायित्वों का निर्वहन करने वाले वरिष्ठ कार्यकर्ता स्वर्गीय रमेश प्रकाश जी के जीवन संस्मरणों को उद्घाटित करने वाली इस पुस्तक का प्रकाशन  ‘सुरुचि प्रकाशन’ ने किया है।

समाज में ऐसे व्यक्तित्व विरले ही मिलते हैं, जिनका जीवन न केवल अपने लिए, बल्कि दूसरों के कल्याण और राष्ट्र की उन्नति के लिए समर्पित होता है। ‘तन समर्पित, मन समर्पित’ पुस्तक इसी भावना का सजीव चित्रण है। इसमें रमेश प्रकाश जी जैसे समर्पित कार्यकर्ता जिन्होंने अपने तन और मन को पूरी तरह समाज और राष्ट्र को समर्पित कर दिया, के जीवन चरित को अनेक लोगों ने अपने संस्मरणों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

यदि एक पंक्ति में कहा जाए तो यह पुस्तक एक ऐसा सशक्त दस्तावेज़ है जिसमें समाज सेवा के प्रति अटूट समर्पण, पारिवारिक जिम्मेदारियों का अच्छे से निर्वहन करने के कौशल और आत्म-उदाहरण प्रस्तुत करने वाले एक आधुनिक दधीचि के जीवन के दर्शन होते हैं। 268 पृष्ठों की इस पुस्तक में 50 अध्याय रूपी संस्मरण हैं और प्रत्येक संस्मरण अनुपम है, ‘कुछ न कुछ’ प्रेरणा देने वाला है और वो ‘कुछ न कुछ’ ऐसा है जिसका आभाव आज की युवा पीढ़ी में साफ़ साफ़ दिखता है । जैसे कि विनम्रता, सेवा भाव, समर्पण, सतत सक्रियता और आत्म-अनुशासन जैसे गुण आज की युवा पीढ़ी में विलुप्त होते जा रहे हैं । वहीं इस पुस्तक से आपको पता चलेगा कि स्व. रमेश प्रकाश जी इन सभी गुणों का जीवंत उदाहरण थे। इन 50 संस्मरणों में रमेश जी के लिए अनेक उपमाएं दी गई हैं, पाठक केवल पुस्तक का अनुक्रम पढ़ेगा तो समझ आएगा कि रमेश जी लोगों के हृदय में कैसा विशेष स्थान रखते थे । पुस्तक में रमेश जी के बारे में पढ़ने से पता चलता है कि संघ के सिद्धांतों को व्यवहारिक जीवन में उतारकर दोनों यानि परिवार और राष्ट्र में सामंजस्य स्थापित करके एक संतुलित जीवन कैसे जिया जा सकता है। सरल शब्दों में कहें तो यह पुस्तक बताती है कि गृहस्थ जीवन में संतुलन स्थापित करके परिवार के साथ राष्ट्र सेवा की जा सकती है। वास्तव में, यह पुस्तक राष्ट्र निर्माण में व्यक्तिगत समर्पण के महत्व को रेखांकित करती है और यह एक ऐसा संदेश है जो आज विशेषकर युवा और समाजसेवी वर्ग के लिए मार्गदर्शक हो सकता है।

पुस्तक में एक ‘कार्यकर्ता’ के लिए या यूँ कहें समाज जीवन के किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति के लिए सतत सागे बढ़ने का एक आवश्यक और मूल मंत्र बताया गया है। वह मंत्र है, “सिर ठंडा, सीने में आग, मुँह में शक्कर और पाँव में चक्कर” । किसी भी कार्य की सफलता के लिए यह जरूरी है कि वह कार्य शांतचित्त होकर पूर्ण एकाग्रता से किया जाना चाहिए। इसी तरह उस कार्य के प्रति प्रतिबद्धता या जूनून होना भी उतना ही आवश्यक है। हमारे आचरण में बोलचाल अथवा वाणी का बड़ा महत्त्व होता है, संवाद और विवाद वाणी की मधुरता और कटुता पर निर्भर करते हैं और आलस्य पूर्ण व्यक्ति कभी भी अपेक्षित कार्यसिद्धि नहीं कर सकता, उसके लिए आलस्य त्यागकर सतत सक्रिय रहना प्रथम शर्त है। उक्त मंत्र का यही भाव है और रमेश जी ने अपने जीवन से इस मन्त्र को चरितार्थ किया।

जैसे जैसे पाठक पुस्तक पढ़ता चलेगा एक विचार जो मन में उपजता जाएगा और वह यह है कि अपने विचार या उद्देश्य या ध्येय के प्रति विशुद्ध रूप से समर्पित व्यक्ति साधनों या संसाधनों की चिंता किये बिना मुस्कुराते हुए, सबको साथ लेकर सतत आगे बढ़ता रहता है। ‘नहीं चाहिए पद, यश गरिमा, सभी चढ़े माँ के चरणों में’ इस भाव को हृदय में धारण करके जीवन जीता है और चरितार्थ करता है ‘तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित, चाहता हूँ मातृभू तुझको अभी कुछ और भी दूँ’ को

पुस्तक पढ़ने के बाद पाठक को एहसास होगा कि रमेश जी का जीवन इस बात का जीवंत उदाहरण है कि कैसे एक साधारण व्यक्ति कोई प्रपंच किये बिना केवल शांतचित्त, संयमित और त्यागी होकर भी समाज में गहरा प्रभाव छोड़ सकता है। ‘तन समर्पित, मन समर्पित’ पुस्तक केवल एक जीवनी नहीं है, बल्कि एक ‘जीवन-दर्शन’ है। यह पुस्तक हमें याद दिलाती है कि असली सेवा वही है जो बिना किसी स्वार्थ के और सच्चे मन से निरंतर की जाए। रमेश प्रकाश जी का जीवन इसी संदेश का उदाहरण है, जिन्होंने अपने तन और मन से राष्ट्र और समाज के लिए समर्पित होकर एक अमिट छाप छोड़ी। यह पुस्तक हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है जो अपने जीवन को समाज और देश की सेवा में लगाना चाहता है।

संक्षेप में कहें तो ‘तन समर्पित, मन समर्पित’ पुस्तक आज की युवा पीढ़ी के लिए उत्प्रेरक की तरह है, जो उन्हें देश और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझने और उनका निर्वहन करने के लिए प्रेरित करती है और उनका उचित मार्गदर्शन करने की शक्ति रखती है।

नारायणायेती समर्पयामि ……

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