सैन्य शब्दकोश का एक शब्द है– ‘लास्ट स्टैंड’, यानी वो लड़ाई जहां एक पक्ष भले ही हार गया हो, लेकिन उसकी शूरवीरता, उसकी जांबाज़ी हार कर भी जीत में तब्दील हो गई हो। जहां मुठ्ठी भर शूरवीरों ने पूरी सेना को तब तक चुनौती दी हो, जब तक कि उनके लिए जीत बेमानी न बन जाए। यानी ऐसी लड़ाई जहां हारने वाले पक्ष ने आखिरी सांस, आखिरीगोलीऔरआखिरीउम्मीदतकजंगलड़ीहो।
और जब कभी भी ऐसे ‘लास्ट स्टैंड्स’ का जिक्र आता है तो बैटल ऑफ सारागढ़ी का जिक्र उनमें सबसे ऊपर होता है।
ये ऐतिहासिक लड़ाई मौजूदा पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में लड़ी गई थी, जहां सिर्फ 21 सिख सैनिक सारागढ़ी का किला बचाने के लिए पूरे दिन हजारों अफ़ग़ान कबाइलियों का सामना करते रहे। उनकी गोलियां खत्म हो गईं, तो उन्होने संगीनों से लड़ाई जारी रखी, लेकिन वो आखिरी साँस तक लड़ते रहे। आख़िरकार दिन भर चली लड़ाई के बाद कबाइली किसी तरह किले के अंदर दाखिल होने में कामयाब तो हो गए, लेकिन उन्हें घुसते ही ये एहसास हो गया कि वो ये लड़ाई जीत कर भी हार गए हैं।
महज़ 21 सिख जवानों ने क़रीब 15-20 हज़ार पठानों को पूरे दिन न सिर्फ रोके रखा, बल्कि ये भी सुनिश्चित किया कि उनके जीते जी कोई भी कबाइली सारागढ़ी के अंदर क़दम न रख सके। करीब 7-8 घंटों की लड़ाई के बाद जब कबाइली किसी तरह किले के अंदर दाखिल हुए, तब तक शाम हो चुकी थी। जंग में सैकड़ों साथियों को गंवाने के बाद पठान न सिर्फ थक चुके थे, बल्कि उनके हौसले भी बुरी तरह पस्त थे।
लिहाजा जब अगले दिन पास के ही कोहाट (खैबर–पख्तूनख्वा) से अंग्रेजों की 9 माउंटेन बैटरी वहां पहुंची तो पठानों ने अंग्रेजों का सामना करने की जगह सारागढ़ी से भागने में ही भलाई समझी और सिर्फ एक दिन के अंदर ही सारागढ़ी दोबारा अंग्रेजों के कब्जे में आ गया।
इसीलिए ‘बैटल ऑफ सारागढ़ी’ को आधुनिक वक्त का सबसे बेहतरीन ‘लास्ट स्टैंड’ माना जाता है। युद्ध इतिहास में इससे ऊपर सिर्फ ‘द बैटल ऑफ़ थर्मोपाइली’ को रखा जाता है– जो ईसा से क़रीब 500 वर्ष पूर्व लड़ी गई थी। स्पार्टा और पर्शियन साम्राज्य के बीच लड़ी गई इस लड़ाई पर ‘थ्री हंड्रेड’ नामकीफिल्मभीबनाईजाचुकीहै।
शायद इन सिख सैनिकों की वीरता भी भुला दी गई होती, लेकिन सारागढ़ी के पास स्थिति किलों– गुलिस्तां और लॉकहार्ट में मौजूद अंग्रेज़ अधिकारियों और सैनिकों ने ये लड़ाई अपनी आंखों से देखी थी । लेकिन पठान इतनी अधिक संख्या में थे कि वो बहुत चाह कर भी उनकी मदद के लिए नहीं आ सके.
लॉकहार्ट फोर्ट के कमांडिंग ऑफ़िसर लेफ़्टिनेंट कर्नल जॉन हॉटन पहले शख़्स थे, जिन्होंने इन सिख सैनिकों की वीरता की गवाही दी।
ब्रिटिश संसद ने 21 सिख सैनिकों को दी थी स्टैंडिंग ओवेशन
जब इन सिखों के बलिदान की ख़बर लंदन पहुंची तो उस समय ब्रिटिश संसद का सत्र चल रहा था.
सभी सदस्यों ने खड़े हो कर इन 21 सैनिकों को ‘स्टैंडिंग ओवेशन‘ दिया। बाद में इनमें से 20 सैनिकों को ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ से सम्मानित किया गया। ये ब्रिटिश सरकार का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार था, जो विक्टोरिया क्रॉस जैसी हैसियत रखता था (उस वक्त विक्टोरिया क्रॉस सिर्फ अंग्रेज़ सैनिकों को ही दिया जाता था, वो भी सिर्फ जीवित सैनिकों को)
लेकिन प्रश्न ये है कि अगर सारागढ़ी में मौजूद 21 वीर जवान, अपनी अंतिम साँस तक लड़े और शहीद हुए थे तो फिर ब्रिटिश सरकार ने सिर्फ 20 जवानों को ही ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ से क्यों नवाजा? ईशर सिंह और उनकी टोली के कुल 20 जवानों को ही क्यों शहीद माना गया?
वो 21 वां बदनसीब शख्स कौन था, जिसे अपनी वीरता और शहादत के बदले गुमनामी ही नसीब हुई?
ब्रिगेडियर कंवलजीत सिंह ने सारागढ़ी की लड़ाई पर किताब ‘द आइकॉनिक बैटल ऑफ सारागढ़ी’ लिखी है। इसमें वो बताते हैं कि सारागढ़ी में भले ही 36 सिख रेजिमेंट के कुल 21 लोग मौजूद थे, लेकिन उनमें एक भिश्ती ‘दाद’ भी शामिल था। दाद ‘एनसीई‘ यानी नॉन कॉम्बेटेंड इनरोल्ड था और उसका काम बाकी सिपाहियों की ख़िदमत करना, उनकी मदद करना, हथियारों के बक्से और कारतूस पहुंचाना और उन्हें पानी पिलाना था। असैनिक होने की वजह से उसे हथियार उठाने की इजाज़त नहीं थी।
जबकि सच्चाई ये थी कि सारागढ़ी की लड़ाई में दाद ने असैनिक होते हुए भी गोलियों की बौछारों के बीच भी न सिर्फ अपनी ड्यूटी अच्छी तरह निभाई, बल्कि जब ईशर सिंह की टोली के ज़्यादातर सिपाही घायल या वीरगति को प्राप्त हो गए तो दाद ने रायफल भी थाम ली।
ब्रिगेडियर कंवलजीत सिंह बताते हैं कि दाद ने कॉम्बैट रोल में न होते हुए भी अपनी राइफ़ल और संगीन से कई हमलावरों को मार गिराया था और किले में घुसने की कोशिश कर रहे कबीलाइयों को कुछ देर तक अकेले दम रोके रखा था। आखिर जिस टुकड़ी के सभी सिपाही शेरों की तरह लड़े हों, वहां भला भिश्ती दाद पीछे कैसे रहता?
लेकिन ये ब्रिटिश सरकार की बड़ी नाइंसाफी थी कि अपनी जिम्मेदारी के उत्कृष्ट निर्वहन और अद्भुत पराक्रम के प्रदर्शन के बावजूद दाद की शहादत और उनकी वीरता को पहचाना ही नहीं गया। सम्मान तो दूर उन्हें शहीदों को मिलने वाला मुआवजा तक नसीब नहीं हुआ।जबकि सारागढ़ी में मारे गए दाद के साथी 20 सिपाहियों के परिवारों को 500 रुपये और क़रीब 50-50 एकड़ ज़मीन मुआवजे के तौर पर दी गई थी।
यहां तक कि इसी लड़ाई पर आई फिल्म ‘केसरी’ में भी हालांकि दाद को भिश्ती के तौर पर पानी पिलाते ही दिखाया गया है, जबकि ब्रिगेडियर कँवल सिंह के मुताबिक़ उसने कई पठानों को अकेले ही मार गिराया था।
हालांकि इस लड़ाई को देख रहे दूसरे सिपाइयों और अफसरों ने उनकी वीरता और शहादत को पहचाना। ब्रिटिश सेना के तत्कालीन मेजर जनरल यीटमैन बिग्स ने कहा था कि “21 सिख सैनिकों की बहादुरी और शहादत को ब्रिटिश सैनिक इतिहास में हमेशा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा.”
यही नहीं ब्रिटिश सरकार की तरफ़ से ये भी कहा गया कि “हमें यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि जिस सेना में सिख सिपाही लड़ रहे हों, उन्हें कोई नहीं हरा सकता.”
सारागढ़ी की लड़ाई आज से ठीक 128 साल पहले यानी 12 सितंबर, 1897 को लड़ी गई थी और तब से हर साल, भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट की चौथी बटालियन 12 सितंबर को सारागढ़ी दिवस के रूप में मनाती है। इस दिन उन 21 बहादुर सिख सैनिकों के वीर बलिदान को याद किया जाता है जिन्होंने ब्रिटिश सेना के एक फोर्ट की सुरक्षा के लिए दुश्मनों का अंतिम सांस तक डटकर मुक़ाबला किया था और ये परंपरा आज भी भारतीय सेना का हिस्सा है।