भारतीय इतिहास शास्त्र की अवधारणा एवं स्वरूप

भारतीय इतिहास की अवधारणा के अनुसार इतिहास का अंतिम उ‌द्देश्य मानव का कल्याण है। इसलिए कहा गया है कि इतिहास संस्कृति का संवर्धक एवम धर्म का पोषक होना चाहिए।

भारतीय इतिहास शास्त्र की अवधारणा एवं स्वरूप

अपने पिछले लेख में हमने इतिहास का अनुवाद हिस्ट्री नहीं होता है, यह तथ्य सिद्ध किया था। भारतीय चिंतन परम्परा में इतिहास कला नही है, बल्कि वह विज्ञान और शास्त्र है। इतिहास को शास्त्र की संज्ञा दी गयी है और इसके कारण निम्न है:

1) प्रथम और महत्वपूर्ण कारण है, इतिहास की विषय वस्तु प्रकृति के अथवा सृष्टि के इतिहास से प्रारम्भ होती है। सृष्टि का इतिहास एक विज्ञान सम्मत इतिहास है इसी कारण इतिहास को शास्त्र की संज्ञा दी गयी है और यही कारण है कि इतिहास, पुराण को प्रथम वेद भी कहा गया है- “इतिहास पुराण पंचमो वेद”। वेद भी सृष्टि उत्पत्ति एवं विकास के विज्ञान का नाम है। अतः कहा गया है कि इतिहास पुराण से वेद का उपवृंहण अर्थात व्याख्या करेंः

“इतिहास पुराणाभ्यां वेद सभुपवृंहयेत”

2) इतिहास का दूसरा प्रतिपाद्य विषय है, पृथ्वी पर मानव की उत्पति एवम उसका प्रसारण। यही कारण है कि मानव वंश परम्परा पुराणों में प्रतिपादित की गई है। कालक्रम में मानव संघो का निर्माण होने पर सामाजिक संकल्पनाओं का जन्म हुआ एवम अंततः समाज विस्तार के कारण राजनैतिक अवधारणाओं तथा समीकरणों का विकास हुआ। इसलिए राजनैतिक इतिहास लेखन भारतीय इतिहास शास्त्र की लेखन परम्परा में अंतिम बिंदु था।

इतिहास उद्देश्य-

इस तरह भारतीय इतिहास शास्त्र में साहित्य लेखन के साथ साथ विज्ञान, उपन्यास एवम उपाख्यान सभी का समावेश है।

भारतीय इतिहास की अवधारणा के अनुसार इतिहास का अंतिम उ‌द्देश्य मानव का कल्याण है। इसलिए कहा गया है कि इतिहास संस्कृति का संवर्धक एवम धर्म का पोषक होना चाहिए। उ‌द्देश्य सम्बन्धी इन बातों का ध्यान रखते हुए भारतीय इतिहास लेखन में राष्ट्रजीवन के सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवम राजनैतिक आदि के सर्वपक्षों के इतिहास का सर्वांगीण चित्र प्रस्तुत करना अपेक्षित है। इतिहास लेखन की उपरोक्त अवधारणा के कारण भारत में लिखने के जो अनेक प्रकार विकसित हुए है उनका विवरण निम्न है:

1) इतिहास– ‘इति. ह वै आस’ इतिहास की यह व्याख्या वैदिक साहित्य में दी गयी है परन्तु ऋषि शौनक अपने ग्रन्थ ‘वृहद देवता’ में इसे और भी स्पष्ट करके लिखते हैं ऋषियों द्वारा कही गयी बात इतिहास है’। ‘यह घटित हुई है।

2) पुराकल्प – पूर्व के कल्प की घटना का विवरण।

3) पुरावृत्त – पूर्व के मन्वन्तर की घटना का विवरण।

4) आख्यान – आख्यान का अर्थ है लोक परम्परा में विश्रुत प्रकृति अथवा समाज का इतिहास।

5) उपाख्यान– किसी मुख्य कथा के साथ सम्बन्धित दूसरी कथा।

6) ऐतिह्य– परम्परागत कथन को कहते है।

7) परक्रिया– यह भी पूर्व काल की बात करने को कहने की पद्धति है। किसी एक नायक विषय वस्तु को लेकर लिखे गए इतिहास को परक्रिया कहते हैं।

8) परकृति– वायु पुराण (59.136) में इसका उल्लेख है। किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा कहे गए इतिहास को जब कोई अन्य व्यक्ति सुनाता है तो ऐसा इतिहास परकृति कहलाता है।

9) इतिवृत– किसी पुस्तक, नाटक अथवा लेख का संक्षेप इतिवृत कहलाता है।

10) अनुचरित – किसी बड़ी कथा का संक्षिप्त विवरण।

11) अनुवंश– एक वंश का इतिहास लिखने अथवा कहने के समय उसकी किसी शाखा का आरम्भ कर दिया तो वह अनुवंश कहलाता है।

12) कथा– एक मुख्य बात का वर्णन ।

13) परिकथा– कथा से सम्बंधित दूसरी कथा।

14) गाथा– गाथा और कथा में अंतर होता है। कथा में तो मुख्य पात्र का वर्णन होता है, परन्तु किसी एक की कथा से दूसरे की कथा कहने लगे तो वह गाथा होती है।

15) अन्वख्यान – किसी के द्वारा कहे गए इतिहास को उद्धृत करना।

16) चरित– समाज के आदर्श लोगों का चरित्र वर्णन ।

17) नाराशंसी– समाज में विशिष्ट योगदान देने वाले लोगो की ग्रन्थ सूची बनाना।

18) काल विद– काल के इतिहास के ज्ञाता।

19) गोत्र परवरकार– प्रारम्भिक गोत्रों की उत्पति तथा विस्तार का लेखा जोखा रखने रखने वाले लोग।

20) राजशास्त्र – राजनैतिक इतिहास का लेखन।

21) पुराण– वंश, मन्वन्तर, सर्ग, प्रतिसर्ग, वंशानुचरित की ऐतिहासिक सामग्री का लेखा।

  यथा- सर्गश्च प्रति सर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।

वंशानुचरित चैव पुराण पंचलक्षणम।।

यह श्लोक प्रायः सभी पुराणों में पाया जाता है। इन पांच लक्षणों में से प्रथम तीन का सीधा सम्बन्ध विज्ञान से है। शेष दो मानवीय इतिहास प्रधान है।

क्रमशः ……

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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