इस्लामिक NATO की ओर पहला क़दम: ट्रंप और अरब-मुस्लिम नेताओं की सीक्रेट मीटिंग के क्या हैं मायने?

पढ़ें क्या इस्लामिक NATO का खेल और भारत को इससे क्यों रहना चाहिए सतर्क?

इस्लामिक NATO की ओर पहला क़दम: ट्रंप और अरब-मुस्लिम नेताओं की सीक्रेट मीटिंग के क्या हैं मायने?

भारत के लिए इस्लामिक नाटो जैसी किसी भी पहल के निहितार्थ गहरे और बहुआयामी हो सकते हैं।

पिछले दो सालों से गाज़ा लगातार युद्ध का मैदान बना हुआ है और अभी भी ये आग बुझने का नाम ही ले रही है। इसी बीच 9 सितंबर को ऐसा घटनाक्रम सामने आया जिसने पूरी दुनिया को चौंका दिया। 9 सितंबर 2025 इज़रायल ने सीधे क़तर की राजधानी दोहा पर हवाई हमला किया जहां उसके निशाने पर हमास की टॉप लीडरशिप थी। यह सिर्फ एक और हमला नहीं था, बल्कि पहली बार था जब इज़रायल ने किसी खाड़ी देश की धरती को निशाने पर लिया। क़तर ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए दोहा में अरब लीग और ओआईसी की आपात बैठक बुलाई। इसमें चालीस से अधिक मुस्लिम देशों ने भाग लिया। वहां चर्चा केवल गाज़ा तक सीमित नहीं रही बल्कि साझा सुरक्षा ढांचे की स्थापना पर भी हुई। यहीं पर इस्लामिक नाटो जैसे सैन्य गठबंधन का विचार एक बार फिर सामने आया। पाकिस्तान ने इस मौके को भुनाते हुए एक तथाकथित “अरब इस्लामिक टास्क फोर्स” बनाने की आक्रामक पैरवी की और नाटो जैसी फौजी व्यवस्था की पुरानी बहस को फिर हवा दी।

इसी पृष्ठभूमि में अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अगली चाल सुर्खियां बटोर रही है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मंगलवार यानी 23 सितंबर 2025 को वह न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान चुनिंदा अरब और मुस्लिम नेताओं से सीक्रेट बैठक करेंगे। आधिकारिक बयान के अनुसार बातचीत का मुद्दा गाज़ा युद्ध और क्षेत्रीय सुरक्षा होगा, लेकिन सोशल मीडिया और रक्षा विशेषज्ञ इसे मात्र सामान्य चर्चा नहीं मान रहे। उनके मुताबिक यह बैठक इस्लामिक नाटो की दिशा में उठाया गया पहला व्यावहारिक कदम भी साबित हो सकती है। अब सवाल यही है कि आखिर ट्रंप और इस्लामिक दुनिया के नेताओं के बीच होने वाली यह गुप्त मुलाकात क्या संकेत देती है? यह इस्लामिक नाटो जैसी पहल असल में है क्या और भारत के लिए इसके निहितार्थ कितने गंभीर हो सकते हैं?

ट्रम्प की सीक्रेट मीटिंग

यह वर्ष संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) के 80वें सत्र का प्रतीक है, जिसकी शुरुआत 9 सितंबर 2025 को हो चुकी है। यूएनजीए का हाई-लेवल वीक 22 से 26 सितंबर तक चलेगा, जब दुनिया भर के नेता न्यूयॉर्क सिटी में इकट्ठा होंगे। इसी बीच न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा का 80वाँ सत्र शुरू होते ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक हाई-प्रोफाइल बैठक बुलाकर नई हलचल पैदा कर दी है। Axios की रिपोर्ट के अनुसार यह बैठक मंगलवार को तय की गई है और इसमें चुनिंदा अरब और मुस्लिम नेताओं को एक जगह बुलाया जा रहा है। बताया जा रहा है कि इसमें गाज़ा युद्ध और क्षेत्रीय सुरक्षा जैसे मसलों पर गहन चर्चा होगी। यह वार्ता महासभा की औपचारिक कार्यवाही से अलग, पूरी तरह बंद कमरों के भीतर होगी।

सूत्रों के अनुसार सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, क़तर, मिस्र, जॉर्डन और तुर्की के नेताओं को आमंत्रण भेजा गया है। इतना ही नहीं, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ को भी इसमें शामिल होने के लिए बुलाया गया है और इस्लामाबाद ने उनकी उपस्थिति की आधिकारिक पुष्टि कर दी है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय की ओर से बयान जारी कर कहा गया है कि शरीफ़ “अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ चुनिंदा इस्लामिक नेताओं की बैठक में शामिल होंगे, जहां क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा से जुड़े अहम मुद्दों पर विचारों का आदान-प्रदान होगा।” बताते चलें कि ट्रंप इस पूरे खेल में दो बड़े फायदे साधना चाहते हैं। पहला, दुनिया को यह दिखाना कि अमेरिका केवल इज़रायल का मित्र नहीं बल्कि अरब दुनिया का भी भरोसेमंद साथी है। दूसरा, गाज़ा युद्ध के बाद जो नई परिस्थितियाँ बन रही हैं, उनमें ऐसा ढांचा तैयार करना जिससे ईरान और तुर्की का पलड़ा भारी न पड़ सके।

इस घटनाक्रम में ध्यान देने वाली बात यह भी है कि यह मुलाक़ात ऐसे समय पर हो रही है जब महज़ छह दिन बाद इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू 29 सितंबर को सीधे वॉशिंगटन पहुँचकर ट्रंप से मुलाक़ात करने वाले हैं। यह समय-संयोग कई सवाल खड़े करता है कि क्या ट्रंप की इस गुप्त बैठक और नेतन्याहू की आने वाली यात्रा के बीच कोई रणनीतिक कड़ी मौजूद है? या क्या यह इस्लामिक NATO की ओर पहला व्यवाहरिक क़दम है?

क्या है इस्लामिक NATO

इस्लामिक नाटो शब्द भले ही आज अचानक सुर्खियों में चर्चा का विषय बन गया हो, लेकिन इसकी जड़ें एक दशक से भी पुरानी हैं। यह पहली बार नहीं है जब इसे अंतरराष्ट्रीय मंचों और अख़बारों की सुर्खियों में जगह मिली हो। अरब स्प्रिंग के बाद सऊदी अरब ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के नाम पर 34 इस्लामी देशों के एक साझा गठबंधन की घोषणा की थी। यही वह क्षण था जब तथाकथित इस्लामिक नाटो की बुनियाद रखी गई।

इसके बाद यमन संघर्ष और आईएसआईएस के तेज़ उभार के दौरान 2015 में शर्म अल-शेख में आयोजित अरब लीग शिखर सम्मेलन में मिस्र की ओर से “जॉइंट अरब फोर्स” का प्रस्ताव सामने आया। उस समय इसे क्षेत्रीय स्तर पर एक मज़बूत सुरक्षा ढांचे के रूप में देखा गया, लेकिन संप्रभुता की चिंताओं, आपसी प्रतिद्वंद्विता और सैन्य असमानताओं के चलते यह पहल कभी ज़मीन पर उतर ही नहीं सकी। मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी ने अपने देश की ताकत, जो अरब जगत की सबसे बड़ी सेना है (4.5 लाख से अधिक सक्रिय सैनिक), का सहारा लेते हुए काहिरा को इस गठबंधन का केंद्र बनाने की कोशिश की। इसके बावजूद यह योजना अधूरी ही रह गई।

हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि खाड़ी सहयोग परिषद यानी जीसीसी अगर अपने संयुक्त रक्षा समझौते को सक्रिय कर देती, तो यह एक शुरुआती ढांचे के रूप में काम कर सकता था। लेकिन व्यवहार में सदस्य देशों ने ठोस प्रतिबद्धताओं के बजाय केवल बयानबाज़ी और निंदा तक ही खुद को सीमित रखा। परिणाम यह हुआ है कि अरब नाटो का विचार प्रतीकात्मकता से आगे नहीं बढ़ पाया। मिस्र-अमेरिकी लेखक हुसैन अबूबक्र मंसूर ने भी साफ कहा कि यह पहल व्यावहारिक से ज़्यादा प्रतीकात्मक रही है। उनके शब्दों में, “यह तथ्य कि अरब नाटो मिस्र की सोच है और मुस्लिम नाटो ईरान की, यह बताने के लिए काफी है कि इस योजना के पीछे कितना कन्फ्यूजन, छिपे हुए एजेंडे और अलग-अलग देशों की अपनी-अपनी रणनीतियाँ छिपी हुई हैं। सऊदी अरब या मिस्र या ईरान को प्रोटेक्शन मनी देने के बजाय कोई भी देश आयरन डोम को फंड करना ज़्यादा पसंद करेगा।”

भारत के लिए क्या मायने हैं?

भारत के लिए इस्लामिक नाटो जैसी किसी भी पहल के निहितार्थ गहरे और बहुआयामी हो सकते हैं। सबसे पहले पाकिस्तान की भूमिका पर नज़र डालना ज़रूरी है। पाकिस्तान लंबे समय से बहुपक्षीय मंचों और इस्लामिक गठबंधनों का सहारा लेकर अपनी रणनीति को आगे बढ़ाता रहा है। आर्थिक संकट से जूझते हुए भी उसने अरब फंडिंग और तकनीकी मदद का इस्तेमाल किया है और कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय बनाने के लिए लगातार ओआईसी जैसे मंचों का सहारा लिया है।

दोहा की मेज़ पर एक और खिलाड़ी मौजूद था तुर्की। अंकारा ने बीते कुछ वर्षों में पाकिस्तान की कश्मीर पर की गई बयानबाज़ी को न केवल तेज़ किया है बल्कि खुले तौर पर उसका समर्थन भी किया है। इतना ही नहीं, मई में चार दिन चली मिनी-वार के दौरान तुर्की ने पाकिस्तान को सैन्य हार्डवेयर उपलब्ध कराया था और साथ ही टेक्नीशियन और सैनिक भी भेजे थे। भारत को लेकर एर्दोगन की नीतियाँ पहले से ही आलोचना के घेरे में रही हैं। ऐसे में यदि पाकिस्तान और तुर्की दोनों एक परमाणु-सक्षम इस्लामिक सैन्य गठबंधन का हिस्सा बनते हैं, तो यह दक्षिण एशिया में तनाव को और गहरा सकता है।

नाटो जैसे किसी समझौते में यह सिद्धांत होता है कि किसी एक सदस्य देश पर हमला सभी पर हमला माना जाएगा और सैन्य प्रतिक्रिया सामूहिक रूप से दी जाएगी। यदि इसी ढांचे पर इस्लामिक नाटो का निर्माण हुआ, तो पाकिस्तान को नई ताकत और हौसला मिल सकता है। इससे उसे भारत-विरोधी गतिविधियों के लिए एक और बहुपक्षीय मंच मिल जाएगा।

हालांकि, मौजूदा हालात में तथाकथित “अरब नाटो” का निशाना मूलतः इज़रायल ही है। इसके संभावित सदस्य जैसे सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र, भारत के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए हुए हैं। फिलहाल इस गठबंधन की सारी चर्चा इज़रायल पर केंद्रित है, न कि भारत पर। फिर भी पाकिस्तान और तुर्की की मौजूदगी इस समीकरण में भारत के लिए असहजता और रणनीतिक चिंता पैदा करती है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि “अरब नाटो” अभी भी सिर्फ़ एक नज़री बहस है, जिसका ठोस ज़मीन पर उतरना अभी दूर की बात लगती है लेकिन यदि यह कभी वास्तविकता का रूप लेता है, तो पाकिस्तान की भूमिका और उसके एजेंडे भारत के लिए गंभीर चुनौती साबित हो सकते हैं। अच्छी बात यह है कि इस पूरे समीकरण में भारत को सऊदी अरब, यूएई और मिस्र जैसे अहम क्षेत्रीय खिलाड़ियों का मजबूत समर्थन प्राप्त है। असली परीक्षा इस बात की होगी कि क्या सदस्य देश आपसी मतभेद भुलाकर वास्तव में एक सैन्य गठबंधन को ज़मीन पर उतार पाते हैं या यह विचार हमेशा की तरह कागज़ों और बयानों तक ही सीमित रह जाता है।

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