भारत का इतिहास जब-जब अपनी पीड़ा के पन्ने पलटता है, तब-तब 1960 का सिंधु जल समझौता हमारे सामने आता है। जवाहरलाल नेहरू ने इसे शांति और सहयोग की मिसाल बताया था, लेकिन आज यह सवाल उठाना ज़रूरी है-क्या यह सचमुच शांति का दांव था या फिर भारत के साथ किया गया दूसरा विभाजन?
नेहरू और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान ने कराची में जब इस संधि पर दस्तख़त किए, तो पूरे विश्व को यह दिखाने की कोशिश की गई कि भारत ने एक “बड़ा दिल” दिखाया है। नदियों का पानी बांटकर दोस्ती की नई राह खोली जाएगी। लेकिन सच्चाई यह है कि नेहरू ने आदर्शवाद और तुष्टीकरण की राजनीति में भारत के किसानों, भारत की रणनीतिक ताकत और भारत की भावी पीढ़ियों के साथ ग़द्दारी की।
तीन पूर्वी नदियां-रावी, व्यास और सतलुज-भारत को मिलीं और तीन पश्चिमी नदियां=सिंधु, झेलम और चिनाब-पूरी तरह पाकिस्तान के हवाले कर दी गईं। भारत को केवल घरेलू उपयोग और सीमित सिंचाई का अधिकार दिया गया। यानी भारत, जो भौगोलिक और प्राकृतिक रूप से ऊंचाई पर होने के कारण इन नदियों का स्वाभाविक मालिक था, अपने ही पानी के लिए भीख मांगने की स्थिति में डाल दिया गया। इतना ही नहीं, भारत ने पाकिस्तान को 83 करोड़ रुपये की आर्थिक मदद भी दी, ताकि वह प्रतिस्थापन नहरें और बांध बना सके। सवाल यह है कि क्या किसी स्वाभिमानी राष्ट्र को अपनी नदियां और अपना पैसा, दोनों, दुश्मन देश के लिए लुटा देना चाहिए था?
बदले में पाकिस्तान ने क्या दिया
नेहरू ने इस संधि को “विश्वास और सहयोग का प्रतीक” बताया। लेकिन पाकिस्तान ने इस विश्वास का बदला क्या दिया? 1965 का युद्ध, 1971 का विभाजन, 1999 का कारगिल और आज तक जारी आतंकवाद। यह वही पाकिस्तान है, जो भारत की छाती पर खंजर चलाता रहा और बदले में नेहरू ने उसे हमारी नदियों का खून थमा दिया। इस संधि से पाकिस्तान की धरती हरी-भरी हो गई और भारत के पंजाब व राजस्थान के खेत प्यासे रह गए। किसान सूखा झेलते रहे, लेकिन दिल्ली की सत्ता ने इसे “खुले दिल” की मिसाल कहा।
कांग्रेस के सांसदों ने ही उठाये थे सवाल
लोकसभा में भी उस समय ग़ुस्से का लावा फूटा था। कांग्रेस के ही सांसदों ने इसे तुष्टीकरण और आत्मसमर्पण कहा। पंजाब और राजस्थान के सांसदों ने साफ़ कहा कि इससे उनके राज्यों को पानी की भारी कमी झेलनी पड़ेगी। अशोक मेहता ने तो इसे साफ़-साफ़ “भारत का दूसरा विभाजन” कहा। युवा अटल बिहारी वाजपेयी ने चेतावनी दी कि यह समझौता भविष्य में भारत को भारी कीमत चुकाने पर मजबूर करेगा। लेकिन नेहरू ने सबको दरकिनार कर अपने आदर्शवाद को राष्ट्रहित से ऊपर रखा।
सोचिए, जिस पानी का 80 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान को दे दिया गया, वही पाकिस्तान भारत में आतंकियों की नहर बनाकर भेजता है। हमारी सेना पर गोलियां चलाने वाले हथियारों को ताक़त उसी पानी से मिलती है जो हमारे खेतों की प्यास बुझा सकता था। क्या यह नेहरू की मूर्खता नहीं थी कि उन्होंने दुश्मन को जीवनरेखा सौंप दी और अपने ही किसानों को रेगिस्तान में धकेल दिया?
क्या कहते हैं पीएम मोदी
आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे नेहरू की “ऐतिहासिक भूल” कहते हैं, तो यह केवल राजनीतिक बयान नहीं है, बल्कि इतिहास की सच्चाई है। मोदी सरकार ने 2025 के पहलगाम आतंकी हमले के बाद इस संधि को निलंबित किया और साफ़ कर दिया कि भारत अब अपनी नदियों का पानी पाकिस्तान को मुफ्त में नहीं देगा। यह निर्णय केवल प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि एक राष्ट्रवादी घोषणा है—भारत अब अपने संसाधनों का बलिदान “शांति” के नाम पर नहीं करेगा।
नेहरू को इतिहास में अकसर “शांति दूत” कहकर पेश किया जाता है, लेकिन असल में उन्होंने हर बड़े राष्ट्रीय संकट में कमजोर और आत्मसमर्पण की नीति अपनाई। चीन के सामने 1962 की हार इसका उदाहरण है। और पाकिस्तान के मामले में सिंधु जल संधि। यह वही सोच थी जिसने भारत को बार-बार धोखा खिलाया। सवाल यह नहीं है कि नेहरू ने क्या दिया, सवाल यह है कि उन्होंने किसके लिए दिया? भारत की जनता के लिए नहीं, बल्कि अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि और विश्व बैंक की मेहरबानी के लिए।
आज किसान पूछते हैं कि क्यों पंजाब के खेतों को सूखा सहना पड़ा जबकि उनकी नदियां पाकिस्तान की धारा बन गईं? क्यों राजस्थान के रेगिस्तान में आज भी पानी की प्यास है, जबकि नेहरू ने उसका हिस्सा लाहौर और कराची को सौंप दिया? क्यों हमारी आने वाली पीढ़ियों को पानी के संकट में धकेल दिया गया, ताकि नेहरू अपने आपको “महान” सिद्ध कर सकें?
सिंधु जल समझौता सिर्फ़ नदियों का बंटवारा नहीं था, यह भारत की आत्मा का बंटवारा था। यह हमारे किसान की प्यास, हमारी सुरक्षा की कमजोरी और हमारी राजनीति की सबसे बड़ी भूल थी। पाकिस्तान ने कभी शांति नहीं चाही, उसने हमेशा युद्ध और आतंक को चुना। लेकिन नेहरू ने इसे न समझा या जान-बूझकर अनदेखा किया। नतीजा यह हुआ कि भारत ने अपनी जीवनरेखाएं खो दीं और पाकिस्तान ने मुफ्त में अमृत पा लिया।
आज जब भाजपा इसे “दूसरा विभाजन” कहती है, तो यह शब्दों की अतिशयोक्ति नहीं है। सचमुच, 1947 में हमने जमीन खोई थी, और 1960 में हमने अपनी नदियां खो दीं। पहला विभाजन जिन्ना ने किया था, और दूसरा विभाजन नेहरू ने। फर्क सिर्फ इतना है कि एक ने भारत को तोड़ा और दूसरे ने भारत को प्यासा किया।
अब भारत के पास मौका है कि वह इस भूल को सुधारे। पाकिस्तान को जाने वाली हर बूंद का हिसाब होना चाहिए। यह पानी भारत के किसानों का है, भारत के जवानों का है, भारत की आने वाली पीढ़ियों का है। इसे किसी “खुले दिल” के आदर्शवाद पर बलिदान नहीं किया जा सकता। राष्ट्र पहले है, और नेहरू जैसे नेताओं के आदर्श बाद में। नेहरू ने जो किया, उसे अब इतिहास की गलती के रूप में दर्ज करना होगा। सिंधु जल संधि किसी भी हालत में भारत की जीत नहीं, बल्कि भारत की आत्मा पर लगा ज़ख्म है। और अब यह ज़ख्म भरने का समय है।