बिहार की राजनीति में जब “जंगलराज” शब्द उभरा, तो यह किसी विपक्षी नेता की गढ़ी हुई परिभाषा नहीं थी। यह उस दौर की सच्चाई थी, जिसे आम लोग रोज़ महसूस कर रहे थे। 1990 के दशक में जब लालू प्रसाद यादव सत्ता में आए, तो उन्होंने खुद को सामाजिक न्याय का मसीहा बताया। यादव-मुस्लिम समीकरण को आधार बनाकर उन्होंने सत्ता की मजबूत पकड़ बनाई। लेकिन सत्ता में बैठने के कुछ ही वर्षों में बिहार का चेहरा बदल गया। अपराध और अराजकता का बोलबाला हो गया।
उस समय अखबारों की सुर्खियां यही कहती थीं कि बिहार में कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं बची है। इंडिया टुडे की 2004 की एक रिपोर्ट ने बिहार को “जंगलराज” बताते हुए लिखा था कि यहां बंदूकें शासन से ज़्यादा ताक़तवर हैं। पटना हाईकोर्ट ने भी एक फैसले में कहा था कि राज्य सरकार पूरी तरह विफल है। यह टिप्पणी उस दौर की भयावह स्थिति को बयान करने के लिए काफी थी।
लालू यादव के शुरुआती दौर में ही जातीय संघर्ष अपने चरम पर पहुंच गया। रणवीर सेना जैसी जातीय सेनाएं और नक्सल संगठन आमने-सामने खड़े हो गए। इसका सबसे वीभत्स चेहरा नरसंहारों में देखने को मिला। लक्ष्मणपुर-बाथे में 1997 की सर्द रात को जब 58 दलितों को मौत के घाट उतारा गया, तो पूरा देश दहल गया। बथानी टोला, शंकर बिगहा और अन्य गांवों में भी इसी तरह के कत्लेआम हुए। औरतें, बच्चे और बुजुर्ग — कोई भी इन खूनी खेलों से बच नहीं पाया। उस समय की द हिंदू की रिपोर्ट ने लिखा कि “बिहार का गाँव, अब जातीय कब्रगाह में तब्दील हो चुका है।”
इसी दौरान बिहार अपहरण उद्योग का गढ़ बन गया। डॉक्टर, इंजीनियर, व्यापारी, यहाँ तक कि स्कूली बच्चे तक सुरक्षित नहीं थे। अपहरण “फॉर रैंसम” एक संगठित उद्योग की तरह चलने लगा। परिवार अपने बच्चों की रिहाई के लिए घर-जमीन बेचने को मजबूर हो रहे थे। कारोबारी राज्य छोड़कर दिल्ली और कोलकाता पलायन करने लगे। मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि 1990 से 2005 के बीच बिहार में हजारों अपहरण दर्ज हुए और वास्तविक संख्या तो इससे कहीं ज़्यादा थी।
1997 में जब चारा घोटाले की वजह से लालू यादव को इस्तीफ़ा देना पड़ा, तो उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया। यह भारतीय राजनीति का अनोखा पल था, जब बिना किसी राजनीतिक अनुभव वाली महिला को सीधे सत्ता की बागडोर थमा दी गई। राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने इसे “प्रॉक्सी राज” कहा। असली फैसले आज भी लालू ही लिया करते थे, और राबड़ी देवी महज़ नाममात्र की मुख्यमंत्री थीं। उस दौर में राज्य मशीनरी पूरी तरह ठप हो चुकी थी।
पटना हाईकोर्ट ने राबड़ी शासनकाल के दौरान बिहार को “फेल्ड स्टेट” कहा। यह टिप्पणी केवल एक औपचारिकता नहीं थी, बल्कि यह बताती थी कि किस हद तक कानून और शासन व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी थी। पुलिस-प्रशासन में जातीय पक्षपात हावी था। अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण हासिल था। कई बड़े अपराधियों के बारे में रिपोर्ट्स कहती हैं कि वे खुलेआम लालू के मंच पर देखे जाते थे और चुनावी राजनीति में उनका इस्तेमाल किया जाता था।
बिहार की छवि देश-विदेश में ध्वस्त हो चुकी थी। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की 2003 की रिपोर्ट ने बिहार को भारत का सबसे पिछड़ा राज्य बताया। सड़कें गड्ढों में तब्दील थीं, बिजली का नामोनिशान नहीं था, और शिक्षा का हाल यह था कि सरकारी स्कूलों में मास्टर तक मौजूद नहीं रहते थे। डॉक्टर सरकारी अस्पताल छोड़कर निजी क्लीनिक चलाने लगे। लाखों युवा रोज़गार की तलाश में पंजाब, दिल्ली और मुंबई पलायन करने लगे। गांवों में खेती-बारी घट रही थी, और उद्योग-धंधे पूरी तरह से खत्म हो गए थे।
इस दौरान विपक्ष लगातार जंगलराज का मुद्दा उठाता रहा। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने पटना की रैली में कहा था — “बिहार में लोकतंत्र नहीं, अपराधतंत्र चल रहा है।” लालकृष्ण आडवाणी ने भी कई बार जंगलराज शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहा कि बिहार भारत का सबसे दुखद राज्य बन गया है। बाद के वर्षों में नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी ने भी चुनावी सभाओं में जंगलराज की दास्तान सुनाई।
जातीय समीकरण ही लालू की सबसे बड़ी ताक़त बने। यादव-मुस्लिम गठजोड़, जिसे “एम-वाई फैक्टर” कहा गया, ने उन्हें लगातार चुनाव जीतने में मदद की। लेकिन इसके लिए शासन-प्रशासन में योग्यता से ज़्यादा जाति को महत्व दिया गया। पुलिस और नौकरशाही में जातीय पक्षपात इतना गहरा था कि अपराधियों को आसानी से बचाया जाता और पीड़ित न्याय से वंचित रह जाते।
राबड़ी देवी के कार्यकाल में महिला सशक्तिकरण का दावा भी खोखला साबित हुआ। उनके मुख्यमंत्री बनने से यह संदेश जरूर गया कि एक महिला शीर्ष पद पर बैठ सकती है, लेकिन असल शासन व्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि उस दौर में महिलाओं के खिलाफ अपराध भी लगातार बढ़ रहे थे और पुलिस-प्रशासन उदासीन था।
लालू-राबड़ी राज ने बिहार को ऐसी विरासत दी, जिसे मिटाने में दशकों लग गए। 15 साल तक सत्ता में रहने के बावजूद बिहार को गरीबी, पिछड़ेपन और अपराध की जकड़न से निकालने में वे असफल रहे। यही कारण था कि 2005 में जब सत्ता बदली, तो लोगों ने राहत की सांस ली। उस समय के अखबारों ने लिखा था कि “बिहार ने आखिरकार जंगलराज से मुक्ति पाई।”
लेकिन जंगलराज की कहानी केवल अतीत नहीं है। आज भी बिहार की राजनीति में यह शब्द गूंजता है। चुनावी भाषणों में विपक्ष इसे हथियार की तरह इस्तेमाल करता है। राजद आज भी इसे सामाजिक न्याय के नाम पर ढकने की कोशिश करती है, लेकिन नरसंहार, अपहरण और अपराध के उस दौर की यादें लोगों के मन से मिटाई नहीं जा सकतीं।