राष्ट्रकवि दिनकर: विद्रोह, राष्ट्रवाद और काव्य के ज्वालामुखी

जन्म दिवस पर विशेष : रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का नाम लेते ही हिन्दी कविता का वह स्वर याद आता है, जिसमें क्रांति की गर्जना भी है, राष्ट्र की वेदना भी और भविष्य के सपनों की झलक भी।

राष्ट्रकवि दिनकर: विद्रोह, राष्ट्रवाद और काव्य के ज्वालामुखी

रामाधारी सिंह दिनकर केवल साहित्यकार नहीं, आंदोलन थे।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का नाम लेते ही हिन्दी कविता का वह स्वर याद आता है, जिसमें क्रांति की गर्जना भी है, राष्ट्र की वेदना भी और भविष्य के सपनों की झलक भी। बिहार के सिमरिया गांव से निकला यह किसान-पुत्र न केवल काव्य-जगत का सितारा बना बल्कि स्वतंत्र भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन का भी एक मार्गदर्शक साबित हुआ। उन्हें लोग केवल कवि नहीं, बल्कि ‘राष्ट्रकवि’ कहते हैं। यह उपाधि उन्हें यूं ही नहीं मिली। उनकी पंक्तियों में भारत के स्वाधीनता-संग्राम की आंच है, अन्याय के विरुद्ध विद्रोह की गूंज है और भारतीय सभ्यता की जड़ों से उपजा गौरव भी।

किसान के बेटे थे दिनकर

दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के मुंगेर ज़िले (अब बेगूसराय) के सिमरिया गांव में हुआ। उनके पिता का निधन जल्दी हो गया था और वे एक साधारण कृषक परिवार में पले-बढ़े। बचपन से ही कठिनाई और संघर्ष ने उनके स्वभाव में एक अडिगता भर दी। संस्कृत, हिन्दी और इतिहास की पढ़ाई के दौरान उन्होंने प्राचीन भारत की गौरवगाथा और आधुनिक भारत की गुलामी का विरोधाभास देखा। बाद में यही द्वंद्व उनके भीतर कवि का ज्वालामुखी बनकर फूट निकला।

बीसवीं सदी के तीसरे और चौथे दशक का भारत गुलामी और संघर्ष के बीच जूझ रहा था। अंग्रेजी हुकूमत, किसानों पर अत्याचार, युवाओं में विद्रोह की बेचैनी—इन सबने दिनकर की रचनाओं को दिशा दी। वे कभी किसान के दर्द को आवाज़ देते, कभी सैनिक की तलवार को पुकारते और कभी क्रांतिकारी युवक के दिल की धड़कन बन जाते।

दिनकर की कविता को समझने के लिए उनके राष्ट्रवाद को समझना ज़रूरी है। उनके लिए राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक आज़ादी का नारा नहीं था, बल्कि आत्मगौरव और सभ्यता की पुनर्स्थापना की पुकार था। वे भारतीय संस्कृति को विश्व-दृष्टि से जोड़कर देखते थे। वे महाभारत और गीता के प्रतीकों को आधुनिक युग में खड़ा कर देते। इसीलिए उनकी कविता न केवल आज़ादी के समय की क्रांति का घोष है, बल्कि आज भी राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने वाली आवाज़ है।

दिनकर की पांच प्रमुख रचनाएं और उनके अंश

‘हुंकार’ (1938)
यह काव्य-संग्रह किसान और मज़दूर वर्ग की पीड़ा और विद्रोह का घोष है। इसमें गरीब जनता की कराह भी है और विद्रोह का शंखनाद भी। दिनकर लिखते हैं:
“सदियों से दबे हुए आंसू जो उबल पड़े हैं आज,
धरा के कंठ से उठी है हुंकार की आवाज़।”

कुरुक्षेत्र’ (1946)
महाभारत की युद्धभूमि के माध्यम से उन्होंने आधुनिक राजनीति और युद्ध की विभीषिका को चित्रित किया। यह रचना गांधी के अहिंसा-विचार और आधुनिक युद्धनीति दोनों पर सवाल खड़ा करती है।
“शांति नहीं जब तक सुख-भागी न विपुल जनों का होता,
केवल राजाओं का सुख तो विष बनकर जग को डंसता।”

रश्मिरथी’ (1952)
यह उनकी सबसे प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक रचना है, जिसमें महाभारत के नायक कर्ण को केन्द्र में रखा गया है। कर्ण का संघर्ष, उसकी पीड़ा और उसकी महिमा—दिनकर की कलम से अमर हो उठी।
“विप्र, नारि, धन, धेनु, सन्यासी।
ये सब हैं भोग के अधिकारी।”
(यहां कर्ण की व्यथा और समाज की विडंबना सामने आती है।)

‘उर्वशी’ (1961, ज्ञानपीठ से सम्मानित)
यह रचना प्रेम, सौंदर्य और कामना का अनोखा काव्य है। इसमें दिनकर ने काम और अध्यात्म के बीच के संघर्ष को उकेरा।
“प्रेम केवल भाव नहीं, यह जीवन की साधना है,
जो इसे न साधे, वह जीवन को खो देता है।”

‘परशुराम की प्रतीक्षा’ (1963)
इस रचना में दिनकर ने अन्याय और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक नए परशुराम के आगमन की पुकार लगाई।
“आओ, फिर से जन्म लो परशुराम!
धरती के कंठ से उठी है पुकार।”

राष्ट्रकवि की राजनीतिक यात्रा

दिनकर केवल कवि नहीं थे, वे राजनीति में भी उतने ही सक्रिय रहे। उनकी लेखनी संसद में भाषणों की तरह ही ओजस्वी थी। वे नेहरू के समाजवाद की आलोचना करते, तो शास्त्री और लोहिया के विचारों से भी प्रभावित थे। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह कि वे सत्ता के निकट होकर भी जनता के कवि बने रहे।

दिनकर की कविताओं में ‘साहित्य’ और ‘राजनीति’ का संगम अद्भुत रूप में मिलता है। वे मानते थे कि कवि का काम केवल सौंदर्य-रचना नहीं, बल्कि अन्याय के विरुद्ध शंखनाद करना भी है। यही कारण है कि उनकी कविता खेत-खलिहान से लेकर संसद तक और गांव से लेकर विश्वविद्यालय तक आज भी गूंजती है। उनकी पंक्तियां आज भी आंदोलनों में, भाषणों में और कवि-सम्मेलनों में गाई जाती हैं। जब भी युवाओं को ऊर्जा चाहिए होती है, उनकी कविताएं बिजली बनकर उतरती हैं।

आलोचना और विवाद

दिनकर को लेकर आलोचनाएं भी हुईं। कुछ लोगों ने कहा कि वे ‘अत्यधिक राष्ट्रवादी’ हैं, कुछ ने उन्हें ‘राजनीतिक कवि’ कहकर उनकी काव्यगत गहराई को कम करते हुए आंकने की कोशिश की। लेकिन समय ने सिद्ध किया कि उनका राष्ट्रवाद संकीर्ण नहीं, बल्कि व्यापक था। वह भारत को आत्मगौरव और आधुनिकता से जोड़ने वाला था।

दिनकर की विरासत

आज जब भारत 21वीं सदी में वैश्विक मंच पर खड़ा है, दिनकर की कविता और भी प्रासंगिक हो उठती है। उनकी आवाज़ हमें याद दिलाती है कि राष्ट्र केवल भूगोल का नाम नहीं, बल्कि जनता की आत्मा है।
उनकी पंक्तियां—
“सूरज का रथ चल रहा, आंधियों के बीच,
पथरीली राहों पर भी रुकना नहीं है।”
आज भी युवाओं को संघर्ष और साहस का संदेश देती हैं।

यहां तक कि उन्होंने अपनी जन्मभूमि पर भी लिखा है। बता दें कि उनके गांव से होकर गंगा नदी बहती है। उनके गांव में गंगा धाट भी है, जिसे लोग सिमरिया घाट के नाम से जानते हैं। यह गांव बिहार में एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल भी है। इस पर उन्होंने लिखा है—
“हे जन्मभूमि सतबार धन्य
तुमसा न सिमरिया घाट अन्य,
उनकी ये लाइनें उनके पैतृक गांव और सिमरिया घाट की गरिमा का बखान करती हैं।

रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी साहित्य की उस परंपरा के कवि हैं, जिनकी कविता किताबों से निकलकर जन-जन की ज़ुबान पर आ गई। वे केवल साहित्यकार नहीं, बल्कि एक आंदोलन थे। उनकी कविताओं में विद्रोह है, प्रेम है, करुणा है और सबसे बढ़कर राष्ट्र के लिए धड़कता हुआ दिल है। भारत के सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास में दिनकर का स्थान वैसा ही है, जैसा आकाश में सूर्य का-ऊर्जा देने वाला, राह दिखाने वाला और हमेशा प्रेरणा जगाने वाला।

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