UN में फेल हुई पाकिस्तान-चीन की साजिश, बलूच मुद्दे पर अमेरिका ने लगाया वीटो, जानें भारत के लिए इसके मायने?

भारत के लिए यह घटनाक्रम केवल पाकिस्तान और चीन की हार नहीं है, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से एक अहम संकेत भी है।

UN में फेल हुई पाकिस्तान-चीन की साजिश, बलूच मुद्दे पर अमेरिका ने लगाया वीटो, जानें भारत के लिए इसके मायने?

संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान-चीन की राजनीति फेल हो गई।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में पाकिस्तान और चीन की संयुक्त कोशिश नाकाम हो गई। दोनों ने बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (BLA) और उसकी आत्मघाती इकाई मजीद ब्रिगेड को अल-कायदा/आईएसआईएल से जुड़ा “वैश्विक आतंकी संगठन” घोषित करने का प्रस्ताव रखा था। लेकिन अमेरिका ने तकनीकी आधार पर इस प्रस्ताव को रोक दिया। ब्रिटेन और फ्रांस ने भी अमेरिकी रुख का समर्थन किया।

भारत के लिए यह घटनाक्रम केवल पाकिस्तान और चीन की हार नहीं है, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से एक अहम संकेत भी है। यह दिखाता है कि दक्षिण एशिया में आतंकवाद और अलगाववाद की परिभाषा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अब केवल पाकिस्तान या चीन की इच्छानुसार तय नहीं होगी।

बलूच आंदोलन की ऐतिहासिक जड़ें

बलूचिस्तान का विद्रोह कोई नया नहीं है। 1947 में पाकिस्तान के गठन के तुरंत बाद से ही बलूचों ने अपने क्षेत्र की स्वायत्तता की मांग उठाई। खनिज संपदा से भरपूर और भूगोल के लिहाज़ से रणनीतिक रूप से अहम इस क्षेत्र में केंद्र सरकार का दमन लगातार बढ़ता गया।

1958, 1973 और 2000 के दशक में बलूचिस्तान में विद्रोह की बड़ी लहरें उठीं। हर बार पाकिस्तान ने सैन्य बल का इस्तेमाल कर विद्रोह दबाने की कोशिश की। लेकिन परिणाम उल्टा हुआ— असंतोष और गहरा हो गया। बलूच नेताओं के गायब होने, जबरन हत्याओं और मानवाधिकार उल्लंघनों के किस्से लगातार सामने आते रहे।

यही असंतोष बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी जैसे समूहों को जन्म देता है। BLA खुद को पाकिस्तान के कब्ज़े के खिलाफ लड़ने वाला स्वतंत्रता आंदोलन बताता है। पाकिस्तान और चीन इसे आतंकवादी संगठन मानते हैं। भारत के लिए यह स्थिति एक दोधारी तलवार है—बलूचों की आवाज़ का समर्थन नैतिक रूप से सही दिख सकता है, लेकिन खुलकर समर्थन करने पर पाकिस्तान भारत पर “विद्रोह भड़काने” का आरोप लगाता है।

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा और बलूच असुरक्षा

बलूचिस्तान का महत्व 2015 के बाद और बढ़ गया जब चीन और पाकिस्तान ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) की शुरुआत की। यह बहु-अरब डॉलर की परियोजना बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से होकर गुजरती है और चीन को सीधे अरब सागर तक पहुंचाने का रास्ता देती है। बलूच विद्रोही CPEC को अपनी ज़मीन और संसाधनों पर कब्ज़ा करने की साजिश मानते हैं। उनका कहना है कि ग्वादर जैसे प्रोजेक्ट से उन्हें कोई फायदा नहीं होता, बल्कि उनकी ज़मीन छिनी जाती है और बाहरी आबादी लाकर उनके जनसांख्यिकीय संतुलन को बदला जाता है।

यही वजह है कि BLA और मजीद ब्रिगेड ने बार-बार चीनी इंजीनियरों, ग्वादर पोर्ट और CPEC से जुड़े ठिकानों को निशाना बनाया है। पाकिस्तान के लिए यह सुरक्षा का बड़ा संकट है और चीन के लिए आर्थिक-रणनीतिक चुनौती। यही कारण है कि दोनों देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र में BLA पर प्रतिबंध की मुहिम छेड़ी।

भारत के दृष्टिकोण से CPEC पहले से ही अस्वीकार्य है क्योंकि इसका बड़ा हिस्सा पाकिस्तान-आधिकृत कश्मीर से होकर गुजरता है। भारत बार-बार यह कह चुका है कि यह परियोजना उसकी संप्रभुता का उल्लंघन है। ऐसे में बलूच विद्रोह CPEC के लिए जितना बड़ा खतरा है, उतना ही भारत के लिए यह एक रणनीतिक अवसर भी बन सकता है।

अमेरिका ने क्यों रोका प्रस्ताव?

अमेरिका ने खुद BLA को “विदेशी आतंकी संगठन” घोषित कर रखा है। इसके बावजूद उसने संयुक्त राष्ट्र में इस प्रस्ताव को रोक दिया। कारण यह है कि UNSC की 1267 अल-कायदा/आईएसआईएल प्रतिबंध समिति केवल उन संगठनों को सूचीबद्ध करती है जिनका सीधा संबंध अलकायदा या आईएसआईएल से हो। पाकिस्तान और चीन के प्रस्ताव में यह लिंक पर्याप्त रूप से साबित नहीं किया गया था।

अमेरिका का कदम केवल कानूनी या तकनीकी नहीं था। यह एक राजनीतिक संकेत भी है। पाकिस्तान और चीन ने मिलकर जिस तरह बलूच आंदोलन को वैश्विक आतंकवाद से जोड़ने की कोशिश की, अमेरिका ने उसे मान्यता देने से इनकार किया। भारत के लिए यह महत्वपूर्ण है क्योंकि वही तर्क पाकिस्तान बार-बार कश्मीर पर इस्तेमाल करता है-अलगाववादी आंदोलनों को आतंकवाद की श्रेणी में डालने का।

भारत के लिए रणनीतिक मायने

भारत इस घटनाक्रम को कई स्तरों पर देख सकता है। पहला, पाकिस्तान का नैरेटिव कमजोर हुआ है। अगर BLA को संयुक्त राष्ट्र में प्रतिबंधित घोषित कर दिया जाता, तो पाकिस्तान बलूचिस्तान में अपने दमनकारी कदमों को और तेज़ी से आगे बढ़ाता और दुनिया के सामने इसे “आतंकवाद विरोधी अभियान” बताता। भारत के लिए यह चिंता का विषय होता क्योंकि कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान उसी तर्क को उलटकर भारत पर इस्तेमाल करता।

दूसरा, चीन की बेचैनी साफ़ झलक रही है। CPEC को लेकर चीन अब खुलकर पाकिस्तान के साथ खड़ा है। इस प्रस्ताव को लाकर चीन ने दिखा दिया कि वह बलूच आंदोलन को केवल पाकिस्तान का मुद्दा नहीं, बल्कि अपनी सुरक्षा और आर्थिक हितों से जुड़ा मामला मानता है। भारत को इससे यह समझना होगा कि भविष्य में CPEC और ग्वादर के बहाने चीन-पाकिस्तान की सैन्य और खुफिया साझेदारी और गहरी होगी।

तीसरा, अमेरिका का रुख भारत के लिए अवसर है। अमेरिका ने BLA को आतंकवादी संगठन तो घोषित किया, लेकिन पाकिस्तान-चीन की राजनीतिक चाल को संयुक्त राष्ट्र स्तर पर रोक दिया। इसका मतलब है कि अमेरिका इस मुद्दे पर पाकिस्तान के नैरेटिव को बिना जांचे परखे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। भारत अगर अपनी कूटनीति चतुराई से खेले, तो वह अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ मिलकर दक्षिण एशिया में “आतंकवाद बनाम मानवाधिकार” की बहस को अपनी शर्तों पर मोड़ सकता है।

भारत को आगे क्या करना चाहिए?

बलूचिस्तान भारत की विदेश नीति का आधिकारिक एजेंडा नहीं है, लेकिन यह उसकी रणनीतिक सोच का हिस्सा ज़रूर है। पाकिस्तान जब-जब कश्मीर मुद्दा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता है, भारत के विश्लेषक बलूचिस्तान को एक “मिरर नैरेटिव” के रूप में देखते हैं। भारत के लिए चुनौती यह है कि वह खुलकर बलूचिस्तान के विद्रोहियों का समर्थन नहीं कर सकता, क्योंकि इससे पाकिस्तान को कश्मीर में “विदेशी दखल” का तर्क मिल जाएगा। लेकिन भारत नैतिक समर्थन और कूटनीतिक विमर्श के जरिए यह मुद्दा उठाता रहा है कि बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन गंभीर है।

UNSC में पाकिस्तान-चीन की हार भारत के लिए यह अवसर देती है कि वह बलूच आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर “मानवाधिकार” के सवाल से जोड़े, न कि “आतंकवाद” से। अगर भारत यह विमर्श सफलतापूर्वक स्थापित कर पाता है, तो पाकिस्तान का कश्मीर नैरेटिव और कमजोर होगा।

संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान और चीन की कोशिश का असफल होना सिर्फ एक प्रस्ताव का गिरना नहीं है। यह दक्षिण एशिया की राजनीति में गहरे संकेत छोड़ता है। बलूच आंदोलन पाकिस्तान के लिए आंतरिक सिरदर्द और चीन के लिए आर्थिक चुनौती है। लेकिन भारत के लिए यह एक ऐसा कार्ड है, जिसे वह सीधे न खेलकर भी रणनीतिक बढ़त हासिल कर सकता है। अमेरिका का वीटो इस बात का सबूत है कि दुनिया हर बार पाकिस्तान की भाषा नहीं बोलेगी।

भारत को अब यह समझना होगा कि बलूचिस्तान का मुद्दा उसके लिए केवल पाकिस्तान के खिलाफ दबाव बनाने का औजार नहीं, बल्कि वैश्विक विमर्श में अपनी नैतिक स्थिति मज़बूत करने का मौका है। जब पाकिस्तान कश्मीर की बात करे, तो भारत बलूचिस्तान की चर्चा कर यह दिखा सकता है कि आतंकवाद और स्वतंत्रता आंदोलनों के बीच फर्क करना ज़रूरी है। संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान-चीन की राजनीति फेल हो गई। लेकिन इस असफलता में भारत के लिए एक जीत छिपी है— एक ऐसी जीत जो उसके रणनीतिक और कूटनीतिक दोनों हितों को मज़बूत करती है।

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