पंजाब फिर डूबा हुआ है। खेतों में धान की लहराती फसलें अब पानी की सतह पर तैर रही हैं, गांवों की गलियां गाद से भर गई हैं और किसान अपने घरों से ऊंचे स्थानों पर शरण ले रहे हैं। यह दृश्य किसी प्राकृतिक आपदा का नतीजा हो सकता था, लेकिन इस बार कहानी केवल बारिश की नहीं है। इस बार जिम्मेदारी इंसानों पर भी है—उन पर, जिन्होंने पानी का प्रबंधन राजनीति के तराजू पर तौल दिया।
राज्य सरकार ने रोक रखा था पानी
भाखड़ा-नंगल बांध, जिसे कभी आधुनिक भारत का मंदिर कहा गया था, आज इस आपदा के केंद्र में खड़ा है। यह बांध पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की जीवनरेखा है। इसका उद्देश्य था सिंचाई, बिजली और बाढ़ से सुरक्षा। लेकिन जब 2025 की मानसून बारिश आई, तो यही बांध पंजाब की तबाही का कारण बन गया।
दरअसल, बारिश का पानी रोकने का फैसला लिया गया। तर्क दिया गया कि हरियाणा को पहले से ही अपेक्षित मात्रा से कम पानी मिल रहा है, इसलिए जलस्तर को रोके रखना जरूरी है। लेकिन यह फैसला आगे चलकर मौत का सौदा साबित हुआ। जब आसमान ने बरसात तेज कर दी और जलस्तर क्षमता से ऊपर जाने लगा, तो अचानक पानी छोड़ना पड़ा। और यही छोड़ा गया पानी पंजाब के गांवों में बाढ़ बनकर उतर आया।
आज हालात यह हैं कि पंजाब के सभी 23 जिले बाढ़ की चपेट में हैं। करीब दो हजार गांव पानी से घिरे हैं। खेतों में एक लाख नब्बे हजार हेक्टेयर से ज्यादा जमीन डूबी पड़ी है। सबसे ज्यादा नुकसान गुरदासपुर, अमृतसर और फिरोज़पुर जैसे जिलों में हुआ है, जहां हजारों एकड़ धान और मक्का की फसलें तबाह हो गईं। अब तक पचास से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं और हजारों को राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी है। सीमावर्ती इलाकों में तो हालात और भी भयावह हैं—बीएसएफ की चौकियां तक जलमग्न हो गई हैं और सीमा पर लगी फेंसिंग तक बह गई है।
किसानों का दर्द साफ झलकता है। वे कहते हैं, अगर पानी धीरे-धीरे और समय रहते छोड़ा जाता तो नुकसान इतना बड़ा न होता। लेकिन जब एक साथ लाखों क्यूसेक पानी छोड़ा गया, तो गांवों में मौत का सैलाब उतर आया। यह केवल प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानवजनित संकट है।
इतिहास भी यही बताता है। 1988 की बाढ़ ने पंजाब को झकझोर दिया था। उस वक्त सतलुज और घग्गर नदियों का पानी गांव-गांव में घुस गया था, 1700 से अधिक लोग मारे गए थे। 2008 और 2019 में भी अचानक छोड़े गए पानी ने पंजाब को डुबोया। हर बार वही कहानी—हर बार वही गलती।
लेकिन इस बार का संकट सिर्फ अतीत को नहीं दोहरा रहा, बल्कि सवाल भी खड़ा कर रहा है—आखिर जल प्रबंधन में इतनी बड़ी चूक क्यों हुई? मौसम विभाग पहले ही भारी बारिश की चेतावनी दे चुका था। फिर भी पानी को बांध में रोके रखने का फैसला क्यों लिया गया? क्या यह महज तकनीकी भूल थी या राजनीतिक दबाव का नतीजा?
अब राहत और मुआवजे की घोषणाएं हो रही हैं। प्रधानमंत्री ने पंजाब के लिए 1600 करोड़ रुपये की सहायता घोषित की है। मृतकों के परिजनों को दो-दो लाख रुपये और घायलों को पचास हजार रुपये का मुआवजा मिलेगा। लेकिन मुख्यमंत्री की मांग कहीं बड़ी है—वे 60,000 करोड़ रुपये की लंबित निधि और किसानों को प्रति एकड़ पचास हजार रुपये मुआवजा चाहते हैं। उनके मुताबिक छह हजार आठ सौ रुपये प्रति एकड़ का मुआवजा किसानों की बरबादी का मजाक है।
सवाल यह भी है कि कब तक पंजाब हर बरसात के मौसम में इसी तरह तबाही झेलता रहेगा। कब तक किसान अपनी मेहनत की कमाई को बहते पानी में डूबते देखेंगे? और कब तक बांधों का प्रबंधन राजनीतिक सौदेबाज़ी की तरह किया जाएगा?
भाखड़ा-नंगल बांध के निर्माण के वक्त सोचा गया था कि यह पंजाब और हरियाणा की किस्मत बदल देगा। लेकिन अब वही बांध बर्बादी का प्रतीक बन रहा है। बारिश पर किसी का वश नहीं है, लेकिन इंसानी लापरवाही और राजनीतिक खींचतान से पैदा हुई बाढ़ को रोका जा सकता था। यह त्रासदी हमें यही सबक देती है कि जल प्रबंधन को राजनीति से अलग कर वैज्ञानिक और पारदर्शी व्यवस्था पर चलाना होगा।
पंजाब की बाढ़ केवल पानी का संकट नहीं है, यह शासन की नाकामी का आईना है। और जब तक इस आईने में देखने की हिम्मत सरकारें नहीं जुटाएंगी, तब तक हर मानसून पंजाब के लिए नई बर्बादी लेकर आएगा।