वॉशिंगटन में इस हफ़्ते जो कूटनीतिक हलचल दिख रही है, उसने दक्षिण एशिया की राजनीति को नई दिशा दे दी है। एक तरफ़ अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारी खुलकर कह रहे हैं कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात तय है। अमेरिका की ओर से क्वाड शिखर सम्मेलन की तैयारियां चल रही हैं। वहीं दूसरी तरफ़ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ़ और उनके सेना प्रमुख फ़ील्ड मार्शल असीम मुनीर ट्रंप के साथ बैठक के लिए पहुंच चुके हैं। अब सवाल यह है कि अमेरिका आखिर किसे गले लगाएगा-लोकतांत्रिक भारत को, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था और तकनीक की ताक़त है या फिर पाकिस्तान को, जो दशकों से आतंकवाद का अड्डा बनकर बैठा है?
अमेरिका ने हाल ही में साफ़ कर दिया है कि कश्मीर पर उसकी कोई मध्यस्थता नहीं होगी। यह भारत के पक्ष में बड़ा कूटनीतिक संदेश तो है ही, भारत की कूटनीतिक जीत भी है। ट्रंप प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि यह मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच का है और वॉशिंगटन इसमें दख़ल नहीं देगा। याद रहे यह वही अमेरिका है, जिसने कुछ महीने पहले तक ‘मध्यस्थता’ की बात छेड़कर पाकिस्तान को ऑक्सीजन देने की कोशिश की थी। भारत की सख़्त प्रतिक्रिया और मोदी सरकार की कूटनीति ने उसकी वह हवा वहीं निकाल दी है। यह संकेत है कि भारत की बात को अब अमेरिका नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता।
लेकिन, तस्वीर का दूसरा पहलू उतना ही चिंताजनक है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख दोनों ट्रंप के साथ मेज़ पर बैठने जा रहे हैं। यह कोई साधारण घटना नहीं है। किसी लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री अकेले अपने राष्ट्रपति या विदेश नेताओं से मिलता है, लेकिन पाकिस्तान की हक़ीक़त सबको पता है—असल सत्ता रावलपिंडी की बैरकों में बैठी होती है। असीम मुनीर की मौजूदगी यह दिखाती है कि पाकिस्तान ट्रंप को साफ़ संदेश देना चाहता है—“डील हमारे साथ होती है, चुनी हुई सरकार तो बस दिखावा है।”
इस मुलाक़ात की जड़ें क़तर और सऊदी अरब की लॉबिंग से भी जुड़ी बताई जा रही हैं। खाड़ी देशों के समर्थन से पाकिस्तान यह दिखाना चाहता है कि वह मुस्लिम जगत की सामूहिक ताक़त का चेहरा बन सकता है। मुनीर तो इस्लामिक नाटो जैसे गठबंधन के सपने तक दिखा रहे हैं। यह वही पाकिस्तान है जो हर आर्थिक संकट में सऊदी और क़तर की ओर हाथ फैलाता है और हर सामरिक मसले में चीन की छाया में जाकर खड़ा हो जाता है। अब वह अमेरिका को भी भरोसे में लेने की जुगत में है।
भारत के लिए दोहरी चुनौती
भारत के लिए यह स्थिति दोहरी चुनौती है। एक तरफ़ नई दिल्ली ने अमेरिका के साथ रक्षा, तकनीक और इन्फ्रास्ट्रक्चर में गहरी साझेदारी बनाई है। क्वाड जैसे मंचों ने इंडो-पैसिफ़िक में भारत की भूमिका मज़बूत की है। दूसरी तरफ़ अगर अमेरिका पाकिस्तान की सेना को गले लगाता है, तो वह भारत की रणनीतिक गणना को मुश्किल बना देगा। अब अमेरिका को तय करना होगा कि वह आतंकवाद के जनरलों को वैधता देता है या फिर लोकतांत्रिक साझेदारियों को आगे बढ़ाता है।
पाकिस्तान की चालबाज़ी यहीं ख़त्म नहीं होती। वॉशिंगटन में वह खुद को ग़ाज़ा और अफ़ग़ानिस्तान जैसे मसलों पर ‘मध्यस्थ’ के तौर पर पेश कर रहा है। वह यह जताना चाहता है कि अगर उसे साथ लिया जाए तो वह मुस्लिम जगत को प्रभावित कर सकता है और अमेरिका की मुश्किलें आसान कर सकता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी अमेरिका ने पाकिस्तान पर दांव खेला है, नतीजा उल्टा ही निकला है। अफ़ग़ानिस्तान से लेकर अल-क़ायदा तक, हर बार पाकिस्तान ने दोहरा खेल खेला और अंत में अमेरिकी सैनिकों की जान गई।
ट्रंप के सामने यह अग्निपरीक्षा है। अगर वे पाकिस्तान को रणनीतिक ‘राहत’ देते हैं, तो न सिर्फ़ भारत बल्कि चीन भी इस पर कड़ी प्रतिक्रिया देगा। बीजिंग के लिए यह इशारा होगा कि इस्लामाबाद उसकी छाया से बाहर निकलकर फिर अमेरिका की गोद में बैठने की कोशिश कर रहा है। यानी पाकिस्तान की यह कूटनीतिक बाज़ी उसके लिए कहीं अधिक ख़तरनाक साबित हो सकती है।
भारत के लिए सुकून की बात यही है कि अमेरिका ने खुले तौर पर कश्मीर को भारत-पाक का द्विपक्षीय मसला मान लिया है। यह उस नैरेटिव की जीत है, जिसे मोदी सरकार वर्षों से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दोहराती रही है। यह भी साफ़ है कि ट्रंप प्रशासन भारत को इंडो-पैसिफ़िक में चीन के प्रतिरोधक के रूप में देखता है। आने वाले समय में जब मोदी और ट्रंप की मुलाक़ात होगी, तो संदेश यही जाएगा कि अमेरिका की प्राथमिकता लोकतंत्र और साझेदारी है, न कि पाकिस्तान जैसे विफल और आतंक पोषित मुल्क।
हालांकि, इन सबके बाद भी भारत को सतर्क रहना होगा। क्योंकि, पाकिस्तान अपनी आदत से मजबूर है। वह अमेरिका के सामने खुद को ऐसा देश दिखाने की कोशिश करेगा, जो इस्लामी दुनिया की चाबी है और आतंकवाद पर नियंत्रण का ‘गारंटर’ भी। लेकिन सच्चाई यह है कि उसी की गोद से आतंकियों का जन्म होता है। अगर अमेरिका इस सच को भूलता है, तो वह न सिर्फ़ भारत बल्कि खुद अपनी सुरक्षा को भी दांव पर लगाएगा।
आज दक्षिण एशिया की भू-राजनीति के दो दृश्य हैं। एक तरफ़ मोदी और ट्रंप का संभावित हाथ मिलाना, जो लोकतंत्र, तकनीक और सुरक्षा सहयोग का प्रतीक है। दूसरी तरफ़ शहबाज और मुनीर का अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलना, जो आतंकवाद और अस्थिरता की छाया लिए हुए है। यही फर्क भारत और पाकिस्तान के बीच का असली नैरेटिव है। यही नैरेटिव भारत को दुनिया के सामने और बुलंद करना है।