9 सितंबर यानी कल, उपराष्ट्रपति का चुनाव है और आंकड़ों के लिहाज़ से देखें तो देश के दूसरे सबसे बड़े पद के लिए होने जा रहे इस चुनाव में NDA का ही
कैंडिडेट जीतता दिख रहा है।यानी सब कुछ ऐसा ही रहा तो सीपी राधाकृष्णन भारत के अगले वाइस प्रेसिडेंट बन जाएंगे।उन्हें जीत के लिए कुल 391 वोट चाहिए, जबकि लोक सभा और राज्य सभा को मिलाकर एनडीए के पास कुल 422 वोट हैं, ये आंकड़ा बहुमत से 31 ज्यादा है। यानी वैसे तो एनडीए उम्मीदवार के सामने जीत का कोई संकट नहीं है, फिर भी भाजपा इस चुनाव को लेकर कोई कमीं, कोई कसर नहीं छोड़ रही है।
भाजपा ने अपने सांसदों की बकायदा वर्कशॉप ली है, जहां अन्य मुद्दों के साथ उन्हें ये भी सिखाया गया कि उन्हें मतदान कैसे करना है, ताकि कोई भी वोट ख़राब न हो। दिलचस्प बात ये है कि इस वर्कशॉप में ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी किसी अन्य सांसद की तरह सबसे आखिरी की लाइन में बैठे नज़र आए थे।
ये है बीजेपी की तैयारी है– ‘जहां वो चाहती है कि जीत पक्की होने के बावजूद कोई चूक न हो जाए’। सिर्फ यही नहीं एनडीए की तरफ़ से राजनाथ सिंह भी लगातार दूसरी पार्टियों से भी बातचीत कर रहे हैं, ताकि डीएमके और शिवसेना उद्धव ठाकरे, शरद पवार की एनसीपी भी उन्हें समर्थन दे दें।
लेकिन बिहार में वोट अधिकार यात्रा निकाल कर सोशल मीडिया में भरपूर माहौल बनाने वाले राहुल गांधी सीन से ग़ायब हैं। जानकारी के मुताबिक़ वो बिहार की थकान उतारने मलेशिया पहुँच चुके हैं और रिलैक्स कर रहे हैं। हो सकता है उनके मलेशिया जाने के पीछे कोई और भी महत्वपूर्ण कारण हो, जिसे टाला न जा सकता हो (भले ही देश में उपराष्ट्रपति का चुनाव हो और वो नेता विपक्ष हों)
लेकिन इस वक्त बात ये है कि एक तरफ़ भाजपा और उसकी टॉप लीडरशिप अपनी जीत पक्की होने के बाद भी ‘रिलेक्स मोड’ में नहीं है, उसी वक्त राहुल गांधी मलेशिया में रिलैक्स क्यों कर रहे हैं।
क्या वो जानते हैं कि नतीजे क्या रहने वाले हैं और अपनी ऊर्जा एक हारे हुए चुनाव में लगाना नहीं चाहते, या ये उनका अपना स्टाइल है ?
ये प्रश्न इसलिए क्योंकि, इससे पहले भी कई बार वो ऐसे अवसरों पर थाईलैंड, लेकर इंग्लैंड तक छुट्टियां बिताते नजर आए हैं– जब देश में उनकी पार्टी को उनकी ज़रूरत थी।
दरअसल राहुल गांधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता ही नहीं है, लोकसभा में विपक्ष के नेता भी हैं, ऐसे में प्रश्न ये है कि क्या आख़िर उन्हें इस वक्त का इस्तेमाल विदेश जाने के लिए करना था या फिर दिल्ली में बैठकर विपक्ष को एकजुट करने और एनडीए के कैंप में सेंधमारी करने की रणनीति बनाने में लगाना था?
ये प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि भले ही उप राष्ट्रपति का चुनाव आम तौर पर उतना रोचक न होता हो, लेकिन फिर भी इस बार के घटनाक्रमों की वजह से ये चुनाव खासा दिलचस्प माना जा रहा है।
जानकारों का मानना है कि विपक्ष भले ही बहुमत से 79 वोट पीछे हो, लेकिन अगर वो इन आंकड़ों में थोड़ा बहुत भी फेरबदल करने में कामयाब होता है और एनडीए के खेमें के दो–चार सांसद भी चुरा सके, तो भी ये उसके लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं होगा।
वो भी तब, जबकि कांग्रेस एक बार फिर यूपी–बिहार में अपनी खोई हुई ज़मीन तलाश रही है।
लेकिन शायद ये सब राहुल गांधी की प्राथमिकता में ही नहीं है। उन्हें सोशल मीडिया वाला ‘एक्टिविज़्म’ पसंद है और ये काम वो बिहार में अपनी वोट अधिकार यात्रा के ज़रिए बखूबी कर के आ चुके हैं। अब बाकी दूसरे लोग देखें, आख़िर सारी जिम्मेदारी राहुल गांधी की ही थोड़ी है?
तो फिर राहुल गांधी की प्राथमिकता क्या है? क्योंकि वो अक्सर वहां से ग़ायब हो जाते हैं, जहां उन्हें मौजूद होना चाहिए।
राहुल भले ही भाजपा, ख़ासकर नरेंद्र मोदी के कितने ही बड़े विरोधी और आलोचक क्यों न हों, लेकिन वो मोदी, शाह और भाजपा से कम से कम इतना तो सीख ही सकते हैं कि राजनीति में कैसे ख़ुद को पूरी तरह झोंका जाना चाहिए?
भाजपा और उसके नेता राजनीति को पूरा समय देते हैं और इसीलिए वो हिमाचल से लेकर यूपी (राज्य सभा चुनाव– जहां भाजपा ने हारी हुई बाज़ी पलटी थी) और महाराष्ट्र से लेकर हरियाणा (जिसका रोना कांग्रेस आज भी रो रही है) तक में हारी हुई बाजी भी जीतने की क्षमता रखती है।
लेकिन बाज़ी भले ही कितनी भी हारी हुई क्यों न हो, जीतने की संभावना तभी बनेगी– जब उसे खेला जाए। यहां तो राहुल गांधी पहले ही मैदान छोड़कर मलेशिया पहुँच चुके हैं।
वैसे आंकड़ों की ही मानें तो दोनों सदनों में कुल मिलाकर 48 ऐसे सांसद हैं, जो न तो NDA का ही हिस्सा हैं और न ही INDI गठबंधन का। बीजेपी के सीनियर लीडर इनके साथ निरंतर संवाद कर रहे हैं। राहुल भी अगर मलेशिया जाने की जगह इन सांसदों से बात कर रहे होते या उन्हें साथ लाने की कोशिश कर रहे होते, तो चाहे नतीजे कुछ भी क्यों न आते– कम से कम उनके एफर्ट तो दिखाई देते, लड़ने का माद्दा तो नज़र आता।
अब इन चुनावों के नतीजे कुछ भी आएं, इतना तय है कि अगर राहुल गांधी चाहते हैं कि उन्हें पॉलिटिक्स में एक सीरियस प्लेयर की तरह लिया जाए तो उन्हें इसके लिए सिर्फ सोशल मीडिया रील्स और एक्टिविज़्म से काम नहीं चलेगा, ख़ुद को पूरी तरह झोंकना होगा भी होगा।
राहुल गांधी और पूरी कांग्रेस को ये समझना होगा कि केवल चुनाव आयोग और EVM पर निशाना साधने से कुछ नहीं होगा। EVM भी तभी साथ देगी, जब जनता उसमें आपके लिए बटन दबाएगी और बार बार दबाएगी।
लेकिन लगता नहीं है कि राहुल गांधी ये सबक समझेंगे। वैसे भी जब अपनी हार का ठीकरा घूम फिर कर ईवीएम और चुनाव आयोग पर फोड़ना ही है तो फिर टेंशन क्यों लेनी?
सोशल मीडिया से अलग उन्हें समझना होगा कि बीजेपी उनकी नाक के नीचे से जीत चुरा ज़रूर रही है– लेकिन उसकी वजह चुनाव आयोग या ईवीएम नहीं, वो ख़ुद हैं।