डूरंड लाइन पर संकट: पाकिस्तान अब कैसे कर रहा है तालिबान के दोहरे खतरे का सामना?

पाकिस्तान अब उस जाल में फंस चुका है, जिसे उसने खुद ही बुना था। अफगान तालिबान और टीटीपी के दबाव ने देश की सुरक्षा, उसकी विदेश नीति और रणनीतिक सोच को चुनौती दी है।

डूरंड लाइन पर संकट: पाकिस्तान अब कैसे कर रहा है तालिबान के दोहरे खतरे का सामना?

पाकिस्तान की ‘रणनीतिक गहराई’ की नीति अब विफल साबित हो रही है।

पाकिस्तान अब उस जाल में फंस चुका है, जिसे उसने खुद ही बुना था। अफगान तालिबान और टीटीपी के दबाव ने देश की सुरक्षा, उसकी विदेश नीति और रणनीतिक सोच को चुनौती दी है। चार साल पहले, काबुल पर तालिबान के कब्ज़े के बाद पाकिस्तान ने इस्लामाबाद के नियंत्रण को वैश्विक नजरों में एक शक्ति प्रदर्शन के रूप में प्रस्तुत किया था। उस समय DG ISI फैज़ हमीद का काबुल में मुस्कुराते हुए दिखाई देना प्रभाव का प्रतीक माना गया। लेकिन अब वही तालिबान पाकिस्तान की सीमाओं पर घातक दबाव डाल रहा है और पाकिस्तान अपनी ही बनाई रणनीति का शिकार बन चुका है।

खास बात यह है कि पाकिस्तान ने दशकों तक आतंकवादी समूहों को न केवल समर्थन दिया बल्कि उन्हें क्षेत्रीय रणनीति के उपकरण के रूप में विकसित भी किया। यही रणनीति अब उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है। जिस तालिबान को कभी भारत के खिलाफ ताकत माना गया, वही अब पाकिस्तान के ही खिलाफ खड़ा है। टीटीपी के हमलों और अफगान तालिबान की बढ़ती दखल ने पाकिस्तान को विवश कर दिया है कि वह अब उस तालिबान को अवैध घोषित करे, जिसे वह कभी अपना मित्र और रणनीतिक संपत्ति मानता था।

हक्कानी नेटवर्क पर भी नहीं रहा नियंत्रण

पाकिस्तान की ‘रणनीतिक गहराई’ की नीति अब विफल साबित हो रही है। अफगानिस्तान में उसका प्रभाव कम होता जा रहा है। पाकिस्तान का हक़्क़ानी नेटवर्क जैसी प्रॉक्सी समूहों पर नियंत्रण खो चुका है और आईएसआई की उस शक्ति का ऐतिहासिक प्रतीक जो काबुल में नजर आता था, अब केवल याद बनकर रह गया है। वही तालिबान जो कभी उसके लिए भारत और क्षेत्रीय प्रभाव के खिलाफ हथियार का काम करता था, आज उसकी सीमाओं पर खतरे के रूप में दिखाई दे रहा है।

गौर करने की बात यह है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच का यह बदलाव केवल सैन्य या रणनीतिक नहीं है, बल्कि राजनीतिक और नैतिक विफलता भी है। पाकिस्तान का अनुभव यह याद दिलाता है कि क्षेत्रीय राजनीति में आतंकवाद को साधन मानना किसी भी देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकता है। यह याद दिलाता है कि क्षेत्रीय राजनीति में आतंकवाद को साधन मानना किसी भी देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकता है। एक तरफ अफगान तालिबान, जो पाकिस्तान की नीतियों और उसकी रणनीति के खिलाफ प्रत्यक्ष धमकी बन चुके हैं और दूसरी तरफ टीटीपी, जो आंतरिक सुरक्षा और राजनैतिक स्थिरता को चुनौती दे रहा है। पाकिस्तान के लिए यह स्थिति न केवल आतंकवाद का परिणाम है, बल्कि दशकों पुरानी राजनीतिक और सैन्य नीतियों का प्रतिफल भी है। लेकिन, उसे कोई उपाय भी नहीं सूझ रहा।

अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान का प्रभाव भी कमजोर हुआ है। उसका कोई विश्वसनीय साझेदार अब उसे पूरी तरह समर्थन नहीं दे रहा और वित्तीय तथा राजनीतिक सहयोग सीमित होता जा रहा है। अफगानिस्तान में भारत की सॉफ्ट पावर, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश के साथ प्रभाव बढ़ा रही है, जबकि पाकिस्तान की पुरानी रणनीति ध्वस्त होती नजर आ रही है। पाकिस्तान की खोई हुई विश्वसनीयता और अस्थिरता इस क्षेत्र की जटिलता को और बढ़ा रही है।

इस परिस्थिति में सवाल यह नहीं है कि पाकिस्तान तालिबान को नियंत्रित कर पाएगा या नहीं, बल्कि यह है कि अब अपने ही बनाए आतंक और रणनीति के जाल में कितनी जल्दी और गहराई से फंसेगा। जो शक्ति कभी रणनीतिक संपत्ति के रूप में काम आई थी, वह अब उसके सामने सबसे बड़ा खतरा बन चुकी है। डूरंड लाइन पर उठती आग केवल सीमाओं की नहीं, बल्कि पाकिस्तान की नीतियों, उसकी सैन्य रणनीति और उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा की भी चेतावनी है।

पाकिस्तान का अनुभव यह याद दिलाता है कि क्षेत्रीय राजनीति में आतंकवाद को साधन मानना किसी भी देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकता है। जो सांप पीछे के बगीचे में पालते हैं, वही अंततः उन्हें काटता है। और अब उसी सचाई का सामना कर रहा है, जहां उसकी अपनी रणनीति ने उसे घेर लिया है और भविष्य के लिए विकल्प सीमित कर दिए हैं।

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