भारत के इतिहास में कई क्षण ऐसे आए जब हमारे राष्ट्र की आत्मा संकट में थी। 1947 का वह समय भी ऐसा ही था, जब देश स्वतंत्र हुआ, लेकिन विभाजन की आग और पाकिस्तान के आक्रमण ने हमारी मातृभूमि की सीमाओं को खतरे में डाल दिया था। उस कठिन समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने केवल विचारक के रूप में नहीं, बल्कि कर्मशील राष्ट्रभक्तों के रूप में अपनी भूमिका निभाई।
22 अक्टूबर 1947 को हजारों कबायली हमलावर कश्मीर में घुस आए। बारामूला में कत्लेआम हुआ, महिलाएं अपहृत हुईं, मंदिर और गुरुद्वारे लूटे गए। वे श्रीनगर से महज 35 किलोमीटर दूर पहुंच गए थे। इतिहासकारों के शब्दों में अगर भारतीय सेना 48 घंटे और देर कर देती, तो श्रीनगर पाकिस्तान के हाथ में चला गया होता।
कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने उस समय भारत सरकार को संदेश भेजा। अपनी व्यथा पत्र में उन्होंने लिखा कि मेरे राज्य पर पाकिस्तान समर्थित आक्रमणकारी हमला कर रहे हैं। मैं भारत सरकार से तत्काल सैन्य सहायता चाहता हूं। आपकी मदद के बिना मेरा राज्य हाथ से निकल जाएगा। यह संदेश निर्णायक था। इसके बाद भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी वीपी मेनन को तत्काल श्रीनगर भेजा गया। उन्होंने हालात का आकलन किया और दिल्ली लौटकर रिपोर्ट दी “अगर अभी कार्रवाई नहीं की गई, तो कश्मीर हमारे हाथ से चला जाएगा।”
सरदार पटेल का दृढ़ निश्चय
इसके बाद जब कैबिनेट की बैठक हुई तो कश्मीर को लेकर असमंजस था, तब सरदार पटेल ने स्पष्ट तौर पर कहा कि कश्मीर को हर हाल में बचाना ही होगा। अगर हमने आज कदम पीछे खींचे, तो यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के साथ विश्वासघात होगा। उनके दबाव और रणनीति से ही महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को Instrument of Accession पर हस्ताक्षर किए और जम्मू–कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बना।
इससे पहले संघ की स्थापना 1925 में हुई। उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि यह संगठन आने वाले वर्षों में भारत की सुरक्षा और समाज सुधार में निर्णायक भूमिका निभाएगा। 100 साल की यात्रा में संघ ने अनेक मोर्चों पर योगदान दिया, लेकिन कश्मीर युद्ध का वह अध्याय, जब पाकिस्तान ने 1947 में हमला किया और संघ के स्वयंसेवकों ने श्रीनगर हवाईपट्टी का निर्माण कर सेना की मदद की, यह प्रसंग आज भी प्रेरणा देता है।
पाकिस्तान का पहला आक्रमण और कश्मीर का संकट
पाकिस्तान ने जन्म के समय में ही भारत को चुनौती दे दी। विभाजन के तुरंत बाद, 22 अक्टूबर 1947 को कबायली आक्रमणकारियों को कश्मीर भेजा गया। उनका उद्देश्य सिर्फ कश्मीर पर कब्जा करना नहीं, बल्कि भारतीय संप्रभुता को चुनौती देना भी था। कश्मीर की राजधानी श्रीनगर संकट में थी। सड़क मार्ग असुरक्षित था। केवल हवाई मार्ग ही सेना के लिए बचा था। लेकिन एयरफील्ड छोटा और असुरक्षित था। यदि रनवे युद्धक विमानों के उतरने योग्य नहीं होता, तो सेना श्रीनगर नहीं पहुंच पाती।
27 अक्टूबर 1947 की सुबह, भारतीय वायुसेना ने इतिहास का सबसे निर्णायक एयरलिफ्ट ऑपरेशन किया। भारतीय वायुसेना के डकोटा विमानों से 1 सिख रेजिमेंट की पहली टुकड़ी दिल्ली से उड़ान भरकर सीधे श्रीनगर एयरपोर्ट उतरी। यही वह क्षण था जिसने कश्मीर को बचा लिया। लेकिन, महत्वपूर्ण प्रश्न यह कि ऐसा संभव कैसे हुआ?
संकट के समय खड़े हुए स्वयंसेवक
उस समय देश की मांग को देखते हुए संघ के स्वयंसेवक तत्काल सक्रिय हो गए। बलराज मधोक ने 200 स्वयंसेवकों को श्रीनगर एयरफील्ड की मरम्मत के लिए भेजा। स्वयंसेवकों ने केदारनाथ साहनी के नेतृत्व में मिट्टी और पत्थर ढोकर रातों-रात श्रीनगर एयरपोर्ट के रनवे को युद्धक विमानों के उतरने योग्य बना दिया। स्वयंसेवकों का यह कार्य केवल निर्माण नहीं था, बल्कि राष्ट्ररक्षा का पहला चरण था। उन्होंने इस कार्य को अपना दायित्व मानते हुए बिना रूके लगातार काम करके पूरा किया। उन्होंने रात-दिन मेहनत कर एयरपोर्ट को युद्ध-योग्य बनाया। मिट्टी और पत्थर ढोए, रनवे को समतल किया और देश की सुरक्षा में मदद की। सेना के एक अधिकारी ने बाद में कहा अगर रनवे इतनी तेजी से तैयार न होता, तो हमारे विमान नहीं उतर सकते थे और अगर हम नहीं उतरते, तो श्रीनगर आज भारत के नक्शे पर नहीं होता।
इस दौरान भारतीय सेना के अचानक और तेज़ हमलों ने पाकिस्तान के कबायली हमलावरों को चौंका दिया। उन्होंने सोचा था कि श्रीनगर खाली मिलेगा, लेकिन वहां पहले से ही सिख रेजिमेंट तैनात थी। पाकिस्तान के एक कबायली सरदार ने बाद में खुद ही स्वीकार किया कि हमें विश्वास नहीं हुआ कि भारतीय सेना इतनी जल्दी कैसे पहुंच गई। यही हमारी हार का कारण बना।
इतना ही नहीं, सैनिकों तक भोजन और पानी पहुंचाना भी संघ के स्वयंसेवकों ने अपने कंधों पर ले लिया। उन्होंने गांव-गांव जाकर अनाज, रोटियां और दूध जुटाया। उन्होंने युद्ध क्षेत्र में सैनिकों तक भोजन पहुंचाया। कभी-कभी गोलियों की बारिश में भी स्वयंसेवक यह कार्य करते रहे। इस दौरान संघ का नेटवर्क खुफ़िया जानकारी भी सेना और महाराजा हरि सिंह तक पहुंचाता रहा। इससे भारतीय सेना को रणनीतिक तैयारी का समय मिलता रहा। उस समय सेना के एक जवान की गवाही थी, हम तो गोलियों से लड़ रहे थे, लेकिन हमारा हौसला इन स्वयंसेवकों की रोटियों और सेवा से और मजबूत होता था। वे आते तो लगता जैसे हमारे घरवाले ही युद्धभूमि तक साथ हैं।
इस दौरान कितने ही स्वयंसेवकों ने अपना बलिदान भी दिया। आज इसका कोई लिखित विवरण स्पष्ट नहीं है, लेकिन, कर्म पथ पर वे डिगे नहीं। देश की सेवा में लगातार जुटे रहे। तन, मन और धन से।
संघ और स्थानीय सहयोग
संघ के स्वयंसेवक केवल सेना की मदद तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों की भी सेवा की, महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। उनके भोजन और आवास का प्रबंध किया। गांव-गांव में सुरक्षा और सहायता का यह कार्य यह दिखाता है कि संघ का राष्ट्रवाद कर्म और सेवा में प्रकट होता है।
संघ की शताब्दी और राष्ट्रीय गौरव
2025 में संघ अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर विशेष सिक्का और डाक टिकट भी जारी किया। यह केवल स्मृति का प्रतीक नहीं, बल्कि उस योगदान का सम्मान है, जिसे दशकों तक दबाया गया। संघ की शताब्दी यात्रा यह संदेश देती है कि राष्ट्रवाद केवल विचार नहीं, बल्कि सेवा, त्याग और साहस में प्रकट होता है। आज के युवा स्वयंसेवक उस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
1947 में श्रीनगर हवाईपट्टी का निर्माण, सेना तक भोजन-पानी पहुंचाना, खुफ़िया सूचनाएं देना और शरणार्थियों की सेवा—यह सब संघ की तपस्या और राष्ट्रभक्ति का अमूल्य उदाहरण है। संघ की शताब्दी हमें याद दिलाती है कि संकट के समय राष्ट्रभक्ति केवल हथियारों में नहीं, बल्कि समर्पण, साहस और अनुशासन में भी होती है।
आइए हम सभी यह संकल्प लें कि अगले सौ वर्षों में भी भारत के राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आदर्शों का पालन करते हुए, मातृभूमि की सेवा में तन-मन-धन से खड़े रहेंगे।