तालिबान पर प्रियंका का आक्रोश, लेकिन वायनाड और केरल की सच्चाई पर चुप्पी क्यों?

प्रियंका गांधी के लिए यह आत्ममंथन का समय है। वह यह तय करें कि वे किस तरह की नेता बनना चाहती हैं। एक ऐसी जो सिर्फ कैमरे के सामने महिला अधिकारों की बात करे, या एक ऐसी जो अपने ही घर में असमानता के खिलाफ खड़ी हो सके।

प्रियंका गांधी का चयनात्मक नारीवाद: काबुल पर बयान लेकिन केरल पर चुप्पी

चयनात्मक नारीवाद से आगे आना होगा प्रियंका गांधी को।

प्रियंका गांधी वाड्रा का हालिया बयान, जिसमें उन्होंने तालिबान के विदेश मंत्री की दिल्ली में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस से महिला पत्रकारों को बाहर रखने की निंदा की, एक बार फिर उनके ‘चयनात्मक नारीवाद’ पर बहस को जन्म देता है। उन्होंने इस घटना को भारत की कुछ सबसे सक्षम महिलाओं का अपमान बताया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस पर प्रतिक्रिया मांगी। यह आक्रोश सतही तौर पर बिल्कुल सही लगता है, क्योंकि किसी भी समाज में महिलाओं के साथ भेदभाव का विरोध आवश्यक है। लेकिन, जब यह विरोध केवल विदेशी घटनाओं तक सीमित हो और देश के भीतर व्याप्त उसी तरह के अन्याय पर खामोशी छाई रहे तो यह नैतिकता नहीं बल्कि राजनीति लगती है। यही वह विरोधाभास है, जिसने प्रियंका गांधी की इस टिप्पणी को गंभीर विमर्श से अधिक राजनीतिक वक्तव्य बना दिया है।

भारत की राजनीति में महिला सशक्तिकरण को लेकर जो विमर्श चलता है, उसमें प्रियंका गांधी अक्सर खुद को एक प्रगतिशील, उदारवादी और समानता की समर्थक नेता के रूप में प्रस्तुत करती हैं। लेकिन, उनके हालिया रुख से यह प्रश्न उठता है कि क्या यह समानता केवल मंचीय नारेबाज़ी और ट्वीट तक ही सीमित है या यह वास्तव में उनके वैचारिक आचरण का हिस्सा भी है? तालिबान का महिला पत्रकारों पर प्रतिबंध निश्चित रूप से निंदनीय है, लेकिन यह भी उतना ही निंदनीय है कि भारत में कई जगहों पर महिलाओं को आज भी धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से दूसरे दर्जे का नागरिक मानने की प्रवृत्ति जारी है और इन पर प्रियंका की चुप्पी बेहद असहज है।

मस्जिदों पर क्यों नहीं बोलतीं प्रियंका

यदि प्रियंका गांधी महिलाओं के अधिकारों की सच्ची पैरोकार हैं, तो क्या उन्होंने कभी उस व्यवस्था पर सवाल उठाया जहां भारत की कई मस्जिदों में महिलाओं को आज भी प्रवेश की अनुमति नहीं है? यह सिर्फ एक धार्मिक प्रथा नहीं बल्कि लैंगिक भेदभाव का जीवित उदाहरण है, जो किसी विदेशी तालिबान से कम नहीं। मुंबई की हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को लेकर वर्षों तक कानूनी लड़ाई चली, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व, विशेषकर कांग्रेस के शीर्ष चेहरे, इस पर मुखर नहीं हुए। यह वही पार्टी है जो खुद को धर्मनिरपेक्षता और समानता की प्रतीक मानती है, लेकिन जब महिलाओं के अधिकार धार्मिक संस्थानों से टकराते हैं, तो उसकी आवाज़ खामोश हो जाती है। प्रियंका गांधी, जो ऐसे हर मुद्दे पर वैश्विक संवेदनशीलता दिखाती हैं, इस पर चुप रहती हैं। यह चुप्पी केवल अवसरवाद नहीं, बल्कि उस गहरी राजनीतिक झिझक की निशानी है, जो कांग्रेस को लंबे समय से जकड़े हुए है। जहां धार्मिक तुष्टिकरण और सामाजिक सुधार एक साथ नहीं चल सकते।

वायनाड की मुस्लिम महिलाओं पर चुप्पी क्यों?

सबसे बड़ा उदाहरण उनके अपने घर से ही मिलता है, वायनाड से। राहुल गांधी का संसदीय क्षेत्र, जो कांग्रेस की विचारधारा का प्रतीक माना जाता है, वहां आज भी कुछ समुदायों की मुस्लिम महिला उम्मीदवारों को अपने चुनावी पोस्टर में चेहरा दिखाने तक की अनुमति नहीं है। इन महिलाओं को धार्मिक रूढ़िवाद के नाम पर प्रतीकों में बदल दिया जाता है, कहीं फूल, कहीं चांद और कहीं किताब के चित्र उनके चेहरे बन जाते हैं। यह एक तरह का राजनीतिक पर्दा है, जो महिलाओं की पहचान मिटा देता है। सवाल यह है कि प्रियंका गांधी, जो देशभर में महिला आरक्षण और नेतृत्व की बात करती हैं, उन्होंने इस अमानवीय प्रथा पर अब तक एक भी शब्द क्यों नहीं कहा? क्या यह इसलिए कि यह उनके परिवार के राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र से जुड़ा मामला है? या इसलिए कि इससे उनकी पार्टी के कुछ परंपरागत वोट बैंक असहज हो सकते हैं? खैर जो भी कारण हो, यह मौन उस नारीवाद को खोखला बना देता है जो केवल विदेशों में तालिबान की करतूतों पर आवाज़ उठाता है, लेकिन अपने घर की दीवारों में उभरती असमानता पर आंखें मूंद लेता है।

केरल के सीयूएसएटी मामले पर भी मौन

केरल के कोचीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (सीयूएसएटी) का मामला भी इसी दोहरेपन की पुष्टि करता है। हाल ही में इस विश्वविद्यालय में एक इस्लामिक संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में पुरुषों और महिलाओं के बीच पर्दा लगाकर तालिबान जैसी व्यवस्था लागू की गई। यह किसी धार्मिक स्थल की नहीं, बल्कि एक शैक्षणिक संस्था की घटना थी, जहां विचार, संवाद और समानता की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। इस घटना ने पूरे राज्य में बहस छेड़ दी, लेकिन प्रियंका गांधी की प्रतिक्रिया फिर भी गायब रही। यह वही राज्य है जहां कांग्रेस एक प्रमुख राजनीतिक ताकत है, और उनके एक बयान से भी एक बड़ा नैतिक संदेश जा सकता था। लेकिन शायद राजनीतिक समीकरणों और वोट बैंक की चिंताओं ने उस संदेश को दबा दिया।

दरअसल, प्रियंका गांधी की समस्या केवल यह नहीं है कि वह कुछ घटनाओं पर बोलती हैं और कुछ पर नहीं, बल्कि यह कि उनकी आवाज़ उस सुविधा के साथ चलती है जो राजनीति में नैतिकता को लचीला बना देती है। तालिबान पर हमला करना सुरक्षित है, क्योंकि वह विदेशी शासन है और भारत में किसी की धार्मिक भावना से टकराता नहीं। लेकिन जब वही तालिबानी सोच भारत के किसी कॉलेज, मस्जिद या समुदाय में दिखती है, तब उनका बोलना कठिन हो जाता है। बता दें कि यही वह सीमारेखा है, जहां सच्चा नारीवाद और दिखावटी नारीवाद दोनों अलग हो जाते हैं।

राजनीतिक चयनात्मकता का यह रोग केवल प्रियंका गांधी तक ही सीमित नहीं, लेकिन वह इसका एक अत्यंत मुखर उदाहरण हैं। जब एक नेता अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर तीखा बयान देता है लेकिन अपने प्रभाव क्षेत्र में व्याप्त अन्याय पर मौन रहता है, तो वह नैतिक अधिकार खो देता है। प्रियंका गांधी का यह रवैया यह संदेश देता है कि महिला अधिकारों का मुद्दा भी अब वोट बैंक की तरह इस्तेमाल हो रहा है, जहां आवाज़ केवल तब उठती है जब उसका राजनीतिक लाभ हो। यही कारण है कि कांग्रेस अपने महिला सशक्तिकरण के एजेंडे को जनता के बीच भरोसेमंद नहीं बना पा रहा है।

एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि तालिबान जैसी विचारधाराओं से निपटने के लिए सिर्फ निंदा या ट्वीट पर्याप्त नहीं हैं। उनके प्रभाव का मुकाबला समाज में समानता, शिक्षा और न्याय की संस्थागत संस्कृति से किया जा सकता है। लेकिन जब वही नेता इस संस्कृति के भीतर व्याप्त भेदभाव को नज़रअंदाज़ कर देते हैं, तो वे अनजाने में उसी मानसिकता को वैधता देते हैं जिसके खिलाफ वे बोलने का दावा करते हैं। यह मौन भारतीय लोकतंत्र के भीतर धार्मिक और सामाजिक चरमपंथ को और गहराई से जड़ें जमाने का मौका देता है।

महिलाओं के अधिकारों पर असली लड़ाई सत्ता के गलियारों में नहीं, बल्कि उन मानसिकताओं के खिलाफ है, जो उन्हें बराबरी का दर्जा देने से इंकार करती हैं। प्रियंका गांधी अगर वास्तव में इस लड़ाई की सच्ची सिपाही बनना चाहती हैं तो उन्हें तालिबान की प्रेस कॉन्फ्रेंस से आगे बढ़कर अपने समाज, अपने प्रदेश और अपनी पार्टी में झांकना होगा। उन्हें यह देखना होगा कि समानता की लड़ाई केवल दूसरों की गलतियों पर टिप्पणी करने से नहीं जीती जा सकती, बल्कि अपने घर के आईने में झांकने की हिम्मत से जीती जाती है।

दिल्ली में तालिबान की प्रेस कॉन्फ्रेंस से महिला पत्रकारों को निकालना निंदनीय था, लेकिन उससे भी ज्यादा निंदनीय यह है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में भी महिलाएं अब भी कई धार्मिक स्थलों, राजनीतिक मंचों और शैक्षणिक संस्थानों से बाहर रखी जा रही हैं। अफगानिस्तान में तालिबान का फरमान और भारत में किसी संस्था या समुदाय का लैंगिक प्रतिबंध, दोनों का उद्देश्य एक ही है: महिला को सीमित, नियंत्रित और मौन रखना।

आत्ममंथन करें प्रियंका गांधी

दरअसल, प्रियंका गांधी के लिए यह आत्ममंथन का समय है। वह यह तय करें कि वे किस तरह की नेता बनना चाहती हैं। एक ऐसी जो सिर्फ कैमरे के सामने महिला अधिकारों की बात करे, या एक ऐसी जो अपने ही घर में असमानता के खिलाफ खड़ी हो सके। सच्चा नेतृत्व वही है जो असहज सच्चाइयों का सामना करने का साहस रखता है, भले ही उससे राजनीतिक असुविधा क्यों न हो। महिलाओं की आज़ादी की लड़ाई को अब ‘सेलेक्टिव सॉलिडेरिटी’ की ज़रूरत नहीं, बल्कि उस ईमानदारी की है जो कह सके, अन्याय कहीं भी हो, गलत ही है, चाहे वह काबुल में हो या केरल में। यही वह कसौटी है जिस पर प्रियंका गांधी का नारीवाद अभी खरा नहीं उतरता।

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