पाकिस्तान के खिलाफ तालिबान की चाल, भारत बना नया साथी: बदल रहा है दक्षिण एशिया का समीकरण

अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी का छह दिवसीय भारत दौरा दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ की तरह दर्ज होगा।

पाकिस्तान के खिलाफ तालिबान की चाल, भारत बना नया साथी: बदल रहा है दक्षिण एशिया का समीकरण

तालिबान अब भारत से निवेश चाहता है, पाकिस्तान से सुरक्षा नहीं।

नई दिल्ली की हवा में बदलाव की हल्की सी सरसराहट है। कोई सोच भी नहीं सकता था कि जिस तालिबान के नाम से भारत ने दो दशक तक दूरी बनाई रखी, वही आज उसकी चौखट पर ससम्मान दस्तक देगा। अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी का छह दिवसीय भारत दौरा दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ की तरह दर्ज होगा। इस दौरे ने इस्लामाबाद की सत्ता गलियारों में ऐसा सन्नाटा ला दिया है, जैसा कभी करगिल युद्ध के बाद देखा गया था।

कभी पाकिस्तान के पाले-पोसे गए तालिबान अब उसी के खिलाफ खड़े हैं और भारत उनके साथ बातचीत की मेज पर बैठा है। यह वही भारत है जिसने 2021 में तालिबान के सत्ता में लौटने पर अपने दूतावास बंद कर दिये थे, लेकिन अब उसी काबुल में उसकी मानवीय और रणनीतिक उपस्थिति वापस लौट रही है।

2021 की अराजकता से नई कूटनीति तक

अगस्त 2021। अमेरिकी सेना के निकलते ही तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया। इससे पश्चिमी दुनिया में खलबली मच गई और भारत ने भी तत्काल अपने नागरिकों व राजनयिकों को वहां से बाहर निकाल लिया। लेकिन कुछ ही हफ्तों में नई दिल्ली ने चुपचाप रणनीतिक चाल चली, दोहा में तालिबान के राजनीतिक दफ्तर से संपर्क किया। यह संपर्क छोटा था, लेकिन संदेश बड़ा। भारत अफगानिस्तान से अपना रिश्ते खत्म नहीं करेगा।

भारत ने उस वक्त यह भी समझ लिया था कि तालिबान को पूरी तरह पाकिस्तान के हवाले छोड़ना उसकी रणनीतिक भूल होगी। 1990 के दशक की गलती दोहराई नहीं जा सकती थी, जब काबुल को पाकिस्तान की रणनीतिक गहराई के रूप में छोड़ देने का परिणाम कंधार अपहरण और सीमा पार आतंक के रूप में सामने आया था।

तालिबान का रूपांतरण और पाकिस्तान की बेचैनी

दरअसल, तालिबान की दूसरी पारी पाकिस्तान के इशारों पर शुरू हुई थी, यह किसी से छिपा नहीं है। आईएसआई ने ही उस संगठन को हथियार, शरण और प्रशिक्षण दिया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद तालिबान ने इस्लामाबाद की बात मानना बंद कर दिया। तालिबान के प्रवक्ता जब काबुल में अफगान राष्ट्रवाद की बात करने लगे, तो पाकिस्तान के नीति-निर्माताओं ने माथा पीट लिया। तालिबान ने डुरंड लाइन (Durand Line) पर पाकिस्तान द्वारा लगाए गए बाड़ों को तोड़ दिया, पाकिस्तानी चौकियों पर हमले किए और यह साफ कर दिया कि अफगानिस्तान की जमीन किसी के कहने पर नहीं चलेगी।

तालिबान के शासक अब खुलेआम पाकिस्तान को औपनिवेशिक शक्ति की तरह देखने लगे हैं और यही वह बिंदु है, जहां से भारत के लिए कूटनीतिक दरवाजा खुला।

टीटीपी: पाकिस्तान के घर में लगी आग

तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद पाकिस्तान को उम्मीद थी कि अफगानिस्तान में मौजूद तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) को नियंत्रण में लाया जाएगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। तालिबान ने टीटीपी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, बल्कि उसे शरण दी और उसका मनोबल बढ़ाया। इसका नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा पर युद्ध जैसी स्थिति बन गई। 7 अक्टूबर 2025 को हुए हमले में टीटीपी ने पाकिस्तान के 12 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। रिपोर्टों के मुताबिक, 2024 और 2025 में पाकिस्तान में हुए 300 से अधिक आतंकी हमलों में आधे से ज्यादा के तार अफगानिस्तान से जुड़े हैं।

पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ खुद मान चुके हैं कि अफगानिस्तान से उनके रिश्ते रसातल में पहुंच चुके हैं। दरअसल उनकी यह स्वीकारोक्ति पाकिस्तान की 40 साल पुरानी अफगान नीति की असफलता की घोषणा थी।

भारत की वापसी: चुपचाप, योजनाबद्ध और दीर्घकालिक

भारत ने अफगानिस्तान में वापसी की पटकथा बिना किसी शोरगुल के लिखी। जून 2022 में भारतीय विदेश मंत्रालय के अधिकारी काबुल पहुंचे। वहां एक तकनीकी मिशन स्थापित किया गया। इसका उद्देश्य था भारत की चल रही परियोजनाओं और मानवीय सहायता को बनाए रखना। भारत ने अपने उन विकास कार्यक्रमों को फिर से सक्रिय किया, जिन्होंने पिछले दो दशकों में अफगान जनता के दिलों में भारत के लिए जगह बनाई थी। संसद भवन से लेकर सलमा बांध, अस्पतालों से लेकर छात्रवृत्तियों तक हर क्षेत्र में भारत की उपस्थिति फिर से दिखने लगी।

तालिबान ने भी यह महसूस किया कि भारत के बिना अफगानिस्तान में वास्तविक पुनर्निर्माण संभव नहीं है। इसके बाद यहीं से शुरू हुई एक नई कहानी विकास के माध्यम से कूटनीतिक वैधता की तलाश।

दुबई वार्ता: दो दशकों की दूरी खत्म

2025 की शुरुआत में दुबई में हुई मुलाकात इस बदलाव की निर्णायक बिंदु थी। भारत के विदेश सचिव और अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी के बीच यह पहली उच्चस्तरीय बातचीत थी। इस मुलाकात में व्यापार, मानवीय सहायता, निवेश और चाबहार बंदरगाह के महत्व पर चर्चा हुई।

इसके बाद तालिबान की ओर से आए बयान में भारत को एक प्रमुख आर्थिक और क्षेत्रीय शक्ति कहा गया। ध्यान रहे कि यह वही तालिबान था जिसने 1990 के दशक में भारतीय राजनयिकों को कंधार में बंधक बना लिया था। अब इतिहास ने करवट ली और पाकिस्तान साइडलाइन पर खड़ा रह गया।

अमेरिका की वापसी की चाह और चीन की बेचैनी

तालिबान की सरकार से असहज अमेरिका भी अब अफगानिस्तान पर अपनी रणनीतिक पकड़ वापस पाना चाहता है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में बगराम एयरबेस को फिर से अपने नियंत्रण में लेने की बात कही थी। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर हमें वह बेस नहीं मिला, तो परिणाम बुरे होंगे। बगराम एयरबेस अफगानिस्तान का सबसे बड़ा सैन्य ठिकाना है, जो चीन की सीमा से केवल 800 किलोमीटर दूर है। ट्रंप ने कहा था कि यह वही जगह है, जहां से चीन अपने परमाणु हथियार बनाता है।

ट्रंप का यह बयान पाकिस्तान के लिए दोहरी मार था। एक ओर तालिबान उस पर भरोसा नहीं कर रहा, दूसरी ओर अमेरिका फिर से अफगान जमीन पर अपनी रुचि दिखा रहा है। पाकिस्तान की स्थिति अब उस मजबूर दलाल जैसी है, जो अपने ही बनाए खेल में किनारे कर दिया गया है।

तालिबान का नया नजरिया: आर्थिक और संतुलित विदेश नीति

अफगानिस्तान अब इस्लामिक प्रचार की जगह “आर्थिक राष्ट्रवाद” पर जोर दे रहा है। तालिबान के प्रवक्ताओं ने कई बार कहा है कि उनका लक्ष्य संतुलित विदेश नीति बनाना है। वे अब चाहते हैं कि भारत अपनी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को फिर से शुरू करे और निवेश को बढ़ावा दे। 31 अगस्त 2025 के भूकंप के बाद भारत उन पहले देशों में था जिसने मदद की पेशकश की। खाद्य सामग्री, वाटर प्यूरीफायर, टेंट और आवश्यक दवाइयां भारत ने चाबहार बंदरगाह के जरिए भेजीं। तालिबान के लिए यह मदद विश्वसनीय सहयोगी का प्रतीक बन गई।

नई दिल्ली में मुत्ताकी की मौजूदगी: संकेतों का समंदर

जब मुत्ताकी दिल्ली पहुंचे, तो पाकिस्तान के मीडिया में मानो बिजली सी गिर गई। तालिबान के मंत्री का भारत में ताजमहल देखना, देवबंद मदरसे का दौरा और जयशंकर से मुलाकात ये तीनों घटनाएं अपने-आप में गहरी प्रतीकात्मकता रखती हैं।

यहां बता दें कि देवबंद वही संस्था है, जिसने तालिबान की धार्मिक जड़ों को प्रभावित किया और ताजमहल भारत की सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक है। इन दोनों जगहों पर जाना तालिबान के सॉफ्ट रीब्रांडिंग का संकेत है। वे यह दिखाना चाहते हैं कि उनका नया चेहरा कट्टरपंथ से दूर, परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलित है। भारत के लिए यह अवसर है कि वह सुरक्षा गारंटी, निवेश सुरक्षा और राजनयिक मान्यता जैसे मुद्दों पर तालिबान से व्यावहारिक समझौते की दिशा में आगे बढ़े।

पाकिस्तान के लिए बुरा भू-राजनीतिक सपना

बता दें कि पाकिस्तान की पूरी विदेश नीति चार स्तंभों पर टिकी थी, अमेरिका, चीन, सऊदी अरब और अफगानिस्तान। अब अमेरिका उससे दूर जा चुका है, चीन उसका आर्थिक शोषण कर रहा है, सऊदी अरब भरोसे से बाहर है और अब अफगानिस्तान भी भारत के साथ खड़ा दिख रहा है। इसका मतलब है कि पाकिस्तान की रणनीतिक गहराई अब रणनीतिक कब्र में बदल चुकी है। उसकी सीमा पर मौजूद तालिबान उसे रोज याद दिला रहे हैं कि आतंकवाद से दोस्ती का कोई स्थायी लाभ नहीं होता।

पाकिस्तानी विश्लेषक मोइन यूसुफ तक यह स्वीकार कर चुके हैं कि हमने तालिबान पर जो दांव लगाया था, वह अब उलटा पड़ चुका है। आज पाकिस्तान उसी आग में झुलस रहा है जिसे उसने 1980 के दशक में जलाया था।

भारत का हथियार: विकास, विश्वास और विवेक

इन सबके उलट भारत ने अफगानिस्तान में कभी कोई हथियार नहीं उठाया, उसने विश्वास की भाषा बोली। भारत ने हमेशा यह कहा कि अफगानिस्तान को स्थिरता तभी मिलेगी, जब वहां की जनता को शिक्षा, रोज़गार और बुनियादी सुविधाएं मिलें। भारत की इस नीति का असर यह हुआ कि अफगान जनता आज भी भारत को एक मित्र देश के रूप में देखती है। तालिबान भी इसे समझता है, इसलिए वे भारत से दुश्मनी नहीं, विकास में सहयोग चाहते हैं।

भारत की यह सॉफ्ट पॉवर पाकिस्तान की हार्ड टेरर नीति पर भारी पड़ी है। जहां पाकिस्तान ने आतंकियों को भेजा, वहां भारत ने इंजीनियर और डॉक्टर भेजे। जहां पाकिस्तान ने बम दिए, वहां भारत ने किताबें दीं।

दक्षिण एशिया का नया समीकरण

आज दक्षिण एशिया का भूगोल बदल नहीं रहा, पर उसका संतुलन जरूर बदल चुका है। काबुल अब दिल्ली से बात करता है, इस्लामाबाद से नहीं। तालिबान अब भारत से निवेश चाहता है, पाकिस्तान से सुरक्षा नहीं। अमेरिका अब चीन को रोकने के लिए भारत पर भरोसा करता है, पाकिस्तान पर नहीं। यह नया समीकरण भारत के लिए अवसर है, पर जिम्मेदारी भी। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी अफगानिस्तान नीति विकास-केंद्रित रहे, न कि सत्ता-केंद्रित।

पाकिस्तान की हार, भारत की शांति की जीत

दरसअल पाकिस्तान ने सोचा था कि वह तालिबान के सहारे अफगानिस्तान को अपनी पिछली गली बना लेगा। लेकिन इतिहास ने करवट ली और वही तालिबान अब भारत के साथ बैठा है। यह कूटनीतिक परिवर्तन सिर्फ एक दौरे या बयान का परिणाम नहीं, बल्कि वर्षों की नीति, संयम और स्थायित्व की जीत है। भारत ने बिना एक गोली चलाए वह कर दिखाया, जो पाकिस्तान 40 साल में भी नहीं कर पाया, काबुल का भरोसा जीत लिया।

अब जब अमीर खान मुत्ताकी दिल्ली में बैठकर भारत से विकास की बात करते हैं, तो यह सिर्फ एक राजनयिक घटना नहीं, यह पाकिस्तान की नीति की पराजय का राजनीतिक मृत्युलेख है। काबुल अब किसी रणनीतिक गहराई का हिस्सा नहीं, बल्कि भारत की राजनयिक ऊंचाई का प्रतीक है। यह वही क्षण है जब भारत को आत्मविश्वास से कहना चाहिए, दक्षिण एशिया का केंद्र अब इस्लामाबाद नहीं, नई दिल्ली है।

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