तेजस्वी यादव का नौकरी का वादा: सपने की उड़ान या बिहार की आर्थिक हकीकत से टकराता भ्रम?

सच्चाई तो यही है कि बिहार में न तो इतनी वैकेंसी है और न ही उतना राजस्व, और न ही इतनी नौकरियां देने की कोई प्रशासनिक व्यवस्था मौजूद है।

तेजस्वी यादव का नौकरी वादा: सपने की उड़ान या बिहार की आर्थिक हकीकत से टकराता भ्रम?

बिहार के पास नौकरी सृजन का असली रास्ता उद्योग और निवेश है।

बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव का हर परिवार को सरकारी नौकरी देने वाला वादा पूरे चुनावी विमर्श के केंद्र में आ गया है। मंच से गूंजे उनके शब्द 20 दिन में कानून, 20 महीने में हर घर नौकरी। उनकी ये बातें सुनने में जितने आकर्षक हैं, आर्थिक दृष्टि से उतने ही विस्फोटक। सवाल अब यह नहीं कि तेजस्वी यादव ने जनता से क्या वादा किया है, बल्कि यह है कि वे इसे पूरा कैसे करेंगे?

क्योंकि सच्चाई तो यही है कि बिहार में न तो इतनी वैकेंसी है और न ही उतना राजस्व, और न ही इतनी नौकरियां देने की कोई प्रशासनिक व्यवस्था मौजूद है।

राजकोषीय ढांचा क्या झेल पाएगा इतनी नौकरियां?

बिहार का वार्षिक बजट लगभग 2.75 लाख करोड़ रुपये का है। इसमें से करीब 65 प्रतिशत रकम पहले से ही वेतन, पेंशन और प्रशासनिक खर्चों में चली जाती है। यानी सरकार के पास विकास कार्यों, योजनाओं और नई नियुक्तियों के लिए मात्र 35 प्रतिशत संसाधन बचते हैं।

अब तेजस्वी यादव का दावा है कि राज्य में हर उस परिवार से एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी दी जाएगी, जिसके घर में कोई सरकारी कर्मचारी नहीं है। अगर इसे औसतन माना जाए तो राज्य में लगभग 1.7 करोड़ परिवार हैं। इसका अर्थ हुआ कि करीब 1.5 करोड़ नई नौकरियां।

एक सरकारी कर्मचारी पर राज्य का सालाना औसत खर्च लगभग 5 लाख रुपये बैठता है, यानी इस योजना को लागू करने के लिए 7.5 लाख करोड़ रुपये सालाना चाहिए होंगे। अब आपको बता दें​ कि यह राशि बिहार के पूरे बजट से तीन गुना अधिक है।

ऐसे में यह प्रश्न स्वतः उठता है कि क्या बिहार की अर्थव्यवस्था इतने बड़े वेतन बिल का भार उठा सकती है? उत्तर स्पष्ट है नहीं।

राज्य में नौकरियां हैं ही कितनी?

बिहार में वर्तमान में करीब 5 लाख स्थायी सरकारी पद हैं, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस, सचिवालय और अन्य विभाग शामिल हैं। हर साल अधिकतम 20–25 हजार नई नियुक्तियां होती हैं।
अब सवाल है कि जब मौजूदा संरचना में इतनी ही सीमित भर्ती संभव है, तो 1.5 करोड़ नई भर्तियों की व्यवस्था कहां से होगी?

बिहार के पास न इतने नए विभाग हैं, न कोई औद्योगिक आधार, न ही सेवा क्षेत्र इतना विस्तृत कि राज्य नौकरियों का सृजन कर सके। सरकारी ढांचे का आकार बढ़ाने का मतलब होगा प्रशासनिक अक्षमता, वित्तीय संकट और अंततः वही स्थिति जो 1990 के दशक में राजकोषीय दिवालियापन के नाम से जानी गई थी।

नौकरियां दे भी दीं, तो वेतन कहां से देंगे?

तेजस्वी यादव का वादा केवल कानून बनाने तक सीमित नहीं है, वे कह रहे हैं कि 20 महीनों में हर घर को नौकरी दे दी जाएगी। लेकिन किसी भी नौकरी का अर्थ सिर्फ नियुक्ति नहीं, वेतन और पेंशन की स्थायी व्यवस्था भी है। बिहार की अर्थव्यवस्था का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा केंद्र से मिलने वाले अनुदानों और सहायता पर निर्भर है। राज्य का अपना टैक्स संग्रह बहुत सीमित है कुल बजट का करीब 20 प्रतिशत।

ऐसे में अगर लाखों नए कर्मचारी जोड़े जाएं, तो वेतन देने के लिए राज्य को या तो भारी कर्ज लेना होगा, या विकास योजनाओं में भारी कटौती करनी होगी, या फिर केंद्र सरकार से विशेष आर्थिक पैकेज मांगना पड़ेगा। तीनों ही स्थितियों में बिहार की वित्तीय स्थिरता खतरे में पड़ जाएगी।

वादा व्यवहारिक है या राजनीतिक जादूगरी?

तेजस्वी यादव ने चुनावी मंच से कहा कि 20 दिनों में नया कानून बनाया जाएगा। लेकिन, कानून बनने और उसके लागू होने के बीच की प्रक्रिया लंबी है। विधानसभा में प्रस्ताव, वित्तीय स्वीकृति, पदों का सृजन, भर्ती प्रक्रिया, प्रशिक्षण और फिर वेतन बजट का प्रावधान। यह पूरा चक्र दो साल में पूरा होना लगभग असंभव है।

यहां सवाल नीयत का नहीं, व्यवहारिकता का है। कानून बनाकर नौकरियां दी नहीं जातीं, नौकरियां संरचना और संसाधन से बनती हैं। बिहार के पास न उद्योग है, न निजी निवेश की पर्याप्त गति और न ही कर संग्रह बढ़ाने की क्षमता। ऐसे में इस वादे को पूरा करना एक लोकलुभावन जादूगरी से ज्यादा कुछ नहीं लगता।

तेजस्वी का राजनीतिक लक्ष्य: भावनाओं से जोश, आंकड़ों से नहीं

तेजस्वी यादव का यह वादा आर्थिक दृष्टि से चाहे अव्यावहारिक हो। लेकिन, राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत प्रभावशाली है। क्योंकि बिहार के 60 प्रतिशत से अधिक मतदाता 35 वर्ष से कम उम्र के हैं और बेरोजगारी दर देश में सबसे ज्यादा करीब 13 प्रतिशत।
इस वर्ग के लिए नौकरी का अर्थ सिर्फ रोजगार नहीं, सामाजिक सुरक्षा और सम्मान भी है। इसलिए जब तेजस्वी कहते हैं कि हर घर में एक सरकारी कर्मचारी होगा, तो यह संदेश एक सपने की तरह लगता है। राजकोषीय गणना जनता नहीं देखती, वह तो केवल ‘आशा’ देखती है।

तेजस्वी इस भावनात्मक पहलू को बखूबी समझते हैं। यही देखते हुए उन्होंने यह चाल चली है, जो कभी पूरी हो ही नहीं सकती है। लेकिन, राजनीति की भाषा में कहें तो वादे तो वादें हैं, पूरा हो या नहीं, इसे कौन देखता है। आखिर हैं तो लालू प्रसाद यादव के बेटे ही न, उन्होंने बिहार के साथ क्या किया, ये किसी को बताने की जरूरत नहीं। पूरी दुनिया इससे वाकिफ है।

क्या निजी क्षेत्र विकल्प नहीं हो सकता था?

बिहार के पास नौकरी सृजन का असली रास्ता उद्योग और निवेश है। लेकिन, राज्य में औद्योगिक माहौल कमजोर है। बिजली, भूमि, लॉजिस्टिक्स और कानून-व्यवस्था की बाधाएं अब भी मौजूद हैं। अगर तेजस्वी वास्तव में रोजगार का मॉडल लाना चाहते हैं, तो उन्हें सरकारी नौकरियों की जगह निजी निवेश आधारित रोजगार की दिशा में योजना बनानी चाहिए थी।

उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश ने MSME क्लस्टर बनाकर 25 लाख से ज्यादा लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार दिया गया। गुजरात में निवेशकों के लिए इंसेंटिव नीति ने लाखों नौकरियां सृजित कीं। ओडिशा ने खनन आधारित इंडस्ट्रीज में स्थानीय युवाओं को प्राथमिकता दी। बिहार भी यही कर सकता था, लेकिन यहां वादा सरकारी नौकरी का है, नौकरी सृजन का नहीं।

वादा बड़ा है, लेकिन जमीन कमज़ोर

तेजस्वी यादव का हर घर में सरकारी नौकरी वाला नारा बिहार की राजनीति में भावनाओं की नई लहर पैदा कर रहा है। लेकिन, यह लहर आंकड़ों की चट्टान से टकरा सकती है। राज्य की आर्थिक स्थिति, राजस्व की सीमाएं और प्रशासनिक क्षमता ये सब इस वादे की राह में अड़चन हैं।

सरकारी नौकरी का अर्थ केवल नियुक्ति नहीं, बल्कि राज्य के वित्तीय ढांचे का स्थायी पुनर्गठन है। जब तक बिहार अपने आर्थिक आधार को मज़बूत नहीं करता, तब तक यह वादा सिर्फ कागज़ी कानून बनकर रह जाएगा। अंततः तेजस्वी यादव ने एक बड़ा सपना दिखाया है, लेकिन उस सपने की जड़ें यथार्थ में नहीं, राजनीतिक कल्पना में हैं। बिहार के युवा शायद इस वादे से प्रेरित हों, पर सवाल अब यह है कि क्या वे भावनाओं के भरोसे वोट देंगे या आंकड़ों के आधार पर सोचेंगे।

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