बिहार की राजनीति में चुनावी घोषणापत्र अब केवल कागज पर लिखे वादों का पुलिंदा नहीं, बल्कि रणनीतिक शतरंज की बिसात बन चुके हैं। एक तरफ हैं तेजस्वी यादव, जो ‘प्रण’ लेकर युवाओं, बेरोजगारों और नाराज़ वर्गों को अपना बनाना चाहते हैं। इधर, दूसरी ओर है एनडीए जो ‘साझा संकल्प पत्र’ के ज़रिए न केवल बिहार की सत्ता बचाने बल्कि विपक्ष की राजनीति का ‘वोट मैप’ ही उलटने की कवायद कर रहा है।
सबसे दिलचस्प बात यह कि दोनों पक्ष मुफ़्तखोरी के उसी खेल में उतर चुके हैं, जिसे एक ज़माने में ‘नीतीश-मोदी गठबंधन’ खुद बिहार की राजनीति के लिए ‘विकास-विरोधी आदत’ बताया करता था।
रणनीति का नया नाम
बिहार में मुफ्त योजनाओं की शुरुआत कभी सामाजिक उत्थान के नाम पर की थी, साइकिल योजना, पोशाक योजना और छात्रवृत्ति की योजनाएं। हालांकि, इन योजनाओं ने सामाजिक परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभाई। लड़कियों को शिक्षा के प्रति जाग्रत किया। स्कूलों में इनकी उपस्थिति बढ़ी। इससे सबसे बड़ी जो सफलता मिली वह है महिला शिक्षा। इन्हीं वजहों से नीतीश कुमार को सुशासन बाबू की छवि मिली थी। लेकिन आज वही नीतीश, एनडीए के साझा संकल्प पत्र के केंद्र में हैं, जहां 125 यूनिट मुफ्त बिजली से लेकर आयुष्मान कार्ड तक, हर घोषणा विकास और वोट का मेल बन चुकी है।
एनडीए का यह नया अवतार जानता है कि बिहार का मतदाता अब आदर्शवाद से नहीं, ‘लाभवाद’ से जुड़ता है। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 50 लाख पक्के मकान का वादा, कर्पूरी ठाकुर किसान सम्मान योजना में 3,000 रुपये अतिरिक्त का ऐलान, यह सब मुफ्त की रेवड़ियां नहीं, बल्कि राजनीतिक लाभांश का कैलकुलेटेड निवेश हैं।
तेजस्वी यादव जब ‘10 लाख नौकरी’ के वादे से युवाओं को साधने की कोशिश करते हैं, तो एनडीए जवाब में 1 करोड़ रोजगार का ऐलान करता है। यह सीधा चुनावी ‘ओवरटेक’ है और यहीं पर एनडीए के रणनीतिकारों का कौशल सामने आता है।
आधी आबादी: नीतीश का स्थायी वोट बैंक
बिहार की राजनीति में महिलाओं की भूमिका अब सजावट भर नहीं, बल्कि निर्णायक हो चुकी है। 2020 के चुनाव में 66.7 प्रतिशत महिलाओं ने वोट डाले थे — जो पुरुषों से अधिक था। यह आँकड़ा बताता है कि बिहार में जो आधी आबादी है, वह आधे से ज़्यादा राजनीति तय करती है।
एनडीए जानता है कि यह वर्ग भावनाओं से नहीं, सुरक्षा और सम्मान के वादों से जुड़ता है। शराबबंदी, साइकिल और पोशाक योजना ने नीतीश कुमार को इस वर्ग में नायक बनाया था। अब एनडीए उसी परंपरा को ‘लखपति दीदी’ और ‘करोड़पति दीदी’ जैसे नए नामों से पुनर्जीवित कर रहा है।
1 करोड़ महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने का वादा, उन्हें “राजनीतिक ब्रांड एंबेसडर” बना देता है। यानी, जिस तरह ‘हर घर तिरंगा’ राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बना, उसी तरह ‘हर घर दीदी’ अब एनडीए की चुनावी पहचान बन रही है।
तेजस्वी यादव ने इस वर्ग को साधने के लिए कोई ठोस योजना नहीं दी। वे बेरोजगारी और भ्रष्टाचार पर तो बोलते हैं, लेकिन ‘महिला मतदाता’ को ठोस लाभ की भाषा चाहिए — और एनडीए यह भाषा बेहतर बोल रहा है।
युवाओं का खेल: वादे बनाम भरोसा
तेजस्वी यादव का सबसे बड़ा दावा यह कि पहली कैबिनेट में 10 लाख नौकरियाँ 2020 से ही उनके राजनीतिक व्यक्तित्व का केंद्र रहा है। लेकिन इस बार एनडीए ने उसी भाषाई धरातल पर उनसे मुकाबला किया है। 1 करोड़ नौकरी/रोजगार का ऐलान भले ही आंकड़ों का जादू लगे, लेकिन इसका असर मनोवैज्ञानिक है। एनडीए के लिए यह केवल घोषणा नहीं, बल्कि ‘युवा विमर्श’ पर कब्ज़ा करने की कोशिश है। तेजस्वी जहां रोजगार के आंकड़ों में फंसे हैं, वहीं एनडीए रोजगार के अवसरों को “उद्योग-प्रधान बिहार” की छवि से जोड़ने की बात कर रहा है।
नीतीश कुमार के शासन में शुरू हुई ‘स्टार्टअप पॉलिसी’ को अब बीजेपी मेक इन बिहार ब्रांडिंग दे रही है। और यही फर्क तेजस्वी के ‘वचन’ और एनडीए के ‘संभावना’ में नज़र आता है।
अतिपिछड़ा वर्ग: एनडीए की सामाजिक गणित की रीढ़
अगर किसी वर्ग ने बिहार की राजनीति का रुख़ मोड़ा है तो वह है अतिपिछड़ा वर्ग। जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी 36 प्रतिशत से ज़्यादा है, और यह वर्ग न जातीय नारे से, न ही धार्मिक ध्रुवीकरण से प्रभावित होता है। इस वर्ग की नब्ज़ नीतीश कुमार और मोदी, दोनों ने एक दशक में बखूबी समझ ली है।
एनडीए का वादा — 10 लाख रुपये तक की सरकारी सहायता और सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज की अध्यक्षता में आयोग इस वर्ग में ‘सम्मान की राजनीति’ को नया अर्थ दे रहा है। इधर, तेजस्वी यादव का नारा जातीय न्याय की राजनीति को पुनर्जीवित करने की कोशिश है, जबकि एनडीए इसे सामाजिक सम्मान में तब्दील कर रहा है। यही वह अंतर है, जो चुनावी नतीजों का गणित तय करेगा।
किसानों की अर्थनीति और राजनीतिक लाभांश
किसानों का जिक्र आते ही बिहार की राजनीति असहज हो जाती है, क्योंकि राज्य में भूमि-सुधार अधूरा, सिंचाई संकट पुराना और बाजार व्यवस्था कमजोर है। लेकिन एनडीए ने यहां भी प्रतीकात्मक उपाय से बड़ा संदेश दिया है। कर्पूरी ठाकुर किसान सम्मान योजना के तहत अतिरिक्त 3,000 रुपये का ऐलान, सीधा प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना से जोड़ता है। यह केवल किसान को पैसे देना नहीं, बल्कि कर्पूरी ठाकुर के नाम पर भावनात्मक पहचान गढ़ने की कोशिश है।
कर्पूरी ठाकुर, जो अतिपिछड़े समाज के प्रतीक माने जाते हैं, उनका नाम किसानों की योजना में जोड़ना बीजेपी की राजनीतिक सूझबूझ का नमूना है। यानी, जाति-सम्मान + आर्थिक लाभ = वोट आश्वासन।
तेजस्वी बनाम नीतीश: दो पीढ़ियों की राजनीति
यह चुनाव केवल वादों का नहीं, दो पीढ़ियों के राजनीतिक दृष्टिकोण का टकराव है। तेजस्वी की राजनीति “वादा पहले, व्यवस्था बाद में” पर टिकी है, जबकि नीतीश-मोदी का गठबंधन “प्रणाली पहले, प्रचार बाद में” की नीति पर चलता है। तेजस्वी का ‘प्रण’ ऊर्जावान है, भावनात्मक है, लेकिन वह अनुभवी नौकरशाही की कसौटी पर कमजोर पड़ता है। वहीं एनडीए के पास शासन का अनुभव है, और इसीलिए जब वे “125 यूनिट फ्री बिजली” या “1 करोड़ रोजगार” कहते हैं, तो जनता उसे “संभावित” मानती है, न कि “असंभव”।
बिहार की चुनावी मनोविज्ञान में ‘वोटर मोहिनी’
बिहार का मतदाता अब जाति या धर्म से नहीं, बल्कि ‘लाभ के तर्क’ से प्रभावित होता है। उसे नारे नहीं, ठोस सुविधा चाहिए। एनडीए ने इस ‘मोहिनी तंत्र’ को समझ लिया है। हर घोषणा, हर योजना और हर पोस्टर इसी विचार पर आधारित है कि “वोटर वही जो लाभार्थी हो।” 2020 में जब महिला मतदाताओं ने नीतीश को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाया, तो यह केवल ‘विकास’ की जीत नहीं थी, यह ‘वोटर मोहिनी’ की पहली सफलता थी। अब 2025 में वही प्रयोग और परिष्कृत रूप में दोहराया जा रहा है।
तेजस्वी यादव भले ही सोशल मीडिया पर लोकप्रिय हों, लेकिन ज़मीनी स्तर पर ‘सरकारी लाभ’ का नेटवर्क एनडीए के पास है। ‘पंचायत दीदी’, ‘रोज़गार केंद्र’, ‘किसान सुविधा काउंटर’ ये सब 2025 के चुनाव में एनडीए के ‘फील्ड एजेंट’ की भूमिका निभाने वाले हैं।
मुफ़्तखोरी या ‘स्मार्ट वेलफेयर’?
एनडीए का साझा संकल्प पत्र आलोचना से मुक्त नहीं। विपक्ष इसे ‘मुफ्तखोरी की राजनीति’ कह रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि यह ‘स्मार्ट वेलफेयर’ का नया मॉडल है। यानी, वही लाभ जो समाज के सबसे ज़रूरी तबके को मिले — लेकिन राजनीतिक पैकेजिंग ऐसी हो कि वह वोट में बदल जाए।
तेजस्वी का ‘प्रण’ भावनाओं को छूता है, जबकि एनडीए का ‘संकल्प’ गणना पर टिका है। एक के पास सपनों की झोली है, दूसरे के पास सरकारी फाइलें। और बिहार का मतदाता अब झोली से ज़्यादा फाइल पर भरोसा करता है। बिहार की ज़मीन पर एनडीए की सबसे बड़ी ताकत उसका ‘मल्टी-लेयर वोट बैंक’ है। महिलाएं, अतिपिछड़े, किसान और शहरी मध्यवर्ग — इन चार स्तंभों पर उसकी राजनीति खड़ी है। तेजस्वी यादव के पास युवा और अल्पसंख्यक मतदाता हैं, लेकिन वह अभी भी भावनात्मक स्तर पर सीमित हैं।
एनडीए का संकल्प पत्र चुनावी चकाचौंध नहीं, बल्कि समाज के हर कोने में ‘लाभ का सूत्र’ बुनने की कोशिश है। यही कारण है कि चुनावी हवा भले ही मौसमी लगे, पर सत्ता की धूप अभी भी एनडीए के ही माथे पर चमकती दिखती है।






















 
 




