अक्सर हमने सुना है कि छोटी छोटी कहानियों में बड़ी- बड़ी बातें और सीख छुपी होती है। ऐसी ही एक कहानी है नाथ संप्रदाय की योगी वेश की, यह एक ऐसी कहानी है जो हमें त्याग और गुरू- शिष्य का महत्व समझाती है। यह कहानी है उस समय की है जब मत्स्येंद्रनाथ जी हिमालय की गुफाओं में कठोर तपस्या कर रहे थे। उन्होनें कई सालों तक तपस्या कर के अपने अंदर की सभी इच्छाओंं और वासनाओं को खत्म कर दिया था। मत्स्येंद्रनाथ जी की तपस्या इतनी कठोर थी कि भगवान शिव भी इससे प्रसन्न हो गए थे।
जब शिव प्रकट हुए, उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ से कहा, “वत्स मत्स्येंद्र, मैंने तुम्हारी कठोर साधना देखी और इससे मैं बहुत खुश हूँ। अब तुम मुझसे कोई वरदान मांगो।”
मत्स्येंद्रनाथ ने बड़े ही नम्र भाव से हाथ जोड़कर उत्तर दिया, “हे प्रभु, मैं और कुछ नहीं चाहता। बस आप जैसा रूप और आपकी वेश मैं पाना चाहता हूँ, ताकि मैं भी दुनिया में योग और भक्ति का संदेश फैलाऊँ।”
शिव मुस्कुराए और बोले, “वत्स, यह वेश पाना आसान नहीं है। इसके लिए त्याग, संयम और निरंतर साधना की जरूरत होती है। लेकिन तुम्हारी तपस्या देखकर मैं प्रसन्न हूँ। इसलिए मैं तुम्हें अपना वेश प्रदान करूँगा।”
भस्म – अहंकार का दहन
भगवान शिव ने सबसे पहले मत्स्येंद्रनाथ के सिर पर भस्म लगाया। फिर उन्होंने कहा, “यह भस्म सत्य और अहंकार का प्रतीक है। एक सच्चे योगी को चाहिए कि वह मान-अपमान, क्रोध और अपने अहंकार जैसी चीज़ों से ऊपर उठे, बिल्कुल जड़ प्रकृति की तरह अपने भीतर की कठोरता और नकारात्मकता को भस्म कर दे।
यह हमें यह सिखाता है कि असली योगी वही है जो अपने अंदर ज्ञान और सच्चाई की आग जलाए रखता है। वह अपने अभ्यास और कर्मों से खुद को मजबूत बनाता है और उसी ताकत से दूसरों को भी सही रास्ता दिखाता है।
जल स्नान – समान व्यवहार और धैर्य
इसके बाद भगवान शिव ने मत्स्येंद्रनाथ का जल से स्नान कराया और समझाया, “जैसे पानी प्यास बुझाता है और सभी जीवों को जीवन देता है, वैसे ही एक सच्चे योगी को भी सभी प्राणियों के साथ समानता और प्रेम से पेश आना चाहिए। और जैसे पानी हमेशा शांत रहता है, वैसे ही योगी को भी हमेशा धैर्य, करुणा और शांति बनाए रखनी चाहिए।”
इससे हमें यह सीख मिलती है कि एक सच्चा योगी हर परिस्थिति में अपने अच्छे गुणों और सही सोच पर कायम रहता है।
नाद-जनेऊ – चेतना का संकेत
फिर महादेव ने मत्स्येंद्रनाथ को एक खास जनेऊ, जिसे नाद-जनेऊ कहते हैं, पहनाया। शिव ने कहा – “इस जनेऊ का मतलब ये है कि सारी सृष्टि की शुरुआत नाद यानी शब्द या ध्वनि से हुई। अब तुम भी इस नाद को अपना गुरु मानो और अपनी चेतना को इससे जोड़ो।”
ये जनेऊ सिर्फ बाहरी पहचान या दिखावे का प्रतीक नहीं है, बल्कि ये हमारे अंदर की आध्यात्मिक चेतना और गुरु-शिष्य के पवित्र रिश्ते का भी निशान है।
कुण्डल – गुरु परंपरा से अटूट बंधन
अंत में महादेव ने मत्स्येंद्रनाथ को कुण्डल पहनाया और बोले – “अब तुम सिर्फ साधक नहीं रहे, बल्कि सच्चे योगी बन गए हो। यही वेश तुम्हारी असली पहचान है।” कुण्डल का मतलब है गुरु-परंपरा से गहरा जुड़ाव और उस ज्ञान का पालन करना, जो मैं सीधे तुम्हें समझा चुका हूँ। यह पहनावा तुम्हारे अंदर की आध्यात्मिक यात्रा और समझ का प्रतीक है।
नाथ संप्रदाय की आज की परंपरा
तब से यह परंपरा नाथ संप्रदाय में आज भी जारी है। सभी शिष्य जब दीक्षा लेते हैं, तो वे भस्म, जल स्नान, नाद-जनेऊ और कुण्डल धारण करते हैं।
ग्रंथकार भी टिप्पणी करते हैं-
“आजकल कई साधु केवल नाम के लिए ही गुरु बनकर ये वेश धारण कर लेते हैं। असली महत्व उस भाव और ज्ञान में है, जिसे महादेव ने मत्स्येंद्रनाथ को प्रत्यक्ष रूप से दिया था।”
मत्स्येंद्रनाथ को शिव से मिला योगी-वेश हमें यह सिखाता है कि सच्चा योगी वही है जो साधना, त्याग, संयम और गुरु-शिष्य परंपरा को समझे और अपनाए।
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भस्म – अहंकार का नाश
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जल स्नान – सबके साथ समान व्यवहार और धैर्य
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नाद-जनेऊ – चेतना का संगीत और ज्ञान से जुड़ाव
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कुण्डल – गुरु-परंपरा से अटूट बंधन