ये होती है दोस्ती! नॉर्दर्न सी रूट पर भारत के साथ रूस की डील से चीन की बढ़ेंगी मुश्किलें

रूस और भारत नॉर्दर्न सी रूट (NSR) को लेकर जो समझौता करने जा रहे हैं, वह केवल एक शिपिंग प्रोजेक्ट नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक शतरंज की एक बड़ी चाल है।

ये होती है दोस्ती! नॉर्दर्न सी रूट पर भारत के साथ रूस की डील से चीन की बढ़ेंगी मुश्किलें

भारत के लिए यह साझेदारी केवल रणनीति नहीं, बल्कि आर्थिक पुनर्जागरण का भी प्रतीक है।

भारत और रूस के रिश्ते अब पारंपरिक रक्षा सहयोग की सीमाओं से आगे बढ़ चुके हैं। दिसंबर में जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत आएंगे, तो उनका एजेंडा केवल ऊर्जा, हथियार या कूटनीतिक साझेदारी नहीं होगा, इस बार बात होगी आर्कटिक महासागर की बर्फीली गहराइयों में छिपे उस अवसर की, जिसे चीन लंबे समय से अपना मानकर चल रहा है। रूस अब उस क्षेत्र में भारत को अपने साथ खड़ा देखना चाहता है और यह बदलाव केवल व्यापार नहीं, बल्कि एशियाई शक्ति संतुलन की कहानी कह रहा है।

आर्कटिक से हिंद महासागर तक नई कूटनीति

रूस और भारत नॉर्दर्न सी रूट (NSR) को लेकर जो समझौता करने जा रहे हैं, वह केवल एक शिपिंग प्रोजेक्ट नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक शतरंज की एक बड़ी चाल है। नॉर्दर्न सी रूट रूस के उत्तरी तट से होकर गुजरता है और आर्कटिक महासागर को यूरोप और एशिया से जोड़ता है।
पारंपरिक दक्षिणी समुद्री मार्ग यानी स्वेज नहर या मलक्का जलडमरूमध्य की तुलना में यह रास्ता लगभग 40% छोटा है।

इसका अर्थ है कि भारत से यूरोप तक माल ढुलाई न केवल तेज और सस्ती होगी, बल्कि यह मार्ग उन क्षेत्रों से भी बचेगा जो अमेरिका या चीन की नौसैनिक निगरानी में रहते हैं। यानी यह रास्ता न केवल व्यापारिक लाभ देगा, बल्कि रणनीतिक स्वायत्तता भी सुनिश्चित करेगा।

रूस के लिए भी भारत का साथ महत्वपूर्ण

यूक्रेन युद्ध के बाद पश्चिमी प्रतिबंधों ने रूस के समुद्री व्यापार पर भारी असर डाला है। पश्चिमी कंपनियों और जहाजरानी सेवाओं के हटने के बाद पुतिन को भरोसेमंद भागीदारों की जरूरत है और भारत उसके इस खालीपन को भर सकता है। भारत के पास अब न केवल विशाल व्यापारिक तंत्र है, बल्कि वह पश्चिमी दबाव से मुक्त होकर अपने हित में फैसले लेने की क्षमता भी रखता है। इसीलिए रूस चाहता है कि भारत आर्कटिक में अपनी मौजूदगी बढ़ाए, ताकि मॉस्को का आर्थिक और राजनीतिक संतुलन केवल चीन पर निर्भर न रहे।

चीन की बेचैनी का असली कारण

भारत और रूस की यह साझेदारी सबसे ज्यादा चीन को परेशान कर रही है। बीजिंग पिछले एक दशक से खुद को “Near-Arctic State” कहता आया है, हालांकि भौगोलिक रूप से चीन का आर्कटिक से कोई सीधा संबंध नहीं है। इसके बाद भी उसने रूस के साथ मिलकर आर्कटिक क्षेत्र में निवेश, खनन और नौसैनिक प्रयोग शुरू किए हैं। खासकर “Polar Silk Road” के नाम पर।

लेकिन रूस अब उस रास्ते में भारत को लाकर संतुलन की नई दीवार खड़ी कर रहा है। चीन के लिए यह दोहरी चुनौती होगी, एक तरफ दक्षिण में हिंद महासागर में भारत की मौजूदगी, और दूसरी तरफ उत्तर में आर्कटिक में भारत की एंट्री। यानी चीन अब भूगोल के दोनों छोरों से भारत-रूस की रणनीतिक पकड़ में आने वाला है।

भारत ने पहले ही हिंद महासागर क्षेत्र में चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को चुनौती देने के लिए चाबहार पोर्ट, सबांग और अंदमान निकोबार जैसे ठिकानों पर ध्यान केंद्रित किया है। अब अगर चाबहार को नॉर्दर्न सी रूट से जोड़ने की योजना आगे बढ़ती है, तो भारत के पास दक्षिण से उत्तर तक एक वैकल्पिक एशियाई कॉरिडोर तैयार हो जाएगा। यह वह भौगोलिक स्थिति है, जिसे रणनीतिक विश्लेषक “Twin Deterrence” कहते हैं। मतलब चीन को एक साथ दो मोर्चों पर संतुलित करना होगा।

पुतिन की रणनीति: चीन से दूरी, भारत से भरोसा

पुतिन के लिए यह साझेदारी सिर्फ दोस्ती नहीं, बल्कि एक भविष्य का सुरक्षा कवच है। रूस जानता है कि चीन के साथ उसका रिश्ता असमान है। आर्थिक रूप से बीजिंग अब बहुत ताकतवर हो चुका है। यूक्रेन युद्ध में रूस को जब पश्चिम से अलग-थलग किया गया, तब चीन ने तो समर्थन दिया, लेकिन अपने हितों की सीमा से आगे नहीं बढ़ा।

अब पुतिन नहीं चाहते कि रूस पूरी तरह चीनी निर्भरता में फंस जाए। भारत को आर्कटिक में साझेदार बनाकर वह रणनीतिक विविधता (Strategic Diversification) ला रहे हैं। भारत के साथ जुड़ने से रूस को भरोसेमंद लोकतांत्रिक सहयोगी मिलेगा, जिसकी विदेश नीति स्वतंत्र है और जो किसी पश्चिमी या पूर्वी गुट के इशारे पर नहीं चलता।

इसके अलावा रूस की यह भी इच्छा है कि भारत Arctic Council में अपनी भूमिका बढ़ाए। रूस यह भलीभांति जानता है कि अगर भारत जैसे जिम्मेदार खिलाड़ी आर्कटिक में सक्रिय होंगे, तो पश्चिमी देशों की नीतियों पर भी सकारात्मक दबाव बनेगा और चीन का एकाधिकार टूटेगा। यह वही “बड़ी चाल” है जो रूस को एशिया और यूरोप के बीच नया सेतु बना सकती है।

भारत के लिए अवसरों का नया युग

भारत के लिए यह साझेदारी केवल रणनीति नहीं, बल्कि आर्थिक पुनर्जागरण का भी प्रतीक है। आर्कटिक क्षेत्र में तेल, गैस, कोबाल्ट, लिथियम और रेयर अर्थ मिनरल्स के विशाल भंडार हैं और भविष्य की ग्रीन एनर्जी क्रांति इन्हीं पर टिकी है। भारत के पास पहले से ही ऊर्जा आपूर्ति की चुनौती है और रूस से यह सहयोग उसे न केवल दीर्घकालिक ऊर्जा सुरक्षा देगा बल्कि नए रोजगार और तकनीकी विकास के अवसर भी खोलेगा।

इसके अलावा भारत की शिपबिल्डिंग इंडस्ट्री और पोलर नेविगेशन स्किल्स में भी बड़ा सुधार होगा। पिछले साल दोनों देशों ने ज्वाइंट वर्किंग ग्रुप बनाकर “Joint Arctic Shipbuilding Project” और “Indian Mariners Training for Polar Navigation” पर चर्चा शुरू की थी। अब यह डील फाइनल होते ही भारत के नौसैनिक और तकनीकी विशेषज्ञ आर्कटिक के कठिन जलमार्गों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकेंगे। यह भारत के “ब्लू इकोनॉमी” विजन का सबसे ठोस विस्तार होगा।

नई वैश्विक व्यवस्था की झलक

भारत और रूस का यह गठबंधन दुनिया को यह संदेश भी दे रहा है कि वैश्विक राजनीति अब केवल अमेरिका या चीन की शर्तों पर नहीं चलेगी। यूक्रेन युद्ध के बाद जब पश्चिम ने रूस को अलग-थलग करने की कोशिश की, तब भारत ने तटस्थ रहते हुए अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी। आज उसी नीति का परिणाम यह है कि रूस भारत को “विश्वसनीय शक्ति” के रूप में देखता है। भारत की विदेश नीति अब संतुलन की नहीं, स्वाभिमान की नीति बन चुकी है और यही उसे अमेरिका, रूस और यूरोप तीनों के साथ समान स्तर पर संवाद करने की क्षमता दे रही है। चीन के लिए यह बदलाव गहरी चिंता का विषय है।

भारत एक तरफ अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड के जरिए चीन को रोकने की कोशिश कर रहा है तो दूसरी तरफ रूस अब भारत के साथ मिलकर उसके उत्तरी फ्लैंक पर दबाव बना रहा है। यानी भारत अब विश्व शक्ति संतुलन का केंद्रीय स्तंभ बनता जा रहा है। यह वही स्थिति है जिसका सपना पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधानमंत्री ने देखा था, भारत को वैश्विक निर्णय-निर्माण की टेबल पर स्थायी स्थान दिलाना।

रणनीतिक साझेदारी की नई परिभाषा

भारत और रूस की आर्कटिक साझेदारी इस बात का प्रतीक है कि पुराने दोस्त अब नए युग की आवश्यकताओं के अनुसार खुद को ढाल रहे हैं। यह रिश्तों की 21वीं सदी की पुनर्परिभाषा है, जहां भावनात्मक जुड़ाव के साथ-साथ ठोस आर्थिक और रणनीतिक हित भी जुड़े हैं। चीन की विस्तारवादी नीतियों, अमेरिका की दबावपूर्ण कूटनीति और यूरोप की अनिश्चितताओं के बीच यह साझेदारी भारत को एक संतुलनकारी शक्ति के रूप में स्थापित कर रही है।

दिसंबर में जब पुतिन नई दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी के साथ बैठेंगे, तो यह केवल दो देशों की वार्षिक बैठक नहीं होगी, बल्कि यह उस भू-राजनीतिक युग का आगाज़ होगा जहां भारत और रूस मिलकर एशिया की दिशा तय करेंगे और चीन को पहली बार दोनों दिशाओं से घेर लेंगे।

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