यूक्रेन की मानसिक गुलामी: युद्ध ने कैसे यूक्रेन को पश्चिम की कठपुतली बना दिया ?

यूक्रेन की मौजूदा स्थिति यह साबित करती है कि उपनिवेशवाद की सबसे घातक अवस्था वह है, जब कोई राष्ट्र मानसिक रूप से गुलाम बन जाए।

यूक्रेन की मानसिक गुलामी: विदेशी अनुमोदन के लिए मरता एक देश

यूक्रेन का यह युद्ध अब “पश्चिम का युद्ध” बन चुका है।

जब कोई राष्ट्र अपनी आत्मा बेच देता है, तो युद्ध में हारना केवल औपचारिकता ही रह जाती है। वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की का यूक्रेन आज इसी सच्चाई का प्रतीक है, जहां स्वतंत्रता का मुखौटा पहने एक देश अपने अस्तित्व को पश्चिमी शक्तियों के हाथों गिरवी रख चुका है।

यूक्रेन की मौजूदा स्थिति यह साबित करती है कि उपनिवेशवाद की सबसे घातक अवस्था वह है, जब कोई राष्ट्र मानसिक रूप से गुलाम बन जाए। यह वही स्थिति है, जिसे भारतीय दर्शन में “मनोवैज्ञानिक उपनिवेशवाद” कहा जा सकता है, जहां किसी विदेशी शक्ति की सोच, प्राथमिकताएं और एजेंडा इतने गहराई से आत्मसात हो जाते हैं कि देश का नेतृत्व अपने ही राष्ट्रीय हितों को भूल जाता है।

ज़ेलेंस्की: यूक्रेन के शासक या पश्चिमी देशों के प्रतिनिधि ?

ज़ेलेंस्की जब 2019 में सत्ता में आए, तो उन्होंने खुद को “जनता का प्रतिनिधि” बताया। लेकिन शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि वे असल में पश्चिमी हितों के प्रतिनिधि हैं। यूक्रेन की तटस्थ विदेश नीति को छोड़कर उन्होंने NATO की सदस्यता की दौड़ शुरू की, एक ऐसा कदम जिसने रूस को सीधी चुनौती दी और यूक्रेन को भस्म कर देने वाली आग में झोंक दिया।

ज़ेलेंस्की की लोकप्रियता पश्चिमी मीडिया और धन से संचालित रही। यही कारण था कि उनके शासन ने भीतर से यूक्रेन के लोकतंत्र को खोखला कर दिया। रूस समर्थक माने जाने वाले दलों को प्रतिबंधित किया गया, स्थानीय सरकारों की शक्तियां छीनी गईं और राष्ट्रीय नीतियां वाशिंगटन व ब्रुसेल्स की इच्छा के अनुसार तय होने लगीं।

युद्ध ने कैसे यूक्रेन को पश्चिम की कठपुतली बना दिया ?

2022 के बाद जब रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ, तो यूक्रेन की स्थिति और भी भयावह हो गई। हथियार, गोला-बारूद, खुफिया जानकारी—सब कुछ अमेरिका और यूरोपीय देशों की कृपा पर निर्भर था। यूक्रेन की सैन्य रणनीति भी अब खुद तय नहीं होती, वह तय होती है इस बात पर कि पश्चिम से अगला हथियार कब मिलेगा?
यूक्रेन और ज़ेलेंस्की के हर फैसले पर पश्चिम की मुहर लगनी जरूरी है। जिसने भी इस पर सवाल उठाया, उसे “रूसी एजेंट” करार दे दिया गया। जिसने भी शांति की बात की उसे “देशद्रोही” बना दिया गया। ज़ेलेंस्की के भाषणों में अब केवल युद्ध, शौर्य और पश्चिमी सहयोग की बातें हैं—जनता का दर्द कहीं नहीं है।

जनता की कीमत पर पश्चिम का युद्ध

यूक्रेन का यह युद्ध अब “पश्चिम का युद्ध” बन चुका है। लाखों सैनिक मारे गए, हज़ारों नागरिक बमबारी में झुलस गए और करोड़ों लोग अपने घरों से बेघर हो गए। विश्व बैंक के अनुसार, यूक्रेन के पुनर्निर्माण की लागत 500 अरब डॉलर से अधिक होगी—जो देश की पूरी अर्थव्यवस्था से कई गुना ज्यादा है।

क्राइमिया और डोनबास अब रूस के स्थायी कब्ज़े में हैं। यूक्रेन की जनसंख्या घट रही है, जन्म दर गिर रही है और युवा वर्ग विदेशों में बस रहा है। एक देश जिसकी पहचान संस्कृति, आत्मबल और स्वतंत्रता थी—वह अब विदेशी अनुदानों पर चलने वाला “प्रोजेक्ट यूक्रेन” बन चुका है।

चाणक्य की चेतावनी: जो राजा प्रजा की रक्षा न करे, वह राजा नहीं

भारतीय राज्यशास्त्र के महान विचारक आचार्य चाणक्य ने कहा था कि “राज्य का मूल प्रजा है। राजा का धर्म है कि वह अपने लोगों की रक्षा करे; जो राजा अपने स्वार्थ या मोह में प्रजा को कष्ट में डाल दे, वह विनाश को आमंत्रित करता है।” ज़ेलेंस्की ने इस सिद्धांत को पूरी तरह त्याग दिया। उन्होंने अपने लोगों को युद्ध की आग में झोंक दिया ताकि पश्चिमी दुनिया उन्हें “लोकतंत्र का रक्षक” कहती रहे। लेकिन, इतिहास के पन्नों में उनका नाम उस शासक के रूप में दर्ज होगा जिसने अपने देश की आत्मा को विदेशी हथियारों के बदले बेच दिया।

यूक्रेन का युद्ध सिर्फ रूस से नहीं, खुद से भी है

यूक्रेन की सबसे बड़ी हार रूसी टैंकों से नहीं हुई—वह हार तो तब हुई जब उसका नेतृत्व मानसिक रूप से पराजित हो गया। जब कोई राष्ट्र अपनी नीतियां विदेशी शक्तियों की स्वीकृति पर तय करने लगे, तो उसकी स्वतंत्रता केवल प्रतीक बन जाती है।

यूक्रेन आज उसी प्रतीकात्मक स्वतंत्रता का शिकार है। ज़ेलेंस्की के शासन ने यह दिखा दिया कि मानसिक दासता किसी भी सैन्य पराजय से ज़्यादा घातक होती है। यह त्रासदी केवल यूक्रेन की नहीं, बल्कि उन सभी राष्ट्रों के लिए चेतावनी है जो अपनी आत्मनिर्भरता को विदेशी सहयोग के नाम पर गिरवी रख देते हैं। क्योंकि अंततः “जो अपने लोगों को बचाने के बजाय दूसरों की ताली पाने में व्यस्त हो जाए, वह राजा नहीं, कठपुतली होता है।”

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