दक्षिण एशिया के मानचित्र पर नदियां हमेशा से जीवन की नसों की तरह रही हैं। वे केवल खेतों को नहीं सींचतीं, बल्कि संस्कृतियों, सभ्यताओं और कूटनीतियों को भी दिशा देती हैं। लेकिन, अब यही नदियां राजनीति का नया मोर्चा बन चुकी हैं। भारत ने पहले ही पाकिस्तान के खिलाफ अपने जल-अधिकारों को रणनीतिक ढाल की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। और अब अफगानिस्तान, जो कभी पाकिस्तान के लिए रणनीतिक गहराई कहा जाता था, उसी के पानी पर नियंत्रण की घोषणा कर चुका है। तालिबान सरकार ने कुनार नदी पर बड़े बांधों के निर्माण की शुरुआत का फरमान जारी कर दिया है। बता दें कि यह वही नदी है, जो अफगानिस्तान से होकर बहती हुई पाकिस्तान के काबुल बेसिन में जीवन का स्रोत बनती है।
तालिबान के सूचना उप मंत्री मुजाहिद फराही ने घोषणा की कि अमीर अल-मुमिनिन शेख हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा ने जल एवं ऊर्जा मंत्रालय को बिना किसी देरी के कुनार नदी पर बांध निर्माण शुरू करने का आदेश दिया है। उन्होंने साफ़ कहा कि अफगानिस्तान अब अपने पानी का उपयोग खुद करेगा। इसके लिए वह विदेशी कंपनियों का इंतज़ार नहीं करेगा। मंत्रालय के प्रमुख अब्दुल लतीफ़ मंसूर के शब्दों में, अफगानों को अपने पानी के उपयोग और प्रबंधन करने का अधिकार है।
यह वक्तव्य किसी तकनीकी परियोजना की घोषणा नहीं, बल्कि राजनीतिक इरादे का ऐलान है। क्योंकि, जिस तरह यह नदी पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण है, उसी तरह इसका प्रवाह रोकना या सीमित करना उसके लिए आर्थिक और सामरिक संकट का संकेत भी है।
कुनार नदी: जहां से निकलती है जल राजनीति की नई धारा
कुनार नदी पाकिस्तान के चित्राल क्षेत्र से निकलती है और लगभग 300 मील अफगानिस्तान के अंदर बहती हुई पुनः पाकिस्तान लौटती है, जहां यह काबुल नदी में मिलती है। इस मिश्रित प्रवाह से पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा और उत्तरी पंजाब के कई इलाकों की सिंचाई होती है। इतना ही नहीं यही पानी पाकिस्तान में छोटे हाइड्रो प्रोजेक्ट्स और स्थानीय बिजली उत्पादन का आधार भी है।
इसलिए तालिबान का यह कदम केवल एक आंतरिक जल प्रबंधन परियोजना नहीं, बल्कि पाकिस्तान के लिए एक संभावित जल संकट की भूमिका लिखता है। पाकिस्तान पहले ही सिंधु जल प्रणाली के तहत भारत से आने वाली नदियों पर निर्भर है और अब अफगानिस्तान की नदियों पर भी दबाव बढ़ने से उसकी स्थिति डबल हाइड्रोलॉजिकल वल्नरेबिलिटी (दोहरी जल-निर्भरता) में बदल सकती है।
जनवरी में जब तालिबान सरकार ने पहली बार कुनार नदी पर एक बांध के निर्माण का संकेत दिया था, तब पाकिस्तानी अधिकारियों ने इसे शत्रुतापूर्ण क़दम कहा था। लेकिन तब तक सीमा पर हालात अपेक्षाकृत शांत थे। अब समीकरण उलट चुके हैं।
हाल के महीनों में पाकिस्तान और तालिबान के बीच रिश्ते तेज़ी से बिगड़े हैं। टीटीपी (तेहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) के बढ़ते हमलों, सीमा विवादों और पाकिस्तानी एयरस्ट्राइक के बाद दोनों देशों के बीच विश्वास पूरी तरह टूट चुका है। कुछ सप्ताह पहले काबुल पर हुए पाकिस्तानी हवाई हमले पर तालिबान ने कड़ी प्रतिक्रिया दी थी। बात दें कि इस हमले में 58 पाक सैनिक मारे गए थे। उसके बाद पाकिस्तान ने कतर के माध्यम से मध्यस्थता करवाई, लेकिन स्थितियां नहीं सुधरीं।
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो कुनार नदी का बांध केवल जल नीति नहीं, बल्कि प्रतिशोध का भू-राजनीतिक प्रतीक भी बन गया है।
चीन की दिलचस्पी: दोस्त के हितों के ख़िलाफ़ निवेश
द डिप्लोमेट की अगस्त 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, अफगानिस्तान के जल एवं ऊर्जा मंत्रालय ने कहा था कि चीन की एक कंपनी ने कुनार नदी पर तीन बड़े बांधों में निवेश करने की इच्छा जताई है, जिनसे लगभग 2,000 मेगावाट बिजली उत्पादन संभव होगा।
यह जानकारी जितनी आर्थिक, उतनी ही रणनीतिक भी है। चीन पाकिस्तान का सदैव मित्र माना जाता है, जिसने सीपीईसी (चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर) में अरबों डॉलर झोंके हैं। लेकिन, अब वही चीन अफगानिस्तान में जल परियोजनाओं के निवेश में रुचि दिखा रहा है। मतलब अब वह अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान के जल हितों के विरुद्ध खड़ा हो सकता है।
यह बीजिंग की दोहरी जल रणनीति (dual water diplomacy) का उदाहरण है। एक ओर पाकिस्तान में निवेश कर स्थिरता की छवि बनाए रखना और दूसरी ओर अफगानिस्तान में ऊर्जा-स्रोतों पर नियंत्रण पाकर दीर्घकालिक प्रभाव जमाना। चीन की यह नीति संकेत देती है कि वह अब पाकिस्तान की सुरक्षा-निर्भरता से आगे जाकर मध्य एशिया और अफगान क्षेत्र के संसाधनों में भी हिस्सेदारी चाहता है।
पाकिस्तान के लिए यह खबर इसलिए भी असहज है, क्योंकि वह हमेशा से चीन को अपने सबसे भरोसेमंद बैकअप कूटनीतिक कवच के रूप में देखता आया है। अगर यही बीजिंग अब अफगान परियोजनाओं में शामिल होता है, तो इस भाईचारे की परिभाषा अब बदल जाएगी।
जब सिंधु जल समझौता बना प्रतिरोध का हथियार
भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में हुआ सिंधु जल समझौता दक्षिण एशिया में अब तक का सबसे स्थायी द्विपक्षीय जल अनुबंध रहा है। विश्व बैंक की मध्यस्थता से बने इस समझौते ने सिंधु, झेलम और चिनाब नदियां पाकिस्तान को, जबकि रावी, ब्यास और सतलज भारत को सौंपी थीं।
छह दशकों तक यह समझौता दोनों देशों के बीच शांति का बिंदु माना गया। लेकिन 2016 के उरी हमले और 2019 के पुलवामा हमले के बाद भारत ने संकेत देना शुरू किया कि खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते। 2024 में भारत ने इस समझौते की समीक्षा और डेटा शेयरिंग रोकने का औपचारिक निर्णय लिया। मतलब यह कि पाकिस्तान को मिलने वाली पश्चिमी नदियों पर प्रवाह का सटीक डेटा अब साझा नहीं किया जाएगा।
इसके साथ ही भारत ने झेलम और चिनाब बेसिन में अपने हिस्से की नई जलविद्युत परियोजनाएं तेज़ कर दीं हैं। रत्ती गली, किरण और पकल दुल जैसी परियोजनाएं अब केवल ऊर्जा नहीं, बल्कि रणनीतिक संदेश के रूप में देखी जा रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सार्वजनिक टिप्पणी कि हम अपने किसानों का पानी किसी और को नहीं देंगे। इस नई जल कूटनीति का राजनीतिक घोषणा-पत्र बन गई।
भारत की नीति कानूनी रूप से अपने अधिकार का अधिकतम उपयोग करने की है। यानी वह किसी अंतरराष्ट्रीय संधि का उल्लंघन नहीं कर रहा, बल्कि अपने हिस्से के पानी के भीतर अधिक से अधिक उपयोग सुनिश्चित कर रहा है। लेकिन पाकिस्तान के लिए परिणाम वही हैं, नीचे पहुंचने वाला जल घटता जा रहा है।
अफगानिस्तान का कुनार बांध अब इस रुख़ का दूसरा संस्करण बन सकता है। फर्क सिर्फ इतना है कि अफगानिस्तान पर कोई अंतरराष्ट्रीय जल संधि लागू नहीं है और तालिबान की सरकार किसी वैश्विक मध्यस्थता को मान्यता भी नहीं देती। इसलिए पाकिस्तान की कानूनी अपीलें वहां बेमतलब साबित होंगी।
पाकिस्तान: दो दिशाओं से बहती सूखे की आंधी
भारत की पश्चिमी नदियों और अफगानिस्तान की उत्तरी धाराओं, दोनों पर दबाव बढ़ने से पाकिस्तान की जल सुरक्षा अब दो दिशाओं से संकट में है। उसकी कृषि अर्थव्यवस्था लगभग 90 प्रतिशत सिंचाई पर निर्भर है। खैबर पख्तूनख्वा और पंजाब में गेहूं, चावल, कपास और गन्ने की खेती पानी की नियमित उपलब्धता पर टिकी है। कुनार नदी से प्रवाह घटने का सीधा असर इन इलाकों में कृषि उत्पादन पर पड़ेगा।
पाकिस्तान की 35 प्रतिशत बिजली जलविद्युत परियोजनाओं से आती है। यदि ऊपर से आने वाला पानी कम होता है तो बिजली संकट और गहराएगा। पहले ही देश महंगे एलएनजी आयात पर निर्भर है, अब जल प्रवाह में गिरावट से उत्पादन-लागत और महंगाई और बढ़ जाएगी।
इस संकट की सामाजिक और राजनीतिक कीमत भी भारी होगी। जब पानी की कमी रोज़गार और भोजन को प्रभावित करती है, तो असंतोष अपने आप बढ़ता है। पाकिस्तानी विपक्ष इसे कूटनीतिक असफलता बताकर सरकार को कटघरे में खड़ा करेगा। यह वही स्थिति है जिसमें बाहरी दुश्मन का नैरेटिव काम नहीं करता, क्योंकि जनता को तात्कालिक समाधान चाहिए।
तालिबान की रणनीति: आत्मनिर्भरता या प्रतिशोध?
तालिबान के लिए यह बांध केवल जल परियोजना नहीं, बल्कि शासन की वैधता का प्रतीक है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़े शासन के लिए राष्ट्रीय संसाधनों पर स्वायत्त नियंत्रण दिखाना जनता और सेना दोनों के मनोबल के लिए ज़रूरी है।
कुनार नदी का बांध अफगान अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्त्वपूर्ण होगा। बिजली उत्पादन, रोजगार और स्थानीय उद्योगों को ऊर्जा उपलब्ध कराना उसके आर्थिक पुनर्निर्माण का हिस्सा है। लेकिन, समय और संसाधन दोनों तालिबान के पक्ष में नहीं हैं। इस तरह की परियोजनाएं पूंजी-गहन होती हैं, जबकि अफगानिस्तान अभी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों और वित्तीय संकट से जूझ रहा है।
यहीं चीन की भूमिका निर्णायक बनती है। अगर, बीजिंग इस परियोजना में वित्तीय या तकनीकी भागीदारी करता है, तो तालिबान को वैधता और पूंजी दोनों मिलेंगे। यही वह बिंदु है, जहां अफगान जल-स्वायत्तता क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन में बदल जाएगी।
दक्षिण एशिया की नई जल-भूगोल रचना
भारत और अफगानिस्तान दोनों भौगोलिक रूप से ऊपर की धारा के देश हैं। पाकिस्तान नीचे की धारा पर निर्भर है। यह भौगोलिक असमानता ही दक्षिण एशिया की जल-राजनीति की धुरी बन चुकी है। भारत ने दशकों तक पाकिस्तान के आतंकवाद के जवाब में कूटनीतिक संयम दिखाया, लेकिन अब उसके पास जल नियंत्रण का वैध औज़ार है। वहीं अफगानिस्तान का मामला अलग है। वह अंतरराष्ट्रीय नियमों से मुक्त है और पाकिस्तान से उसका कोई जल समझौता भी नहीं है।
इसका मतलब यह है कि अगर अफगानिस्तान बांध बनाता है और पाकिस्तान विरोध करता है, तो उसे रोकने वाला कोई अंतरराष्ट्रीय ढांचा नहीं है। यह स्थिति पाकिस्तान को पहले से अधिक कमजोर बनाती है। आगे चलकर यह जल राजनीति पूरे क्षेत्र को नए गठजोड़ों में बांट सकती है। भारत और अफगानिस्तान के बीच पहले से ही बढ़ते संवाद और सुरक्षा सहयोग हैं। अगर दोनों देशों की जल रणनीति समान दिशा में चलती है, तो पाकिस्तान के पास केवल दो रास्ते बचेंगे या तो नए समझौते की तलाश या फिर आंतरिक सुधार।
प्रतिशोध से नीतिगत संतुलन तक
पानी रोकना कोई बटन दबाने जैसा निर्णय नहीं होता। इसमें बांध निर्माण, नहर नेटवर्क और नियंत्रित प्रवाह जैसी तकनीकी प्रक्रियाएं भी शामिल होती हैं। भारत के पास इस दिशा में मजबूत अवसंरचना है, लेकिन अफगानिस्तान के पास अभी सीमित। लेकिन प्रतीकात्मक प्रभाव अधिक है, जब ऊपर की नदियां बोलती हैं तो नीचे की धरती पर डर उतरता है।
हालांकि, ये भी सच है कि भारत ने पानी को कभी युद्ध का साधन नहीं कहा, बल्कि अधिकार की पुनर्प्राप्ति कहा है। तालिबान ने भी इसे खुद का अधिकार बताया है। दोनों के वक्तव्य अलग हैं, लेकिन अर्थ समान। अब नदियां सिर्फ़ बहेंगी नहीं, बोलेंगी भी।
दक्षिण एशिया की राजनीति अब जल प्रवाह की गति और दिशा से तय होगी। पाकिस्तान, जो दशकों तक अपनी भौगोलिक स्थिति को सामरिक लाभ मानता रहा, अब उसी भूगोल की कीमत चुका रहा है। भारत और अफगानिस्तान के पहाड़ों से बहने वाली नदियां उसके खेतों तक पहुंचने से पहले अब नीतिगत जांच से गुजरेंगी।
पाकिस्तान की हालत सूखते पानी के साथ सिकुड़ती ताकत
अब जबकि भारत ने अपने हिस्से के जलाधिकार का प्रयोग कर कूटनीतिक संदेश दिया है कि विकास भी सुरक्षा ही है। अफगानिस्तान ने भी यही सिद्धांत अपनाया है, भले वह इसे खुद का हक़ कह रहा हो। पाकिस्तान के लिए यह केवल जल संकट नहीं, अस्तित्व की चेतावनी भी है।
एक ओर उसकी अर्थव्यवस्था IMF के भरोसे, दूसरी ओर नदियां दो दिशाओं से नियंत्रण में यह एक ऐसा परिदृश्य बनाता है, जहां भू-राजनीति जलवायु से जुड़ जाती है।
दक्षिण एशिया में आने वाले वर्षों में यह सवाल बार-बार उठेगा कि क्या क्षेत्र की नदियां शांति का स्रोत बनेंगी या संघर्ष का कारण। फिलहाल तो संकेत यही हैं कि जब ऊपर की नदियां प्रतिशोध में बहने लगती हैं, तब नीचे की धरती सूखने लगती है।
