कतर की मध्यस्थता से जन्मा पाकिस्तान-अफगानिस्तान शांति समझौता इस वक्त एशियाई कूटनीति का सबसे नाजुक धागा बन चुका है। दस्तावेज़ों में लिखी बातें, प्रेस विज्ञप्तियों में दिए गए बयान और कैमरों के सामने किए गए हस्ताक्षर भले ही स्थायित्व का भ्रम दें, लेकिन ज़मीन पर हालात बिल्कुल इसके उलट हैं। तालिबान और पाकिस्तान के बीच जो कुछ वर्षों पहले तक रणनीतिक साझेदारी कही जाती थी, वह अब परस्पर अविश्वास और हिंसा के दलदल में बदल चुकी है। दोनों देशों की सीमा, विचार और हित तीनों के बीच अब गहरी दरारें हैं, और ये दरारें इतनी पुरानी हैं कि उन्हें किसी भी कतर बैठक के स्याही से भरा काग़ज़ नहीं जोड़ सकता।
पाकिस्तान के लिए अफगानिस्तान हमेशा से रणनीतिक गहराई (strategic depth) का क्षेत्र रहा है। यह वह सोच थी जो 1980 के दशक में आईएसआई और पाकिस्तानी सेना ने तैयार की थी। भारत के खिलाफ अपनी सुरक्षा नीति को पश्चिम की ओर विस्तारित करने के लिए। इसीलिए इस्लामाबाद ने नब्बे के दशक में अफगान तालिबान को गढ़ा, हथियार दिए और उन्हें सत्ता में पहुंचाया। पाकिस्तान का मानना था कि अफगानिस्तान में उसका नियंत्रित शासन उसके लिए सुरक्षा कवच बनेगा। लेकिन बीते चार वर्षों में यही सुरक्षा कवच उसके लिए विषधार सांप साबित हुआ है। तालिबान, जिसे कभी पाकिस्तान की रचना कहा जाता था, अब वह उसी पाकिस्तान की संप्रभुता को चुनौती दे रहा है।
डूरंड लाइन इस अस्थिरता की जड़ में सबसे बड़ा कांटा है। यहां पर बता दें कि यह सीमा रेखा ब्रिटिश औपनिवेशिक दौर में खींची गई थी, जिसे अफगानिस्तान ने आज तक वैधानिक रूप से स्वीकार नहीं किया। पाकिस्तान का दावा है कि यह उसकी वैध अंतरराष्ट्रीय सीमा है, जबकि तालिबान कहता है कि यह कृत्रिम और जबरन थोपी गई सीमांकन की रेखा है, जिसने पश्तूनों को दो हिस्सों में बांट दिया। इसीलिए, जब कतर समझौते में पाकिस्तान ने कहा कि डूरंड लाइन पर सहमति बन गई है, तो तालिबान ने इसे झूठ करार दे दिया। यह केवल बयान नहीं था, यह भविष्य की अविश्वास भरी राजनीति का संकेत था। अगर सीमा की वैधता पर ही समझौता नहीं हुआ, तो शांति समझौता केवल औपचारिकता रह जाता है। इस समझौते का क्या मतलब।
तालिबान और पाकिस्तान के बीच इस दुश्मनी का दूसरा कारण टीटीपी भी है। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान। इस संगठन का गठन 2007 में पाकिस्तान के ही भीतर हुआ और इसका घोषित उद्देश्य पाकिस्तान में इस्लामिक शासन स्थापित करना है। लेकिन, आज टीटीपी, अफगान तालिबान की छतरी में आश्रय पा चुका है। पाकिस्तान बार-बार दावा करता रहा है कि टीटीपी अफगानिस्तान की धरती से संचालित होती है, वहीं से उसके आतंकी हमले प्लान होते हैं, वहीं से उसे हथियार मिलते हैं। यूनाइटेड नेशंस की रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि टीटीपी के ठिकाने पूर्वी अफगानिस्तान में हैं और उसके पास वे अमेरिकी हथियार हैं, जो 2021 में अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना वापसी के वक्त पीछे छोड़ गई थी।
इन हथियारों ने टीटीपी को घातक रूप से सशक्त बना दिया है। पाकिस्तान के रक्षा मंत्रालय के अनुसार, 2024 में 1000 से अधिक आतंकी हमले टीटीपी से जुड़े थे, जिनमें सैकड़ों सैनिक और अधिकारी मारे गए। अल जज़ीरा की रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल केवल नौ महीनों में पाकिस्तानी सुरक्षा बलों के 2400 जवान मारे जा चुके हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि पाकिस्तान अब उस दानव से जूझ रहा है, जिसे उसने खुद पैदा किया था। जिस जिहाद का इस्तेमाल उसने अफगानिस्तान में भारत और सोवियत संघ के खिलाफ किया, वही अब उसके अपने भीतर विस्फोट कर रहा है।
कतर में हुआ युद्ध विराम भी इस विस्फोट को रोकने में असमर्थ दिख रहा है। समझौते के कुछ ही दिनों बाद टीटीपी ने पाकिस्तान में एक पुलिस प्रशिक्षण स्कूल पर आत्मघाती हमला कर दिया, जिसमें 23 लोग मारे गए। इसके जवाब में पाकिस्तान ने काबुल और कंधार में हवाई हमले किए, यह दावा करते हुए कि उसने टीटीपी के ठिकानों को निशाना बनाया। इसके बाद अफगान बलों ने पलटवार किया और डूरंड लाइन के पास पाकिस्तानी चौकियों पर हमला किया। तालिबान के अनुसार, 58 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए, जबकि पाकिस्तान ने 23 मौतें स्वीकार कीं। यह पूरी श्रृंखला दिखाती है कि युद्धविराम केवल एक शब्द है, वास्तविकता नहीं।
इस संघर्ष के पीछे वैचारिक कारण भी गहरे हैं। अफगान तालिबान खुद को एक धार्मिक-सामाजिक आंदोलन के रूप में देखता है, जिसने विदेशी कब्ज़े के खिलाफ लड़ाई लड़ी। वहीं, पाकिस्तानी फौज और आईएसआई ने हमेशा इस्लाम को सत्ता के औजार के रूप में इस्तेमाल किया है। तालिबान अब पाकिस्तान को धर्म का रक्षक नहीं बल्कि इस्लाम के नाम पर दोहरा खेल खेलने वाला देश मानता है। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने खुद यह स्वीकार किया था कि उनके देश ने दशकों तक डबल स्टैंडर्ड की नीति अपनाई। एक तरफ आतंकवाद की निंदा की, और दूसरी तरफ आतंकवादियों को पाल-पोसकर रणनीतिक हथियार बनाया। अब वही नीति पाकिस्तान के लिए आत्मघाती साबित हो रही है।
तालिबान आज पाकिस्तान से न सिर्फ़ नफरत करता है, बल्कि उसे कृत्रिम राष्ट्र मानता है, जिसने ब्रिटिश औपनिवेशिक ढांचे पर अपनी पहचान बनाई। तालिबान की सोच में अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा का अस्तित्व ही औपनिवेशिक साजिश है। यही वैचारिक दरार उसे किसी भी स्थायी समझौते से दूर रखती है। डूरंड लाइन केवल भूगोल की रेखा नहीं है, यह इतिहास, अस्मिता और अधूरे राष्ट्रवाद की रेखा है, जो हर पीढ़ी में नए संघर्ष को जन्म देती है।
दूसरी ओर, पाकिस्तान अब अपनी सबसे कमजोर सामरिक स्थिति में है। उसकी अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है, डॉलर भंडार घट चुका है, आईएमएफ के सामने नतमस्तक सरकार जनता का भरोसा खो रही है और सेना पहली बार इतने खुले तौर पर आलोचना का सामना कर रही है। ऐसी स्थिति में अफगान सीमा पर तनाव उसके लिए घरेलू ध्यान भटकाने का एक साधन भी है। इस्लामाबाद अब हर बार सीमा युद्ध को राष्ट्रवाद की चादर के रूप में इस्तेमाल करता है। लेकिन समस्या यह है कि इस बार उसका दुश्मन उसकी पुरानी संपत्ति है, जो अब आदेश नहीं मानता, बल्कि पलटकर काटता है।
आसान नहीं है तालिबान को समझना
यहां पर आपको बता दें कि तालिबान को समझना इतना भी आसान नहीं है। तालिबान के भीतर भी कई धड़े हैं। हक्कानी नेटवर्क, कंधार गुट, हेरात गुट और इन सभी का पाकिस्तान के प्रति दृष्टिकोण भी एक जैसा नहीं है। हक्कानी नेटवर्क पर पाकिस्तान का प्रभाव कभी सबसे अधिक था, लेकिन अब वह धीरे-धीरे काबुल की सत्ता के भीतर स्वतंत्र भूमिका निभा रहा है। तालिबान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी का भारत आना इस बदलाव का स्पष्ट संकेत था। पाकिस्तान इस बात से बुरी तरह विचलित हुआ कि तालिबान अब दिल्ली से भी संवाद करना चाहता है। यह वही तालिबान है, जिसे कभी पाकिस्तान ने अपना प्रॉक्सी बताया था। अब वही प्रॉक्सी अंतरराष्ट्रीय वैधता की खोज में पाकिस्तान से दूरी बना रहा है। यह संकेत किसी भी दीर्घकालिक समझौते के अंत का अग्रलेख है।
काबुल और इस्लामाबाद के बीच जारी यह मूक युद्ध एक बड़े भौगोलिक सच को सामने लाता है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों अपने-अपने आतंकवाद के जाल में इतने गहरे फंसे हैं कि अब उनसे बाहर निकलने के लिए केवल बातचीत काफी नहीं होगी। पाकिस्तान जब तक टीटीपी के खिलाफ सख्त सैन्य कार्रवाई नहीं करता और तालिबान अपने इलाके से आतंक के ठिकानों को खत्म नहीं करता, तब तक हर समझौता सिर्फ़ विराम रहेगा, समाधान नहीं। लेकिन विडंबना यह है कि अगर पाकिस्तान अफगानिस्तान में फिर से हमला करता है, तो उसे खुले युद्ध का सामना करना पड़ेगा। यानी, जिस जंग से बचने के लिए वह समझौता कर रहा है, उसी जंग का बीज वह खुद बो रहा है।
इतिहास गवाह है कि अफगानिस्तान कभी बाहरी नियंत्रण में नहीं रहा। ब्रिटिशों से लेकर सोवियत संघ और अमेरिका तक, हर ताकत ने वहां अपनी नीतियां लागू करने की कोशिश की और हर बार असफल रही। अब पाकिस्तान भी उसी गलती को दोहरा रहा है। तालिबान अब अपने राष्ट्रवाद के सबसे चरम रूप में है, उसे किसी सीमा पर झुकना मंज़ूर नहीं और पाकिस्तान अब उस सांप के डर में जी रहा है, जिसे उसने सालों तक जिहाद के नाम पर दूध पिलाया था।
अगर आने वाले महीनों में यह समझौता टूटता है, तो यह किसी अचानक घटना का नतीजा नहीं होगा। यह उस लंबे इतिहास की परिणति होगी, जो 1980 से अब तक पाकिस्तानी नीतियों ने लिखा है। यह उस झूठी सामरिक गहराई का अंत होगा, जो अब आत्मघाती गहराई बन चुकी है। तालिबान अब पाकिस्तान को संरक्षक नहीं, शत्रु के रूप में देखता है। यह धारणा जब जड़ पकड़ लेती है, तब कोई भी समझौता उसे मिटा नहीं सकता।
कतर का समझौता फिलहाल दोनों देशों को सांस लेने का समय दे सकता है, पर यह सांस लंबी नहीं चलेगी। अफगानिस्तान की धरती पर टीटीपी के ठिकाने और पाकिस्तान के भीतर बढ़ती अस्थिरता इस शांति को निगल जाएंगी। इतिहास एक बार फिर साबित करेगा कि जो देश आतंक को नीति बनाता है, वह अंततः आतंक का ही शिकार होता है। पाकिस्तान के लिए तालिबान अब दुश्मन नहीं, उसकी नियति बन चुका है। यह नियति अब काबुल से इस्लामाबाद तक एक ही संदेश दे रही है, जो आग तुमने लगाई थी, अब उसी की राख तुम्हारा चेहरा ढक लेगी।