दिल्ली धमाका: ‘वाइट कॉलर टेरर मॉड्यूल’ की बर्बरता को कैसे ‘ह्यूमनाइज़’ कर रहे हैं  The Wire जैसे मीडिया संस्थान ?

आतंकवाद को भावुकता की आड़ में ढकने की कोशिश

दिल्ली हमले के आरोपियों पर 'द वायर' की रिपोर्ट पर सवाल उठ रहे हैं

NIA ने स्पष्ट कर दिया है कि दिल्ली में लाल किले के पास हुआ धमाका, सामान्य हमला नहीं बल्कि फिदायीन हमला था। यानी आई-20 कार में सवार आतंकी उमर ने जानबूझकर ख़ुद को विस्फोटक समेत उड़ा लिया था। NIA का ये स्टेटमेंट इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये कश्मीर से बाहर देश का पहला फिदायीन हमला है और ये सुसाइड ब्लास्ट किसी जाहिलअनपढ़ या बेरोज़गार आतंकी ने नहीं किया था (भटके हुए नौजवान की घिसी पिटी थ्योरी) बल्कि ये हमला एक पढ़ेलिखे  डॉक्टर ने किया है। इस हमले में 13 लोगों की मौत हुई थी, जबकि कई लोग घायल हुए।

आतंकियों को ‘पीड़ित’ दिखाने का प्रयास
जाँच के मुताबिक़ ये हमला कश्मीर से ताल्लुक़ रखने वाले डॉक्टर डॉ. मोहम्मद उमरउननबी ने उस समय किया जब जैशमोहम्मद का एक बड़ा मॉड्यूल सुरक्षा एजेंसियों के हाथों बेनकाब हो चुका था। जांच के अनुसार उमर नबी ने घबराहट में अपनी Hyundai i20 को उड़ा दिया और फिर डीएनए टेस्ट से उसकी पहचान की पुष्टि हुई।
लेकिन कुछ मीडिया संगठनों ने, खासकर The Wire ने, इन आरोपियों को जिस तरह दिखाया, उसने मीडिया की भूमिका और आतंकवाद जैसे खतरनाक और मानवताविरोधी विषयों पर चुनिंदा मीडिया घरानों की नैरेटिव गढ़ने की प्रवृत्ति को लेकर देशभर में चर्चा छेड़ दी।

पिछले कुछ हफ्तों में सुरक्षा एजेंसियों ने एक ऐसे आतंकी नेटवर्क का पर्दाफाश किया जिसमें लगभग 2900 किलो विस्फोटक, हथियार और संवेदनशील सामग्री बरामद हुई। यह नेटवर्क सिर्फ आम अपराधियों का नहीं था, बल्कि इसमें कई डॉक्टर, मेडिकल प्रोफेशनल और उच्च शिक्षा प्राप्त लोग शामिल पाए गए। इनमें कश्मीर के डॉक्टर अदील अहमद भट, मुज्म्मिल शकील, मोहम्मद आरिफ और लखनऊ की डॉक्टर शाहीन सईद जैसे नाम थे। कई आरोपियों का संबंध जमातउलमोमिनात से बताया गया, जिसका नेतृत्व मसूद अज़हर की बहन सादिया अज़हर करती है। यानी यह एक ऐसा मॉड्यूल था जो चिकित्सा, शिक्षा और प्रोफेशनल प्रतिष्ठा की आड़ में आतंक के बड़े नेटवर्क को आगे बढ़ा रहा था।

लेकिन ठीक इसी दौरान The Wire ने 13 नवंबर को एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें इन आरोपियों को ऐसे दिखाया गया जैसे ये आतंकी, ‘धर्मांध’ न होकर किसी सामाजिक अन्याय के शिकार हों। इस पूरे लेख कामूलआतंकवाद नहीं, बल्कि आरोपियों की पारिवारिक दिक्कतें, उनके आर्थिक संघर्ष और भावनात्मक पहलू थे। लेख में उमर नबी के पिता और रिश्तेदारों से हुई बातचीत भी छापी गई।जिसमें उमर की तंगहाली, फटे कपड़े पहन कर कॉलेज जाने की मजबूरी, पढ़ाई में उसकी मेहनत लगन और परिवार के लिए वो कितना ज़िम्मेदार था ? जैसी सकारात्मक बातें बताईं गईं। अब सवाल ये है किक्या एक आतंकवादी की गरीबी या उसकी व्यक्तिगत उपलब्धियों से उसके अपराध की गंभीरता कम हो जाएगी? क्या आतंकवाद के प्रति आम देशवासियों की चिंताएं खत्म हो जाएंगी?

‘भावुकता’ की आड़ में आतंकवाद के खतरे को कमतर दिखाने का प्रयास?

The Wire के इस लेख में बारबार यह भी संकेत दिया गया कि उमर के हमले में शामिल होने को लेकर पुख्ता सबूत नहीं है, संशय बरकरार है। जबकि जांच एजेंसियों ने इस पूरे नेटवर्क को न सिर्फ एक्सपोज़ किया है, बल्कि फोरेंसिक सबूतों का हवाला भी दिया है, फिर चाहे वो कार से बरामद हुए शव का उमर की मां के डीएनए से मैच होना हो, या फिर मॉड्यूल से बरामद हुए हथियारों और विस्फोटकों का पूरा रिकॉर्ड सामने रखना हो।
ज़ाहिर है इस तरह की रिपोर्टिंग न सिर्फ सुरक्षा एजेंसियों की कार्रवाई को लेकर  आम लोगों के मन में शंका पैदा होती है, बल्कि आतंक के असली रूप से ध्यान भी भटकाती है।

बहस का बड़ा हिस्सा इसी बात पर केंद्रित है कि क्या उच्च शिक्षा और मेधावी होना किसी व्यक्ति के निर्दोष होने का प्रमाण माना जा सकता है? सुरक्षा विशेषज्ञ तो साफ़ कह रहे हैं किये मामला इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि कट्टरपंथ किसी वर्ग, पेशे या शिक्षा से बंधा हुआ नहीं होता।  डॉक्टरों और प्रोफेशनल्स का एक आतंकी नेटवर्क का हिस्सा होना इस बात का साफ़ संकेत है किरैडिकलाइजेशनकहीं भी पनप सकता हैक्लासरूम में भी, अस्पतालों में भी और विश्वविद्यालयों में भी। ऐसी स्थिति में किसी आरोपी के घर की आर्थिक तंगी या उसकी पढ़ाई के संघर्ष को केंद्र में रखकर रिपोर्टिंग करनाआतंकवाद के असली खतरे को लेकर समाज में भ्रम पैदा करने से ज्यादा कुछ नहीं है।

पीड़ित/भावुक नैरेटिव से नहीं ढकी जा सकती आतंकवाद की बर्बरता

The Wire की रिपोर्टिंग ने आरोपियों के परिवारों की कठिनाइयों से लेकर उनके धार्मिक होने, उनकी बहन की शादी टल जाने या घर में पुलिस के आनेजाने से जीवन अस्तव्यस्त होने जैसे मानवीय पहलुओं को प्रमुखता दी है। जबकि इस पूरे प्रकरण का सबसे बड़ा पहलू है,  “13 निर्दोष लोगों की मौत, दिल्ली में हुआ बड़ा फिदायीन धमाका और एक भयानक आतंकी मॉड्यूल का खुलासा।लेकिन इस पहलू को पीछे धकेल दिया गया। अब द वायर के इस लेख पर लोग सवाल उठा रहे हैं कि ये मीडिया संस्थान का ये दृष्टिकोण पीड़ितों के दर्द और देश की सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे को पीछे छोड़कर आरोपियों कीमानवीय कहानीको आगे ला रहा है। इसकी गंभीरता को भावनात्मक पहलू की आड़ में ढकने का प्रयास कर रहा है।

यही कारण है कि अब लोग इस लेख कोमीडिया नैरेटिवका पैटर्न बता रहे हैं। विरोधियों का तर्क है कि यह पहली बार नहीं है जब The Wire या ऐसे ही अन्य प्लेटफॉर्म्स ने आरोपियों को भावुकता का मुलम्मा चढ़ाकर पेश किया हो।
दरअसल ये रिपोर्टिंग का ऐसा तरीका है जिसमें राष्ट्रविरोधी हिंसा के पीछे खड़े लोगों कोसिस्टम का पीड़ित’, ‘सताए हुए लोगबता दिया जाता है, जबकि असल पीड़ित वे लोग होते हैं जिन्होंने अपने परिवार के लोगों को खोया है या जिनकी ज़िंदगियाँ आतंकवाद ने बर्बाद कर दी हैं।

सुरक्षा एजेंसियों और विशेषज्ञों का कहना है कि एक ऐसे माहौल में, जहाँ आतंकी मॉड्यूल उच्च शिक्षित और पेशेवर बैकग्राउंड से निकल रहे हों, मीडिया की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। रिपोर्टिंग तथ्य आधारित, संवेदनशील और स्पष्ट होनी चाहिए ताकि समाज में कोई भी भ्रम या सहानुभूतिआधारित नैरेटिव आतंक के असली खतरे को कमजोर न करे। आतंकवाद कोभावुक कहानीमें बदल देना उन परिवारों के साथ अन्याय है जिनके प्रियजन इस धमाके में मारे गए।

आख़िरकारआतंकवाद की बर्बरता को किसी भी भावुक नैरेटिव से ढंका नहीं जा सकता। आरोपी परिवारों की पीड़ा हो सकती है, लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि आतंक किसी के संघर्ष या गरीबी से जन्म नहीं लेता, बल्कि एक खतरनाक विचारधारा से जन्म लेता है। और किसी भी लोकतंत्र में मीडिया की पहली जिम्मेदारी यह होनी चाहिए कि वह उस विचारधारा को चुनौती दे, न कि उसे मानवीय चेहरा देकर बच निकलने का मौका दे

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