जन्मदिवस विशेष: नाभा जेल में नेहरू की बदबूदार कोठरी और बाहर निकलने के लिए अंग्रेजों को दिया गया ‘वचनपत्र’v

कालापानी की सजा काटने वाले सावरकर को कांग्रेस माफीवीर बताती है, लेकिन नेहरू से जुड़े इतिहास के इस हिस्से पर खामोश रह जाती है

नेहरू 14 दिनों में ही नाभा जेल से निकल आए थेन

नाभा जेल से निकलने के लिए नेहरू ने बॉण्ड भरा था कि वो फिर कभी नाभा नहीं लौटेंगे

ऐसे समय में जबकि अपने राष्ट्र नायकों को लेकर भारत में राजनीतिक बहसें तेज़ हो रही हैं,  विचारधाराओं की लड़ाई भी पहले से ज़्यादा गहरी हो गई हैएक नाम बारबार सामने आता हैविनायक दामोदर सावरकर, जिन्हें करोड़ों लोग वीर सावरकर कहते हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि आज़ादी की लड़ाई में उनके विशाल योगदान के बावजूद, उन्हें भारतीय इतिहास में सबसे ज़्यादा गलत ढंग से पेश किया गया।

दशकों तक कांग्रेस ने न केवल सावरकर की उपेक्षा की, बल्कि उनके खिलाफ झूठे आरोपों का माहौल भी बनाया। एक महान क्रांतिकारी को बारबार ऐसे दिखाया गया जैसे वह कोई अपराधी हों। यह विरोध और भी साफ़ दिखता है जब हम देखते हैं कि कांग्रेस ने कैसे जवाहरलाल नेहरू के महिमामंडन में कोई कसर नहीं छोड़ीवही नेहरू, जो नाभा जेल में सिर्फ़ दो हफ्ते टिक पाए, जबकि सावरकर ने अंडमान की सेलुलर जेल में 11 साल का नर्कयातनाएं झेला, लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व के लिए नेहरू नायक हैं, जबकि सावरकरगद्दार

आज़ादी के बाद कांग्रेस सरकारें शिक्षा, कला और इतिहाससभी जगह अपना असर रखती थीं, लेकिन सावरकर की राष्ट्रवादी सोच कांग्रेस को कभी भी रास नहीं आई।
शायद इसीलिए उनके खिलाफ एक संगठित अभियान शुरू हुआ।

कांग्रेस नेताओं ने सावरकर को बारबार कभीब्रिटिशों का गुलामकहा तो कभीऔपनिवेशिक वफादार। इसके अलावागद्दार” “माफीवीरजैसे नामों से भी संबोधित किया गया।

कई जगहों पर तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने सावरकर की मूर्तियों पर चप्पलें फेंकीं, उन पर  काला रंग पोता, और एक राष्ट्रनायक का खुलेआम अपमान कियाऐसा अपमान किसी और राष्ट्रीय नेता के साथ कभी नहीं हुआ।

उनका आधार एक ही थासावरकर कीदया याचिकाएँ
लेकिन कांग्रेस ये कभी नहीं बताती कि नेहरू ने खुद एकबॉन्डपर हस्ताक्षर कर अंग्रेजों को भरोसा दिया था। अगर यही काम कोई गैरकांग्रेस नेता करता, तो उसे आज तकदेशद्रोहीकहा जाता।

बात 1923 की हैपंजाब में स्वतंत्रता की लड़ाई तेज़ हो रही थी। नेहरू ने जब पंजाब जाने की कोशिश की तो नाभा रियासत में प्रवेश करने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, जहां उन्हें दो साल की सज़ा सुनाई गई थी। लेकिन वे मुश्किल से 14 दिन ही जेल में टिक पाए।

ऐतिहासिक दस्तावेज़ और नेहरू की आत्मकथा दोनों बताते हैं:

विख्यात इतिहासकार प्रो. चमन लाल ने इसे दस्तावेजों के साथ प्रमाणित किया है।
वे बताते हैं कि नेहरू को पहले जैतू की पुलिस कोठरी में रखा गया था, फिर नाभा जेल भेज दिया गया। बाद में जब ख़ुद उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने वायसराय तक अपना निवेदन पहुँचाया, तो अचानक सब बदल गया
नेहरू को नए कपड़े दे दिए गए। आम कैदियों से अलग अच्छा खाना दिया गया।नहानेधोने की बेहतर व्यवस्था दी गई साथ ही बाकी कैदियों की तुलना में उन्हें विशेष सुविधाएँ दी गईं।

नाभा जेल में नेहरू के साथ बंदी रहे के. संतानम ने भी लिखा है कि नेहरू ने इसके लिए एकबॉन्डपर हस्ताक्षर किए थे।
नेहरू ने अपनी आत्मकथा में भी इसे स्वीकार किया है।

अब जरा तुलना कीजिए

एक तरफ़ नेहरू थेजिन्होने नाभा जेल में सामान्य कैदियों वाली जिन्दगी से बचने के लिए 14 दिन में ही लिखित बॉन्ड पर दस्तख़त कर दिए। अंग्रेजों से वादा किया कि वो फिर कभी इधर नहीं आएंगे।
दूसरी तरफ़ सावरकर हैंजिन्होने 11 साल कालापानी की यातना भरी सजा काटी, दोदो आजीवन कारावास की सजा भुगती और फिर भी अडिग बने रहे।

अंडमान की सेलुलर जेल कोई साधारण जेल नहीं थी।
वह एक यातना गृह था, जहां अंग्रेज़ अपने साम्राज्य के लिए सबसे ख़तरनाक माने जाने वाले लोगों को ही रखते थे।

नेहरू को नाभा जेल में जहां सामान्य सुविधाएं प्राप्त थीं,

 जबकि, सावरकर को सेलुलर जेल में जंजीरों में बाँधा गया
 दिन में उन्हें कई बार कोड़े मारे जाते।महीनों एकांत में रखा गया
 नारियल की रस्सी बनाने का काम करवाया गया, ये करते करते उनके हाथों से खून निकलने लगता, लेकिन उसके बावजूद उनसे रस्सियां घिसवाई गईं
 उन्हें कोल्हू में जोत दिया जाता, जहां वो घंटों तेल निकालने के लिए बैलों की तरह जुटे रहते
 खाने में उन्हें कीड़ों और कंकड़पत्थरों से भरा खाना मिलता
18–18
महीने बाद एक चिट्ठी लिखने की इजाज़त मिलती थी
 उनकी कविताएँ दीवारों से मिटा दी जाती थीं ताकि उनका मनोबल टूटे

लेकिन सावरकर कभी नहीं टूटे।
उन्होंने अपना मानसिक संतुलन, विचार और साहससब संभाले रखा।
उनकी याचिकाएँ आत्मसमर्पण ननहीं थीं, बल्कि एक राजनीतिक रणनीति थींताकि वो अपनी और अपने साथियों की रिहाई करवा सकें,  बाहर निकल कर अपनी गतिविधियां जारी रख सकें।

ब्रिटिश उनसे डरते थेक्योंकि वे विचारों से लड़ते थे, हिंसा से नहीं।

बाद में रत्नागिरी जेल में भी उन पर कड़े प्रतिबंध लगे रहे, लेकिन वे लिखते रहे, समाज सुधार करते रहे, और राष्ट्र के लिए काम करते रहे।

अब फिर वही सीधा प्रश्न आता है।
आख़िर देश में कितने कांग्रेसी नेता सावरकर की यातना का एक प्रतिशत भी सह पाए?

कैद से पहले ही सावरकर अभिनव भारत के संस्थापक थे, पूर्ण स्वराज के सबसे पहले समर्थकों में थे, लंदन में भारतीय छात्रों को संगठित कर रहे थे, ऐसी किताबें लिख रहे थे जो पूरे देश में क्रांतिकारियों को प्रेरित कर रही थीं साथ ही हिंदू राष्ट्रवाद की वैचारिक नींव को आकार दे रहे थे।
आज भी सावरकर को समझना आसान नहीं है। उनकी आलोचना करना सरल है, लेकिन उनके बलिदान की गहराई समझने के लिए ईमानदारी चाहिएजो कांग्रेस ने कभी नहीं दिखाई।

नेहरू, जिन्होंने दो हफ्तों में ब्रिटिशों के बॉन्ड पर हस्ताक्षर किए, उन्हें राष्ट्रीय आइकन बनाया गया और सावरकर, जिन्होंने 11 साल की नर्क जैसी कैद झेली, उन्हेंगद्दारऔर माफीवीर कहा गया।

यह उलटी नैतिकता असल में कांग्रेस की सोच को दिखाती है।

इतिहास अब धीरेधीरे खुद को सुधार रहा है और देश उस व्यक्ति को फिर से पहचान रहा है,
जिसने सब कुछ भारत को समर्पित कर दियाबिना किसी पद, शक्ति या सम्मान की चाहत के, लेकिन वो सम्मान, शक्ति या पद मिला नेहरू को और बाद में पीढ़ी दर पीढ़ी उनके परिवार को।

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