बेतिया की तपती दोपहर में, जब हवा में चुनावी उत्साह की गर्माहट और जनता के चेहरों पर परिवर्तन की आस्था झलक रही थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के राजनीतिक इतिहास में एक नई पंक्ति जोड़ दी, यह चुनाव किसी व्यक्ति का नहीं, बिहार की जनता की प्रतिष्ठा का चुनाव है। यह वाक्य केवल एक चुनावी जुमला नहीं था, बल्कि एक वैचारिक घोषणा थी। बिहार की आत्मा में गूंजती हुई एक चेतावनी कि राज्य में अब ‘कट्टा राज’ नहीं, बल्कि ‘जनराज’ का युग आना चाहिए।
प्रधानमंत्री मोदी ने बेतिया में जो कहा, वह मात्र चुनाव प्रचार नहीं था। वह एक व्यापक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का हिंस्सा था, जिसमें बिहार के राजनीतिक संक्रमण, विकास की आकांक्षा और सामाजिक अस्मिता तीनों को एक साथ जोड़ा गया। उन्होंने कहा कि यह चुनाव मोदी या नीतीश का नहीं, बिहार की माताओं, बेटियों और युवाओं का चुनाव है। पीएम मोदी का यह बयान सीधा उस वर्ग को संबोधित था जो बीते तीन दशकों में बिहार के हर बदलाव की धुरी बना, महिलाएं, पिछड़ा वर्ग और युवा।
बिहार की राजनीति का यह दौर, एक प्रतीकात्मक संग्राम
प्रधानमंत्री मोदी का बेतिया का भाषण और सीतामढ़ी में उनकी बाद की रैली दोनों ने मिलकर इस चुनाव को एक वैचारिक युद्ध में बदल दिया। यह संघर्ष केवल सीटों का नहीं, बल्कि राजनीतिक सोच के दो छोरों का टकराव है। एक ओर वह गठबंधन है, जिसने कभी बिहार को अपराध, जातीय हिंसा और पलायन की प्रयोगशाला बना दिया था यानी आरजेडी और कांग्रेस। दूसरी ओर वह नेतृत्व है जिसने जंगलराज से सुशासन तक की यात्रा में बिहार को विकास की पटरी पर चढ़ाने की कोशिश की यानी एनडीए।
मोदी की शैली में जो बात सबसे अलग दिखी, वह यह थी कि उन्होंने इस चुनाव को ‘वोट बनाम विकास’ की बजाय ‘सम्मान बनाम शर्म’ के फ्रेम में रखा। उन्होंने कहा कि बिहार की जनता अब यह तय करेगी कि राज्य की पहचान कट्टा और रंगदारी से होगी या कंप्यूटर और स्टार्टअप से। यह प्रतीकात्मक विरोधाभास बिहार के सामाजिक मानस में गहराई तक उतरता है, क्योंकि इस राज्य ने नब्बे के दशक में वह दौर देखा है, जब गोली और गुंडई ही राजनीति का परिचय हुआ करती थी।
बिहार: जो अब खुद को बदलना चाहता है
मोदी का भाषण दरअसल उस मानसिक क्रांति को राजनीतिक शब्द दे रहा था जो पिछले एक दशक में बिहार के गांव-गांव में पनपी है। अब बिहार की जनता यह मान चुकी है कि जातिवाद से न तो सड़क बनती है और न ही रोजगार मिलता है। प्रधानमंत्री ने जब कहा कि यह चुनाव बिहार की जनता की प्रतिष्ठा का है, तो वह जनता की इसी जागरूकता का राजनीतिक अनुवाद था।
बेतिया की सभा में मोदी ने बड़े आंकड़ों से जनता को यह दिखाया कि डबल इंजन सरकार ने केवल योजनाएं नहीं बनाईं, बल्कि जमीन पर बदले हुए हालात पैदा किए। उन्होंने बताया कि सिर्फ एक महीने में 11 लाख मोबाइल बिकना यह बताता है कि बिहार की क्रयशक्ति और डिजिटल पहुंच किस तरह बढ़ी है।
यह आंकड़ा अपने आप में एक राजनीतिक कथा बन गया, क्योंकि यह दर्शाता है कि बिहार अब गरीबी के प्रतीक से उपभोक्ता शक्ति का प्रतीक बन रहा है। पीएम मोदी का यह उदाहरण तकनीकी प्रगति के साथ-साथ सामाजिक आत्मविश्वास का भी प्रमाण था।
छठ, सीता और सांस्कृतिक आत्मगौरव
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण को जब संस्कृति से जोड़ा, तब यह केवल चुनावी रणनीति नहीं थी, बल्कि भारतीयता के पुनर्पुष्टि का वक्तव्य था। उन्होंने कहा कि सीतामढ़ी की धरती माता सीता का मायका है और अब जब अयोध्या में श्रीराम का मंदिर बन चुका है, तो माता के मायके की भव्यता भी दुनिया देखेगी। उनका यह वाक्य उस वैचारिक परियोजना का हिस्सा है, जो भारत की सांस्कृतिक धारा को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास करती है।
पीएम मोदी ने यह भी याद दिलाया कि कांग्रेस और आरजेडी के नेता छठ महापर्व को ड्रामा और नौटंकी कहते थे। यह हमला प्रतीकात्मक रूप से उन राजनीतिक विचारधाराओं पर था जो भारतीय संस्कृति को आधुनिकता के रास्ते में बाधा मानती हैं। प्रधानमंत्री का यह कथन बिहार की माताओं और बहनों के मन में सीधे उतर गया, क्योंकि छठ केवल एक पर्व नहीं, बल्कि बिहार की आस्था और आत्म-सम्मान का जीवंत प्रतीक है। जब मोदी ने कहा कि छठ हमारी माताओं की तपस्या है, उसका अपमान करने वालों को जनता जवाब देगी, तो यह सिर्फ एक धार्मिक बयान नहीं था — यह एक भावनात्मक राजनीतिक पुनरुत्थान था।
‘जंगलराज’ बनाम ‘सुशासन’: बिहार की याद और भविष्य
प्रधानमंत्री ने जब कहा कि पहले बूथ लूटे जाते थे, गोलियां चलती थीं, खून की नदियां बहाई जाती थीं तो वह इतिहास का स्मरण नहीं, बल्कि जनता की चेतना को झकझोरने वाला राजनीतिक स्मारक था। बिहार की पीढ़ियां अभी भी उन वर्षों की हिंसा, भय और भ्रष्टाचार की कहानियां अपने परिवारों से सुनती हैं।
पीएम मोदी ने इस ऐतिहासिक स्मृति को चुनावी मुद्दा बनाकर यह सुनिश्चित किया कि वोट केवल विकास के लिए नहीं, बल्कि भयमुक्त जीवन के लिए पड़े। उन्होंने स्पष्ट कहा कि अब बिहार में हैंड्स-अप कहने वालों की जगह नहीं, अब बच्चों के हाथ में किताबें, लैपटॉप और बैट होंगे।
यह वाक्य उनकी विकास नीति का सारांश है, सुरक्षा और शिक्षा, दोनों एक साथ। कट्टा और कंप्यूटर का यह विरोध केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि उस गहरी सामाजिक विभाजन रेखा का प्रतीक है जिसके एक छोर पर अराजकता है, और दूसरे पर अवसर।
डबल इंजन का विकास, केवल वादा नहीं, परिणाम
पीएम मोदी ने अपने भाषण में डबल इंजन सरकार का जो उल्लेख किया, वह इस बात का संकेत था कि केंद्र और राज्य के बीच तालमेल से बिहार के विकास का ढांचा पहले से कहीं तेज़ हुआ है। उन्होंने कहा कि पहले चरण में मतदान ने जंगलराज वालों को “65 वोल्ट का झटका” दिया है। यह लाइन न केवल राजनीतिक व्यंग्य थी, बल्कि उस आत्मविश्वास का प्रदर्शन भी कि जनता अब विकास को एक स्थायी मूल्य के रूप में स्वीकार कर चुकी है।
उन्होंने बताया कि कैसे रीगा चीनी मिल फिर से शुरू हुई, नई फैक्ट्रियों के प्रस्ताव आए हैं, सड़कें और रेलवे नेटवर्क मजबूत हुए हैं, और अब निवेशक बिहार में लौट रहे हैं। यह बयान उस ऐतिहासिक दोष पर भी प्रहार था, जब आरजेडी-कांग्रेस के शासन में उद्योग पलायन कर गए थे और बेरोजगारी बिहार की पहचान बन गई थी।
आर्थिक दृष्टि से नई बिहार कथा
मोदी का भाषण इस बात का भी प्रमाण था कि बिहार अब राजनीतिक बदलाव से आगे बढ़कर आर्थिक आत्मनिर्भरता की कहानी लिखना चाहता है। उन्होंने गन्ना किसानों की बात करते हुए इथेनॉल उत्पादन को नई दिशा बताया — यह बयान न केवल कृषि नीति से जुड़ा था, बल्कि ग्रामीण उद्योगों को आत्मनिर्भर भारत मिशन से जोड़ने का संकेत भी था।
प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि मोदी की गारंटी मतलब गारंटी पूरी होने की गारंटी। यह वाक्य भारतीय राजनीति के एक नए विश्वास-तंत्र की नींव रखता है, जहां वादा केवल भाषण नहीं, बल्कि कार्यों में अनुवादित हो।
बिहार का नया सामाजिक समीकरण
पीएम मोदी ने अपने भाषण में विशेष रूप से यह कहा कि बिहार ने देश को सामाजिक न्याय की परिभाषा दी है। वास्तव में प्रधानमंत्री का यह वाक्य गहरा राजनीतिक अर्थ रखता है। सामाजिक न्याय की राजनीति, जो पहले आरजेडी का नारा हुआ करती थी, अब भाजपा-नीतीश गठबंधन के वैचारिक ढांचे में समाहित होती दिख रही है। मोदी ने यह स्पष्ट किया कि एनडीए की नीति सबका साथ, सबका विकास केवल नारा नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन का राष्ट्रीय फार्मूला है।
यही कारण है कि उन्होंने पिछड़ों, अति-पिछड़ों और दलित वर्ग को संबोधित करते हुए कहा कि अब विकास की धारा हर घर तक पहुंचेगी। यह उस मतदाता समूह को आश्वस्त करने का प्रयास था जिसे कभी आरजेडी अपनी स्थायी वोट-बैंक मानती थी। लेकिन अब वही वर्ग मोदी के जनराज की ओर झुकता दिख रहा है।
बिहार का यह चुनाव केवल वोट नहीं, दृष्टि का निर्णय
बेतिया और सीतामढ़ी की भीड़ में गूंजती मोदी की आवाज़ केवल एक नेता की नहीं थी, वह एक ऐसी जनता की थी जिसने अपने अतीत से सबक लिया है और अब अपने भविष्य की पटकथा खुद लिखना चाहती है। यह चुनाव वास्तव में जंगलराज बनाम जनराज का निर्णायक क्षण है। एक ऐसा पल जब बिहार तय करेगा कि वह फिर से भय और भ्रष्टाचार की गलियों में लौटेगा या विकास, संस्कृति और सम्मान की राह पर चलेगा।
प्रधानमंत्री मोदी का यह अभियान इस चुनाव को केवल राजनीतिक स्पर्धा नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय पुनर्जागरण की अभिव्यक्ति भी बना रहा है। उन्होंने जो कहा, वह केवल बिहार के लिए नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए संदेश था कि भारत का हर कोना अब यह तय कर चुका है: कट्टा नहीं, कंप्यूटर चाहिए, रंगदारी नहीं, रोजगार चाहिए और जाति नहीं, जनहित चाहिए। अब जंगलराज नहीं, जनराज चलेगा।
