कांग्रेस के नेता देश ही नहीं विदेशों में भी जाकर लोकतंत्र बचाने की दुहाई देते रहते हैं। लेकिन जब बारी आंतरिक लोकतंत्र की आती है तो वही पार्टी इस कसौटी में खुद बुरी तरह असफल साबित हो जाती है। दशकों से या शायद कांग्रेस के जन्म के साथ ही– जो भी नेता पार्टी के भीतर स्वतंत्र विचार रखते हैं या सोचने–कहने की हिम्मत जुटाते हैं, उन्हें या तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है या फिर शांत करा दिया जाता है। ज्यादा पीछे न जाएं तो हाल–फिलहाल में ही कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आज़ाद जैसे कई उदाहरण हैं। वजह भी साफ है– दरअसल माना जाता है कि कांग्रेस में गांधी परिवार की बात ही संविधान है, वही क़ानून है। ऊपर से मिले निर्देशों के अनुसार ही चलना होता है, बाकी सबको चुप रहना होता है।
सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठानें हों या ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सेनाओं के साथ एकजुटता से खड़े होने की जगह “कितने राफेल गिरे? ” का प्रश्न उठाना हो, या फिर देश की उपलब्धियों को कमतर कर के दिखाना हो– इसे कांग्रेस ने अपना अलिखित नियम बना लिया है। वो भी इसलिए क्योंकि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं और कांग्रेस के लिए मोदी का हर कदम गलत है। बीजेपी की हर नीति खराब है, चाहे उससे देश का थोड़ा बहुत भला ही क्यों न होता हो।
लिहाजा कई बार कांग्रेस के नेता, प्रवक्ता ऐसे विषयों पर भी राष्ट्रभावना के साथ खड़े होने की जगह ऐसे बयान देते हैं– जो भारत से ज्यादा पाकिस्तान में शेयर किए जाते हैं।
शशि थरूर बीते कुछ वक्त से कांग्रेस के इस अघोषित नियम को मानने से इनकार कर रहे थे, लिहाजा अब उन्हें भी निशाने पर ले लिया गया है, भाजपाइयों के द्वारा नहीं, बल्कि उनकी अपनी ही पार्टी के सहयोगियों, सहकर्मियों के द्वारा।
शशि थरूर सिर्फ इसलिए एक ख़राब कांग्रेसी हैं– क्योंकि उन्होंने नियमों से उलट जाकर प्रधानमंत्री मोदी के एक भाषण की ज़रा सी तारीफ़ कर दी थी।
हालांकि थरूर के साथ ये कोई पहला मामला नहीं है,“ऑपरेशन सिंदूर” के दौरान भी उन्हें अपनी ही पार्टी के हमलों का सामना करना पड़ा था। यही नहीं बीते हफ्ते जब उन्होंने भाजपा के वयोवृद्ध नेता और भारत रत्न लालकृष्ण आडवाणी को जन्मदिन की शुभकामनाएँ दीं, तब भी कांग्रेसी हाथ धो कर उनके पीछे पड़ गए और अब वो एक बार फिर कांग्रेसियों के निशाने पर हैं।
कांग्रेस वैसे तो खुद को बहस और विचार–विमर्श वाली पार्टी बताती है, लेकिन इस बाहरी आवरण के भीतर हमेशा एक अलग और कहीं ज्यादा कड़वी सच्चाई दिखाई देती है। कांग्रेस ऐसी पार्टी बनती जा रही है, जहां स्वतंत्र राय को बगावत है और देशहित के मुद्दों पर चर्चा पार्टी से गद्दारी।
सवाल ये है—क्या कांग्रेस में किसी नेता को प्रधानमंत्री मोदी की किसी बात की तारीफ़ करने की मनाही है? क्या किसी अच्छी सरकारी नीति को स्वीकार करना भी अपराध है? क्या कोई ऐसा लिखित नियम है कि हर कांग्रेस नेता या सांसद को बीजेपी के हर छोटे–बड़े कदम का विरोध ही करना है?
वैसे कांग्रेस का इतिहास बताता है कि जो नेता पार्टी लाइन से थोड़ा भी अलग चलते हैं, उन्हें या तो किनारे लगा दिया जाता है, या फिर वो सार्वजनिक रूप से अपमानित होते हैं। गांधी परिवार के वफादार नेता ऐसे लोगों पर सियासी हमले करने, अफवाहें फैलाने और उन्हें अपमानित करने के लिए आगे कर दिए जाते हैं।
कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आज़ाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर हिमंता बिस्वा सरमा—कांग्रेस के भीतर ये लिस्ट काफी लंबी है। इन सभी क़द्दावर नेताओं के पार्टी छोड़ने को कांग्रेस के भीतर चेतावनी की तरह लिया जाना चाहिए था, लेकिन इसके उलट कांग्रेस ने इस शिकंजे को और कस दिया।
दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रतिष्ठित समाचार समूह इंडियन एक्सप्रेस के संस्थापक रामनाथ गोयनका से जुड़े एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे, जहां उन्होने एक भाषण दिया था। थरूर ने उनकी इस स्पीच एक महत्वपूर्ण आर्थिक और सांस्कृतिक संदेश बताते हुए इसकी तारीफ़ कर दी। उन्होंने PM की इस बात को लेकर तारीफ़ की कि भारत “केवल उभरता हुआ बाज़ार नहीं, बल्कि एक उभरता हुआ मॉडल” है। उन्होंने पीएम की उस भावनात्मक अपील की भी तारीफ़ की जिसमें PM ने भारत की सांस्कृतिक धरोहर, भाषाओं और ज्ञान–परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए 10 साल के मिशन पर जुटने की बात कही। लेकिन बस उनका इतना कहना था कि कांग्रेस के भीतर तूफान खड़ा हो गया।
पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने थरूर पर निशाना साधते हुए कहा कि “ वो भारत के बारे में कम जानते हैं” यही नहीं उन्होने तो शशि थरूर से ये भी पूछ डाला कि आख़िर वो पीएम मोदी की तारीफ़ करने के बावजूद पार्टी में क्यों हैं? उन्होंने यह तक कह दिया कि अगर मोदी की बातें अच्छी लगती हैं, तो थरूर को कांग्रेस छोड़ देनी चाहिए।
कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने तो PM के पूरे भाषण को ही खारिज कर दिया और थरूर की समझ पर सवाल उठा दिए।
यानी कांग्रेस का ‘फैमिली इकोसिस्टम’ उन्हें ये याद दिला रहा है कि थरूर मोदी की तारीफ़ नहीं कर सकते, थरूर को पार्टी लाइन में रहना होगा (जो कि स्वाभाविक रूप से मोदी विरोधी है)। नहीं तो ये इकोसिस्टम थरूर को उनकी “औकात” याद दिलाने में समय नहीं लगाएगा
वैसे यह पहली बार नहीं है– जब थरूर अपने ही साथियों के निशाने पर आए हों। ऑपरेशन सिंदूर के बारे में दुनिया को समझाने के लिए जब विदेशों में प्रतिनिधिमंडल भेजे गए तो उनमें से एक का नेतृत्व शशि थरूर को सौंपा गया था, उन्होने राष्ट्रहित में वो भूमिका निभाई भी अच्छी तरह से थी। तब भी कांग्रेस के भीतर उन पर “सरकार के साथ मिले होने ” का आरोप लगा था। उन पर गर्व करने की जगह कांग्रेस में उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाए गए थे।
बीते दिनों जब उन्होंने BJP के वरिष्ठ नेता आडवाणी को जन्मदिन की बधाई दी—जो किसी भी सभ्य नेता का सामान्य व्यवहार होता है—तब भी कांग्रेस के अंदर से हमला हुआ।
और अब सिर्फ़ पीएम के भाषण की तारीफ़ करना भी उनके लिए भारी पड़ रहा है।
यह पैटर्न बताता है कि कांग्रेस स्वतंत्र सोच, बौद्धिक ईमानदारी या राष्ट्र–प्रथम की सोच को बर्दाश्त करने में पीछे छूट रही है।
कांग्रेस लोकतांत्रिक आदर्शों की बात करती है, लेकिन उसका व्यवहार उसी तानाशाही तंत्र जैसा है जिसका आरोप वह अक्सर भाजपा या दूसरी पार्टियों पर लगाती है।
लोकतंत्र की बात करने वाली कांग्रेस को पार्टी के अंदर परिवार के आज्ञाकारी ही क्यों चाहिए?
कांग्रेस उन सभी पर अपना “फतवा” जारी कर देती है जो प्रधानमंत्री या सरकार की किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर तारीफ़ करें।
आख़िर कांग्रेस लोकतंत्र बचाने की नैतिकता का दावा कैसे कर सकती है, जब वह अपने ही नेताओं की आवाज़ दबाती है? शशि थरूर वाला मामला सिर्फ़ एक आंतरिक विवाद नहीं है। यह कांग्रेस के भीतर फैलते जा रहे लोकतांत्रिक वैक्यूम का प्रमाण है।
जहां राष्ट्र से ऊपर परिवार है, और जो नेता इससे अलग सोचता है—उसे निशाना बनाया जाएगा, अलग–थलग किया जाएगा और चुप करा दिया जाएगा।
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