फिल्म ‘धुरंधर’ को लेकर जिस तरह का वैचारिक और आलोचनात्मक माहौल बनाया गया, उसके बीच दर्शकों की प्रतिक्रिया ने साफ संकेत दे दिया कि अब हिंदी सिनेमा को देखने और परखने का नजरिया बदल चुका है। यह फिल्म किसी एक वर्ग को साधने या किसी तय ढांचे में फिट होने की कोशिश नहीं करती, बल्कि सीधे उस सच से टकराती है, जिसे लंबे समय तक पर्दे पर या तो अनदेखा किया गया या आधा-अधूरा दिखाया गया।
‘धुरंधर’ की वैचारिक जमीन अचानक तैयार नहीं हुई। इसकी पृष्ठभूमि पहले ही आर्टिकल 370 और ‘बारामूला’ जैसी फिल्मों के जरिए बन चुकी थी। इन फिल्मों ने दर्शकों को यह भरोसा दिया कि राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद और कश्मीर जैसे संवेदनशील विषयों को भी बिना झिझक, स्पष्टता और तथ्यात्मक साहस के साथ दिखाया जा सकता है। ‘धुरंधर’ उसी क्रम की अगली कड़ी के रूप में सामने आती है।
फिल्म की खास बात यह है कि यह इस चिंता में नहीं उलझती कि कहानी किसे पसंद आएगी और किसे नहीं। निर्देशक आदित्य धर ने दर्शकों को कमतर आंकने के बजाय उन्हें सोचने-समझने वाला मानते हुए कथा को आगे बढ़ाया है। फिल्म यह दिखाने का साहस करती है कि पाकिस्तान में बैठे आतंकी हैंडलर किस तरह भारत और भारतीय एजेंसियों को कमजोर करने की साजिशें रचते हैं और कैसे भारतीय खुफिया तंत्र उनका जवाब देता है।
जैसे ही फिल्म का कंटेंट सामने आया, एक तयशुदा इकोसिस्टम सक्रिय हुआ—आरोप, सवाल और नीयत पर संदेह खड़े किए गए। लेकिन इन तमाम कोशिशों के बीच दर्शकों ने सिनेमाघरों में पहुंचकर अपना फैसला सुना दिया। प्रतिक्रिया साफ थी—दर्शक अब उस सिनेमा को स्वीकार करने लगे हैं जो भारतीय दृष्टिकोण से कहानी कहता है, न कि केवल आयातित नैरेटिव दोहराता है।
‘धुरंधर’ यह भी साबित करती है कि आज का दर्शक केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि संदर्भ और सच्चाई भी चाहता है। आतंकवाद, आर्टिकल 370 और बारामूला जैसे विषय अब वर्जित नहीं रहे। इन पर बनी फिल्मों ने दर्शकों को मानसिक रूप से तैयार किया और ‘धुरंधर’ ने उसी तैयार जमीन पर अपनी मजबूत कहानी खड़ी की।
कुल मिलाकर, ‘धुरंधर’ केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि यह संकेत है कि हिंदी सिनेमा में विमर्श की दिशा बदल रही है। इकोसिस्टम चाहे जितना सक्रिय हो, अंतिम फैसला अब दर्शक कर रहे हैं—और वही इस बदलाव की सबसे बड़ी ताकत है।
