भारत–न्यूज़ीलैंड समझौता: वैश्विक व्यापार में गहरी भागीदारी की ओर कदम

वर्तमान वैश्विक व्यापार परिदृश्य को देखते हुए, जहाँ कई देश आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं और अपने घरेलू उत्पादों की रक्षा कर रहे हैं, ऐसे समय में द्विपक्षीय व्यापार समझौते समय की आवश्यकता बन गए हैं।

भारत–न्यूज़ीलैंड समझौता

भारत–न्यूज़ीलैंड समझौता

पिछले कुछ वर्षों में भारत की व्यापार नीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला है। सरकार अब वैश्विक बाज़ारों से गहराई से जुड़ने के लिए मुक्त व्यापार समझौतों (FTAs) को सक्रिय रूप से अपना रही है। केवल इसी वर्ष भारत ने तीन बड़े व्यापार समझौते पूरे किए हैं—सबसे पहले ब्रिटेन के साथ, फिर कुछ दिन पहले ओमान के साथ और अब न्यूज़ीलैंड के साथ।

वर्तमान वैश्विक व्यापार परिदृश्य को देखते हुए, जहाँ कई देश आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं और अपने घरेलू उत्पादों की रक्षा कर रहे हैं, ऐसे समय में द्विपक्षीय व्यापार समझौते समय की आवश्यकता बन गए हैं। भारत इस आवश्यकता को अच्छी तरह समझता है। इससे पहले भारत-EFTA व्यापार समझौता—जिसमें आइसलैंड, लिकटेंस्टीन, नॉर्वे और स्विट्ज़रलैंड शामिल हैं—मार्च में हस्ताक्षरित हुआ था और 1 अक्टूबर से लागू हो गया। ये समझौते यूएई और ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए समझौतों की कड़ी में हैं और भारत के व्यापार उदारीकरण की नई दिशा को दर्शाते हैं।

भारत-न्यूज़ीलैंड व्यापार समझौता विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इसके तहत भारत के सभी निर्यातों को न्यूज़ीलैंड में शुल्क-मुक्त प्रवेश मिलेगा। साथ ही आईटी सेवाओं, शिक्षा और वित्तीय सेवाओं जैसे प्रमुख क्षेत्रों में भी ठोस प्रतिबद्धताएँ तय की गई हैं। इस समझौते के तहत कुशल भारतीय पेशेवरों के लिए अस्थायी रोजगार प्रवेश वीज़ा (Temporary Employment Entry Visa) का प्रावधान भी किया गया है।

न्यूज़ीलैंड के लिए यह समझौता 70 प्रतिशत टैरिफ लाइनों पर शुल्क में छूट प्रदान करता है, जो दोनों देशों के लगभग 95 प्रतिशत द्विपक्षीय व्यापार को कवर करता है। हालांकि, भारत ने घरेलू राजनीतिक और आर्थिक संवेदनशीलताओं को ध्यान में रखते हुए डेयरी उत्पादों को बाजार पहुँच से बाहर रखा है। कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र भारत की अमेरिका जैसे देशों के साथ चल रही व्यापार वार्ताओं में भी अहम विवाद का विषय बने हुए हैं।

शुल्क में कटौती के अलावा, यह समझौता गैर-शुल्क बाधाओं को दूर करने पर भी ज़ोर देता है। इसके तहत नियामकीय सहयोग को मज़बूत करना, पारदर्शिता बढ़ाना और सीमा शुल्क, स्वच्छता तथा पादप स्वच्छता उपायों को सरल बनाना शामिल है। ये सभी कदम वास्तविक बाज़ार पहुँच सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी हैं, न कि केवल कागज़ी शुल्क कटौती तक सीमित रहने के लिए।

दोनों देशों ने निवेश सहयोग को भी गहरा करने का लक्ष्य रखा है। न्यूज़ीलैंड ने अगले 15 वर्षों में भारत में 20 अरब डॉलर के निवेश को सुगम बनाने पर सहमति जताई है, जिससे इस साझेदारी को दीर्घकालिक रणनीतिक आयाम मिलता है।

इसी क्रम में भारत इज़राइल और पेरू जैसे देशों के साथ भी ऐसे ही व्यापार समझौतों पर बातचीत कर रहा है। ये प्रयास सराहनीय हैं और भारतीय निर्यात के लिए नए बाज़ार खोलेंगे, लेकिन इन देशों की अर्थव्यवस्थाएँ अपेक्षाकृत छोटी होने के कारण कुल लाभ सीमित हो सकता है। इसलिए, भारत का ध्यान दुनिया के सबसे बड़े बाज़ारों—अमेरिका और यूरोपीय संघ—के साथ लंबे समय से लंबित व्यापार समझौतों को पूरा करने पर भी बना रहना चाहिए।

अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप के सत्ता में आने के बाद वैश्विक व्यापार का स्वरूप बदल गया है। शुल्क और व्यापार बाधाएँ अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सामान्य होती जा रही हैं। ऐसे में व्यापार का विविधीकरण इन चुनौतियों का एक महत्वपूर्ण समाधान है, जहाँ देश दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के साथ अपने व्यापारिक रिश्ते मजबूत कर रहे हैं। भारत के FTAs और द्विपक्षीय व्यापार समझौते इसी रणनीति का हिस्सा हैं।

शुरुआत में इससे भारत को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन लंबे समय में यह नीति लाभकारी साबित होगी। भारत कुछ गिने-चुने देशों पर आयात-निर्यात के लिए निर्भर नहीं रहेगा, जिससे किसी भी देश के लिए हम पर दबाव बनाना कठिन होगा। कई देशों के साथ विविध और मज़बूत व्यापार संबंध भारत की विदेश नीति को अधिक विकल्प देंगे और आने वाले समय में हमारी रणनीतिक स्वायत्तता और अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देगी।

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