बौद्धिक योद्धा डॉ. स्वराज्य प्रकाश गुप्त: इतिहास को मिथक से मुक्त करने वाला संघर्ष

डॉ. स्वराज्य प्रकाश गुप्त का जन्म 22 दिसम्बर 1931 को उत्तर प्रदेश के पवित्र नगर प्रयागराज में हुआ। प्रयाग विश्वविद्यालय, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है

इतिहास को मिथक से मुक्त करने वाला संघर्ष

इतिहास को मिथक से मुक्त करने वाला संघर्ष

हमारे देश की एक बड़ी समस्या यह रही है कि अंग्रेजों के समय में पढ़ाया गया गलत और औपनिवेशिक इतिहास आज़ादी के बाद भी बदला नहीं गया। जवाहरलाल नेहरू का यह विचार कि भारत के प्राचीन ग्रंथों में लिखा इतिहास केवल मिथक और कल्पना है, आगे चलकर एक सोच का आधार बन गया। इसी सोच के कारण वामपंथी विचारधारा का प्रभाव इतिहास से जुड़ी कई संस्थाओं पर बढ़ता चला गया। इसका नतीजा यह हुआ कि नई पीढ़ी को भी वही बदला हुआ और अधूरा इतिहास पढ़ाया जाता रहा। आज भी पाठ्यपुस्तकों में श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसी महान विभूतियों के ऐतिहासिक अस्तित्व पर सवाल उठाए जाते हैं। इससे लोगों में अपने इतिहास और संस्कृति को लेकर भ्रम बना रहता है।

इस वैचारिक वर्चस्व को जिन विद्वानों ने ठोस तर्कों, प्रमाणों और अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ चुनौती दी, उनमें डॉ. स्वराज्य प्रकाश गुप्त का नाम अग्रणी है।

प्रारंभिक जीवन और वैचारिक निर्माण

डॉ. स्वराज्य प्रकाश गुप्त का जन्म 22 दिसम्बर 1931 को उत्तर प्रदेश के पवित्र नगर प्रयागराज में हुआ। प्रयाग विश्वविद्यालय, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है, वहीं अध्ययन के दौरान उनका संघ से संपर्क हुआ। इतिहास और पुरातत्व में स्वाभाविक रुचि होने के कारण उन्होंने इसी क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त की और आगे चलकर इसे ही अपनी आजीविका तथा साधना का माध्यम बनाया।

वामपंथी वर्चस्व के बीच वैश्विक पहचान

शासकीय सेवा में रहते हुए भी, जब इतिहास और पुरातत्व के क्षेत्र पर वामपंथी प्रभुत्व, राजनीतिक विरोध और संस्थागत उपेक्षा हावी थी, तब भी डॉ. गुप्त ने अपनी प्रतिभा के बल पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विशिष्ट स्थान बनाया। दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय से कार्य आरंभ कर वे प्रयाग के पुरातत्व संग्रहालय के निदेशक बने। देश–विदेश के शीर्षस्थ इतिहासकारों और पुरातत्वविदों से उन्हें सम्मान और सान्निध्य प्राप्त हुआ।

उन्होंने आर्य आक्रमण सिद्धांत—जिसके अनुसार आर्यों ने भारत के मूल निवासियों को पराजित कर वनों और दक्षिण की ओर खदेड़ दिया—को तथ्यों के साथ पूरी तरह खारिज किया। वे ‘हड़प्पा सभ्यता’ को ‘सिंधु सभ्यता’ के बजाय ‘सरस्वती सभ्यता’ कहते थे, और इस दृष्टिकोण को व्यापक विद्वत स्वीकृति भी मिली।

भारतीय इतिहास लेखन की संस्थागत पहल

1977 में सत्ता परिवर्तन के बाद शिक्षा जगत में भारतीय दृष्टिकोण के पुनर्स्थापन की आशा जगी। इसी क्रम में डॉ. गुप्त ने देश के मूर्धन्य इतिहासकारों के साथ मिलकर ‘भारतीय पुरातत्व परिषद’ की स्थापना की। दिल्ली में परिषद का भवन और उसकी पत्रिका ‘हिस्ट्री टुडे’ उनके अथक परिश्रम का प्रतिफल थी।

दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों में प्राचीन मंदिरों के जीर्णोद्धार और उनके स्थापत्य व काल-निर्धारण के लिए सरकारों ने इसी संस्था से परामर्श लिया—यह डॉ. गुप्त की विद्वत्ता की अंतरराष्ट्रीय मान्यता का प्रमाण था।

रामजन्मभूमि आंदोलन में निर्णायक भूमिका

श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान डॉ. गुप्त की बौद्धिक क्षमता पूरे देश के सामने आई। जब वामपंथी श्रीराम को मिथक बता रहे थे और कांग्रेस मंदिर के अस्तित्व से ही इनकार कर रही थी, तब वार्ताओं में हिंदू पक्ष की बौद्धिक कमान डॉ. गुप्त के हाथ में थी। उनके तर्कों और प्रमाणों के सामने विरोधी पक्ष बार-बार असहज होता रहा।

6 दिसम्बर 1992 के बाद बाबरी ढांचे से प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के उन्होंने साहसपूर्वक चित्र लिए और तथ्यों के आधार पर न केवल देश में, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भ्रम फैलाने वालों को बेनकाब किया।

समुद्री पुरातत्व और रामसेतु विवाद

डॉ. गुप्त इतिहास लेखन और संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध सदैव अग्रिम पंक्ति में रहे। उन्होंने समुद्री पुरातत्व के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किया और इसकी एक शोध पत्रिका आरंभ की। यही शोध आगे चलकर श्रीरामसेतु विवाद के समय विश्व हिंदू परिषद के लिए मजबूत आधार बना।

एक साधक, जो स्वयं इतिहास बन गया

3 अक्टूबर 2007 को डॉ. स्वराज्य प्रकाश गुप्त का निधन हुआ। अंतिम क्षणों तक वे इतिहास के शुद्धिकरण और सत्य के अनावरण की चिंता करते रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री के. सुदर्शन का यह कथन पूर्णतः सत्य प्रतीत होता है—

“डॉ. स्वराज्य प्रकाश गुप्त इतिहास खोजते-खोजते स्वयं इतिहास बन गए।”

वे केवल एक इतिहासकार नहीं थे, बल्कि भारतीय बौद्धिक आत्मसम्मान के योद्धा थे, जिन्होंने प्रमाण, परिश्रम और साहस के बल पर इतिहास को उसके स्वाभाविक सत्य से जोड़ने का कार्य किया।

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