2015 में भारत को असहिष्णु की उपाधि दिलाने में असफलता पाने के बाद अब सारी जुगत भिड़ाई जा रही है की भारत को ‘लिंचिस्तान’ के तौर पर चित्रित करे, वो भूमि जो उसके अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षित है! एक सुनियोजित प्रयास किया जा रहा है वर्तमान और दुर्भाग्यपूर्ण मुद्दों को राज्य द्वारा पल्लवित पोषित दंगों के तौर पर चित्रित करने का, जहां असल में जनता कानून खुद अपने हाथ में ले रही है।
हमारी मुख्य मीडिया, हर बार की तरह है, ऐसे कई केसों में टीले पर चढ़कर धर्म और जाती का जहर फैलाने पे तुली है। असहिष्णुता के दूसरे अभियान को चिंघाड़ चिंघाड़ कर प्रचार करने में व्यस्त है हमारी मीडिया। हमेशा की तरह लिंचिस्तान का झूठ फैलाने वाले भारतियों के हितों की रक्षा नहीं कर रहे, बल्कि दुश्मनों के नापाक मंसूबों को हवा देने के लिए नरेंद्र मोदी और बीजेपी सरकारों का दमन करती है विरोध के नाम पर। एक विचारधारा या सभ्यता के लिए इतना जहर? क्या देश से प्रेम करना अपराध है भाई?
क्योंकि लोकतान्त्रिक तरीकों से ये मोदी और भाजपा को हटा नहीं पाये, सो फिर से अपने पुराने यार, फूट डालो और राज करो की नीति को अपनाने लगे ये कंजर। धर्म और जाती के दरारों पर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंक कर ये लोग इस सरकार को अपदस्थ करने और उसकी पहचान धूमिल करने की जुगत में भिड़े हुए हैं। और क्या कारण हो सकता है, की लिंचिस्तान उसी वक़्त सोश्ल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा है, जब प्रधानमंत्री भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए यूएस और इजराएल की यात्रा कर रहे हों?
अनजाने में ही सही, पर गाय एक बार फिर इस लिंचिस्तान का केंद्र बिन्दु बन गयी है। सामाजिक और धार्मिक कारणों से कई करोड़ हिंदुओं के लिए गाय का मांस का सेवन करना अशोभनीय और असहनीय है। पर हिन्दू विरोधियों के लिए यही भावना का अनादर करना उनका पेशा है, और अगर प्रतिक्रिया हो, तो पीड़ित बनने का शौक इन्ही को सबसे पहले चढ़ता है।
अब जुनैद का ही केस ले लीजिए। ट्रेन में सह यात्री सीट के पीछे झगड़ने लगे, और मामला इतना बढ़ गया की जुनैद को चाकू से घोंपा गया, और उसके भाइयों को भी पीटा गया। कुछ का तो यह भी कहना है, हालांकि इसकी अभी पुष्टि नहीं हुई है, की जुनैद पास बैठी एक युवती से अश्लील व्यवहार कर रहा था, जिससे उसके परिजन भड़क गए, और गुत्थम गुत्थी में जुनैद को चाकू से घोंपा गया। पर मीडिया ने क्या दिखाने की कोशिश की, की जुनैद इसलिए मारा गया, क्योंकि वो शायद गौमांस ले जा रहा था! भाई, इतनी कल्पना कहाँ से लाते हो?
ये निहायती निराधार दावा है, जिससे अल्पसंख्यकों के असुरक्षित होने का एजेंडा मजबूत किया जा रहा है [जबकी सच तो उल्टा है]। जुनैद की हत्या कुछ गुंडों का आपराधिक कृत्य अवश्य है, जिसे निस्संदेह दंडित किया जाना चाहिए, पर इस तरह के हजारों आपराधिक घटनाएँ, जिसमें हर समुदाय का व्यक्ति शामिल है।
मीडिया एक आम आपराधिक घटना को बिना बीफ एंगल के नहीं बेच सकता था, यह बीफ एंगल तो सिर्फ खबर में ‘तड़का’ डालने के लिए था। खुद इंडिया टूड़े/आज तक के संवाददाता राहुल कंवल ने इस बात की पुष्टि की है, की आजकल पत्रकार इसलिए अपनी नौकरी बदल रहे हैं, क्योंकि संपादकों को भड़काऊ कहानियाँ ज़्यादा प्रिय लग रही हैं।
Reporter from another network applied for a job. He's exasperated. Says Editor has asked him to look out for communally polarising stories!!
— Rahul Kanwal (@rahulkanwal) June 21, 2017
ऐसे और भी मामले हैं, जहां पर गायों की तस्करी के लिए भीड़ ने ऐसे कथित तस्करों को आड़े हाथ लिया है, और दोनों हाथों से भारतीय मीडिया ने इसे अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षित देश बताया है। कभी सऊदी अरब में भी दौरा कर आते भाई, पता चल जाएगा कौन सुरक्षित है और कौन नहीं । सच तो यह है की संबन्धित एजेंसियों द्वारा अप्रभावी प्रशासन ही ऐसी घटनाओं का मूल कारण है, जिस्पर कोई केन्द्रित नहीं है अपने मीडिया में, क्योंकि, एजेंडा ऊंचा रहे हमारा!
अगर इन लोगों की चली, तो हमें इस बात पर यकीन करना होगा की जबसे मोदी सरकार 2014 में आई है, तबसे भारत लिंचिस्तान बन चुका है। विडम्बना तो यह है की यहाँ न्यायपालिका के निष्क्रिय प्रणाली पर कोई उंगली नहीं उठाता, जिससे आजिज़ आ लोगों को अपने हाथों में कानून लेना पड़ता है।
राज्य सभा में पेश किए गए रेपोर्ट के अनुसार झारखंड में ही 127 औरतों को डायन बता पीट पीट के मारा गया था, वो भी 2012-14 में। तब तो कोई मोदी सरकार नहीं थी।
और भी ऐसे मामले आए हैं, जैसे मध्य प्रदेश में भीड़ द्वारा एक रेल्वे कर्मी को ज़िंदा जलाना, सिर्फ इसलिए क्योंकि एक ट्रेन ने कथित रूप से बच्चों को कुचल दिया था, या फिर असम में, जहां 3 लोगों को मनचले समझ मार दिया गया था। या फिर ‘विकासशील’ पश्चिम बंगाल में, जहां टीएमसी की भीड़ ने सीपीएम प्रत्याशी के पति को पीट पीट कर मार डाला था। और भी ऐसे कई केस हैं, जो पूरे देश में व्याप्त थे, पर तब काँग्रेस का सुशासन था, और भारत लिंचिस्तान नहीं, इनकी संपत्ति वाला हिंदुस्तान था।
https://twitter.com/ARanganathan72/status/879329948846006272
भारतीय लिब्रलो और मीडिया वालों ने यह भी साबित किया है हर हत्या बराबर नहीं होती, कुछ हत्या ज़्यादा महत्व रखती है। इस हिसाब से भारत भी काफी भेदभावपूर्ण लिंचिस्तान है भैया। समझे की नहीं?
हमारे इन्ही महान बुद्धिजीवियों के अनुसार, जो सुरक्षाकर्मी कश्मीर में भीड़ द्वारा मारे जाते हैं, वो इसके हकदार हैं, क्योंकि वो कश्मीर में भारत के एजेंट हैं! वहाँ के हिन्दू अगर मारे जाएँ, तो भी जायज़ हैं, क्योंकि ये सामाजिक न्याय है! अगर मुल्ले किसी भारतीय की हत्या करे, तो जायज़ है, क्योंकि भारतीय ने ही भड़काया होगा, पर ऊंची जाति द्वारा निचली जाति पर अत्याचार और हिंदुओं द्वारा मुसलमानों की कुटाई इस देश की संप्रभुता और अखंडता पर प्रहार है, एक खतरा है, सो भारत बना लिंचिस्तान! अगर केस उल्टा हो, तो इन्ही गधों को साँप सूंघ जाता है, जैसे कर्नाटक में एक गर्भवती मुस्लिम महिला को इसलिए ज़िंदा जला दिया, क्योंकि उसने एक हिन्दू दलित से ब्याह रचाया। उस शर्मनाक हत्या को महज एक आपराधिक घटना बताकर मीडिया ने रफा दफा कर दिया।
इस लिंचिस्तान के मुद्दे पर दो तरीके है बात करने के लिए। या तो यह स्वीकारें की हमारी कानूनी एजंसियों में कोई शक्ति नहीं रह गयी और नेताओं द्वारा इनकी रही सही ताकत भी हटा ली गयी है, या फिर इस तरीके की हत्याएँ समाज का न्याय देने का अपना तरीका है। अगर इन्हे रोकना है, तो न्याय को त्वरित समय में देने की मुहिम शुरू होनी चाहिए। दूसरा तरीका है जो मीडिया आजकल अपना रहा है, मोदीजी को गालियां दो, सरकार को बेइज़्ज़त करो, कलम के जरिये देश में भूचाल लाओ और गलत इरादों की प्यास बुझाओ।
अभी जो हो रहा है, उससे साफ है की मीडिया और बुद्धिजीवियों का झुकाव किस तरफ है।