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छत्तीसगढ़ के सरकारी स्कूलों की हक़ीकत

Shubham Upadhyay द्वारा Shubham Upadhyay
23 October 2016
in समीक्षा
छत्तीसगढ़ स्कूल

Image Courtesy: Youth ki Awaaz

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आजादी के 69 साल बाद भी विभिन्न आकलन एजेंसियों और हाल ही में देश की शिक्षा नीति समीति द्वारा कहा गया है कि हमारे देश में प्रदान की जा रही शिक्षा की गुणवत्ता आज भी बहुत खराब है. इसके लिए कांग्रेस, भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों के साथ-साथ सभी क्षेत्रीय राजनीतिक और सामाजिक संगठन सामान रूप से जिम्मेदार हैं.

पिछले हफ़्ते मैंने छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के अंतर्गत गौरेला विकासखंड के एक ग्राम के आदिवासी जनजाति छात्रावास का दौरा किया था.

उस क्षेत्र के दसवीं तक के 50 छात्रों के लिए सिर्फ दो कमरे और एक बरामदा हैं. जिसमें एक बिस्तर पर दो छात्रों के अनुपात में बहुत ही मुश्किल से छात्र रह रहे हैं. कमरों में सिर्फ दो बल्ब और दो पंखे हैं. अब ऐसे में आप खुद सोचिए की वो छात्र जो वहाँ रहकर अपनी पढ़ाई कर रहा हैं क्या उसे सही माहौल मिल रहा हैं..?? यहाँ तक क़ि छात्रावास वार्डन के लिए भी कोई अलग कमरा नहीं हैं. केंद्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे डिजिटल इंडिया की मुहीम वहाँ खो सी गई हैं, किसी भी कंपनी का वहाँ नेटवर्क उपलब्ध नहीं हैं, जबकि उस क्षेत्र की आबादी पर्याप्त हैं. ऐसे में आप कैसे ये उम्मीद करते हैं क़ि राज्य से ओलंपिक में आपको मैडल मिलेगा या कोई अब्दुल कलाम जैसा छत्तीसगढ़ से भी निकलेगा. इसके लिए जमीनी स्तर पर प्रशासन की पहुँच ज़रूरी हैं. प्रशासन को कागजों में नहीं बल्कि जनता से सीधे जनता के शब्दों में संवाद करना होगा, तभी राज्य और देश के कोने-कोने का शैक्षणिक विकास होगा.

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एक ख़बर के अनुसार छत्तीसगढ़ के अधिकतर सरकारी स्कूलों में छठवीं कक्षा के आधे बच्चे किताब नही पढ़ पाते है. ऐसा इसलिए हुआ कि सरकार का कहना हैं कि ग़रीब इसलिए ग़रीब नही है क़ि भारत का औधोगिकरण नही हुआ है, बल्कि इसलिए ग़रीब है कि वो स्कूल नही जाते है. भारत सरकार द्वारा सर्वसम्मति से एक क़ानून बनाया गया, शिक्षा का अधिकार (Right To Education). क़ानून कहता है कि आठवीं कक्षा(8th) तक बच्चों को फेल नही कर सकते, बच्चों को एक दो छड़ी भी नही जमा सकते, लेकिन हाँ, उन्हें खाना खिलाना ज़रूरी होगा. और चाहे केन्द्र हो या राज्य, सरकार द्वारा अपने नागरिकों को प्रदान की जा रही सेवाएँ अधिकतर अक्षम् और भ्रष्टाचार से परिपूर्ण और निचले स्तर की है. इससे बच्चें साक्षर तो हो रहे हैं लेकिन शिक्षित नहीं. मुख्य रूप से इसका कारण है कि गुणवत्ता में कमी के लिए कोई जवाबदार न तो है और न ही बनाया जाता है.

हम भी स्कूल में पढ़े हैं. हम से पहले हज़ारों साल से लोग स्कूल/गुरुकुल में पढ़ते रहे है. हमकों जिस दिन एक दो कान पे नही पड़ते थे तो क़िस्मत अच्छी मानते थे हम. पहली कक्षा से परीक्षा शुरू होती थी और परीक्षा में फ़ेल का मतलब फ़ेल होता था. परीक्षा का एक अलग खौफ़ हुआ करता था. आठवीं तक पहुँचते-पहुँचते तो आधे बच्चे स्कूल छोड़ चुके होते थे. माँ-बाप बोलते थे पढ़ के होगा क्या, नौकरी तो मिलेगी नही, और फिर और कोई काम ये कर नही पाएगा. और हमारे टाइम स्कूल में खाना..?? स्कूल, स्कूल होता था, ढाबा नही. लेकिन जो भी एक-दो साल स्कूल चला गया, पढ़ना, लिखना और गिनना जानता था. दसवीं पास तो लिपिक बनते थे और आज के ग्रेजुएट से अच्छा काम करते थे.

अब स्कूल में कोई पढ़ाता नही.

बस खाना खिलाने में लगे रहते है कि कोई समस्या न हो जाए खाने में, वरना जेल जाना पड़ेगा. इस तमाशे से पहले कभी किसी शिक्षक को जेल जाते नही सुना था. मध्यम वर्ग तो ख़ुद को कंगाल करके, और उच्च वर्ग वैसे भी, बच्चों को ट्यूशन और कोचिंग में पढ़ा ही लेता है. ग़रीब के बच्चे पढ़ना लिखना सीख लेते थे पहले, अब तो वो पूरी तरह से बंद हो गया हैं. ग़रीब प्रतिभावान बच्चे बिलकुल टॉप तक जाते थे, सब कुछ गायब हो चुका. सरकार को उन लोगो के लिए सिर्फ ऐसी सामाजिक जरूरत को पूरा करें और उनमें बुनियादी सुविधाओं और शिक्षण की गुणवत्ता प्रदान करे जो निजी शिक्षण संस्थाओं का खर्च उठाने में असमर्थ हैं या उन क्षेत्रों में रहते हैं जहाँ इस तरह के स्कूलों के अस्तित्व के लिए रूचि नहीं होती.

सरकार को शिक्षा के साथ सभी क्षेत्रों में एक नियंत्रक के रूप में नहीं बल्कि एक प्रतियोगी के रूप में शामिल होना चाहिए. सरकार द्वारा संचालित स्कूल और एजेंसियाँ निजी स्कूलों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हैं, इसका कारण हैं अधिक से अधिक नियमों और विनियमों का शिकंजा, जो कि हावी हो जाता है.

स्कूल RTE से पहले ही डूब चुके थे. समाजवाद रूपी वृक्ष से भ्रष्टाचार के जो फल गिरे, उसमें से कुछ शिक्षा के क्षेत्र में भी गिरे. लेकिन RTE ने डूब रहे शिक्षा स्तर को सीधे पाताल में पहुँचा दिया.

आजकल के ग्रेजुएट तो जो बोला जा रहा हैं उसे नहीं समझ पाते तो लिखे हुए को तो क्या समझेंगे..?? प्रेमचंद को लगभग हर हिंदी भाषी पढ़ लेता था. अब तो बस मोबाइल की भाषा समझ आती हैं इन्हें.

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