आजकल हम देखते हैं क़ि हर नेता, अभिनेता या कोई सेलिब्रिटी देश में चल रहे सभी मुद्दों पर कुछ ना कुछ टिप्पणी करता हैं. मुद्दा चाहे काला धन हो या पाकिस्तान, कश्मीर हो या नोटबंदी, बोलना सभी को रहता हैं. जिन मुद्दों से उनका दूर-दूर तक कोई वास्ता ना हो ऐसे लोग भी ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर अपनी बात रखते हैं. जिनके घर तक मीडिया नहीं जाता वो ट्विटर पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं.
ये सेलिब्रिटी जानबूझ कर कुछ ऐसा कहते हैं जिससे यह कुछ समय मीडिया में बने रहे. अब पब्लिक भूल जायेगी तो धंधा कैसे चलेगा. इस चक्कर में ये कुछ भी टिप्पणी करते हैं. चाहे वह ओमपुरी, ऋषि कपूर जैसे वरिष्ठ अभिनेता हो या ओवैसी जैसे सांप्रदायिक राजनेता.
अब राहुल गांधी जोकि देश के सबसे पुराने राजनीतिक पार्टी के उपाध्यक्ष हैं, वह कह रहे हैं क़ि ‘उन्हें संसद में बोलने नहीं दिया जा रहा हैं.’ यह भी वो मीडिया को बुलाकर ‘कैमरे’ के सामने बोल रहे हैं, चाहते तो एक जनसभा या रैली भी कर सकते थे.
जहाँ एक ओर कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष नोटबंदी का असफल विरोध कर रहा हैं, जिसे जनता का किसी तरह समर्थन प्राप्त नही हैं. वहीं दूसरी जोर अराजकता के जीती जागती मिसाल अरविंद केजरीवाल अपनी असंसदीय भाषा और अशोभनीय ट्वीट्स से लगातार जनता के बिच घिरे हुए हैं.
मीडिया भी अपना एजेंडा चलाने से पीछे नहीं हैं. नोटबंदी के इस आपा-धापी में मीडिया अभी अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के दौर में हैं. जिस विचारधारा का पतन 2014 के आम चुनाव के समय होना शुरू हो चुका था, वह अब दूसरे रूप में दस्तक दे रहा हैं.
नेता, अभिनेता सहित अधिकांश बड़े लोगों की सोच होती हैं क़ि दुनिया उनके हिसाब से चलनी चाहिए. दुनिया के सभी बड़े देशों में टकराव का यही मुख्य कारण हैं. यहाँ तक क़ि 45 वर्षों तक चले ‘शीत युद्ध’ भी इसी एजेंडा के लिए था. देश-दुनिया के स्वघोषित बुद्धिजीवी लोग, राजनीतिज्ञ, बड़े संगठन अपनी ही विचारधारा चलाना चाहते हैं या कहे अपनी ही सोच तक लोगो को सीमित रखना चाहते हैं. हर व्यक्ति, हर दल यह चाहता हैं क़ि उसके मुद्दों पर ही बहस होनी चाहिए, उसकी बातों का ही प्रचार होना चाहिए.
वामपंथी और खासकर जेएनयू के छात्र इस बात में माहिर होते हैं. किसी प्रमुख मुद्दे पर अपना एजेंडा सेट करना और दूसरों को उस पर बहस करने को बाध्य करना.
लेकिन इस बार पाला पलट चुका हैं. इस बार प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष को किसी भी तरह का मुद्दा खड़े ही नहीं करने दिया. मोदी जी ने एक के बाद एक नए मुद्दें पेश किए ही जा रहे हैं और तमाम दल और लोग उसी मुद्दें पर घिरे हुए हैं.
कोई भी दल या संगठन तभी आगे बढ़ सकता है जब वह अपना एजेंडा खुद सेट करे, अपने मुद्दें पेश करे. लेकिन पिछले ढाई साल में विपक्ष में बैठे एक भी दल को अपना एजेंडा पेश करने का मौका ही नहीं मिला. बस सरकार के एजेंडे पर ही बहस किए जा रहे हैं. देखा जाये तो राहुल गांधी और केजरीवाल अब अपने राजनीतिक पतन की ओर हैं.