सामान्य धारणा यही है की अटल बिहारी वाजपेयी का महत्वाकांक्षी “इंडिया शाइनिंग” प्रोजेक्ट ही अंततः उनके पतन का कारण बना। परन्तु यह धारणा ना तो सही है ना ही इसका कोई ठोस आधार है क्योंकि अगर सिर्फ आंकड़ों की ही बात की जाए तो भाजपा अपना वोट प्रतिशत बचाने में सफल रही थी। २००४ के आम चुनावों में भाजपा ने लगभग आठ करोड़ साठ लाख मत पाए थे जो की १९९९ के मतों के लगभग बराबर थे, वहीँ कांग्रेस ने दोनों बार तकरीबन दस करोड़ तीस लाख मत पाए थे, जहाँ १९९९ में फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम के अंतर्गत भाजपा ने कांग्रेस को पटखनी दी थी, वहीँ २००४ में कांग्रेस ने उसी सिस्टम के अंतर्गत भाजपा को हराया।
पर यहाँ सवाल आंकड़ो का नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी भारत के सबसे कुशल और लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में से एक हैं। उनके नेतृत्व में एनडीए सरकार ने कामयाबियों के अनेकानेक कीर्ति स्तम्भ गाड़े थे, चाहे वो भारतीय अर्थव्यवस्था का बढ़ता स्तर हो या फिर भारत का परमाणु परीक्षण या पूरे देश में बिछे राजमार्गों का जाल या फिर कारगिल के युद्ध में विजय। जब कोई पार्टी इतनी कुशलता से सरकार चलाती हैं तो आशा ये की जाती है की अगली बार उसके वोट प्रतिशत में इजाफा होगा। शायद यही सोच कर अटल जी ने २००४ में चुनाव पहले कराने की घोषणा की थी।
तो फिर ऐसा क्या हुआ की भाजपा अपने वोटों में बढ़ोतरी नहीं कर पायी?
उसका सिर्फ और सिर्फ एक कारण है और वह है भाजपा में किसी X फैक्टर का ना होना।
जी हाँ सुनने में ताज्जुब होगा परन्तु सच्चाई यह भी है की भारत में वोट सिर्फ “विकास” के नाम पर नहीं मिलता। जिस देश का एक ख़ास तबका सिर्फ और सिर्फ एक पार्टी के खिलाफ वोट करने को अपना मौलिक अधिकार मानता हो वहां सिर्फ विकास से काम नहीं चलता। वहाँ ज़रूरत X फैक्टर की भी होती है, वो X फैक्टर जो विकास से अलावा पार्टी की धर्म के प्रति प्रतिबद्धता भी दिखाए। अटल जी शायद यहीं चूक गए। देश का हिन्दू बेचैन हो रहा था, उसे उसकी चुनी हुई सरकार अच्छी तो लग रही थी पर अपनी नहीं लग रही थी। राम जन्मभूमि आन्दोलन से पैदा हुई पार्टी का हिंदुत्व पर चुप्पी साध लेना, उस पार्टी के मतदाताओं को शायद नागवार गुजरा और शायद ये भी एक बड़ा कारण रहा भाजपा के पतन का।
अब तो खैर २०१७ है और देश में फिर भाजपा का राज है। कमान नरेन्द्र मोदी जी के हाथ में है जो अटल जी की तरह विकासवादी प्रधानमन्त्री हैं, हालाकि उनकी छवि हिन्दुत्ववादी की भी है परन्तु मीडिया की चौबीस घंटे निगरानी वाले देश में, जहाँ बात-बात पे कम्युनल-सेक्युलर तर्क-वितर्क होते हैं वहाँ हर समय हिन्दुत्ववादी रहना ना तो तार्किक है और ना ही संभव है। तो जब भाजपा ने उत्तर प्रदेश में विजय पताका लहराई तो बात यही उठी की कमान किसी विकासवादी को ही मिलना चाहिए। केशव प्रसाद मौर्य से लेकर मनोज सिन्हा जैसे दिग्गजों का नाम खूब चर्चा में रहा। मोदी जी ने सुनी सबकी, परन्तु की अपनी। उन्होंने हिंदुत्व के सबसे बड़े चेहरे गोरखपुर के महंत योगी आदित्यनाथ को यूपी की कमान सौंपी। मीडिया को मानो सांप सूंघ गया, देश के दिग्गज बुद्धिजीवी विलाप करने लगे, कई ने तो ये भी कयास लगाये की आदित्यनाथ ने मोदी को ही धता बताते हुए सीधे आरएसएस से सिफारिश लगवाई। परन्तु जो वर्तमान भाजपा को जानते है वो यह भी जानते होंगे की ऐसा करना तो दूर, सोंचना भी बेवकूफी है।
तो फिर मोदी ने आदित्यनाथ को क्यों चुना? इसका जवाब भी २००४ के चुनावों में ही छुपा है। योगी आदित्यनाथ मोदी के X फैक्टर हैं। मोदी का विकासवाद और योगी का हिंदुत्ववाद विपक्ष के लिए एक लगभग नामुमकिन सी चुनौती होगी। योगी आदित्यनाथ का चयन मोदी का सन्देश है की वो अटल जी की गलती नहीं दोहराने वाले
अति उत्तम विशलेषण, यह बेहद जरुरी था, इसके बगैर इस समस्या का कोई अंत नहीं होनेवाला, इस देश को हिंदुत्व की प्रतिष्ठा की परम आवश्यकता है यह कोई मामूली बात नहीं, इस देश का गौरव और इसके बहुसंख्यक लोगो के मौलिक अधिकार और गरिमा का प्रश्न है यह और योगीजी सर्व सक्षम है इस कार्य को करने और प्रदेश और देश मे हिन्दुओं के गौरव और अधिकार की स्थापना और भारत विरोधी शक्तियों और मूल्यों के समूल विनाश के लिए, यह समय की मांग है और इस देश की गरिमा और गौरव और प्राचीनतम मूल्यों की प्रतिष्ठा, तो की इस संस्कृति के प्राण और आधार है बेहद जरुरी कार्य है, देश एक सुनहरे और गौरवमयी पथ पर गतिमान हो रहा है, और हम सभी भारतीय इसमें मन प्राण और कर्मा से महा यज्ञ मे शामिल है और हर जरुरी आहुति देने के लिए तैयार है जय हिन्द, जय भारत
आपकी बात सही है सर ….पर एक कारण और है ..अटलजी के पास प्रचन्ड बहुमत नही था..24 दलो की सरकार चला रहे थे. स्वाभाविक था, कि कई सुधारवादी निर्णय नही ले पाये और सभी तबको को संतुष्ट नही कर पाए .