कल सुबह पिता जी ने किसी हिंदी अख़बार के हवाले से IT सेक्टर से लाखों छटनी की त्रासदी के बारे में पूछा, मैंने उन्हें कुछ बताने के बजाय ख़ुद से पूछा कि ये क्यों होता है? उत्तर – उत्तर प्रदेश जैसा ही विस्तृत, जटिल और अंतरविरोधों से भरा पड़ा है। लेकिन उस विस्तार की कुछ एक परतों को छूने का प्रयास करते हैं।
बिना रोग समझे उपचार, बिना उपलब्धि आंके पुरस्कार, बिना अपराध जाने दंड और अनगिनत ऐसी ही विसंगतियों का परिणाम लगभग एक ही होता है – दुर्दशा।
हमें समझना होगा कि हमारी प्रतिभा क्या है और हम उस प्रतिभा के अनुपात में कितना अर्जित कर पाए हैं। इसके अतिरिक्त हमें अपनी सम्भावनाओं और उपलब्धियों का और आवश्यकताओं और आपूर्ति का ठीक-२ अनुपात निकालना होगा। तब जाकर हम समस्या को समझ कर उसके समाधान की ओर पहला कदम बढ़ाएंगे।
इस वर्ष अकेले उत्तर प्रदेश बोर्ड में 60 लाख छात्र-छात्राओं ने दसवीं-बारहवीं की परीक्षा दी हैं जो केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के 25 लाख से लगभग ढाई गुना है। इसके अतिरिक्त कई बड़े-छोटे राज्य स्तरीय बोर्ड हैं जिनको जोड़ कर ये आँकड़ा एक से दो करोड़ के बीच जा बैठेगा। जब ऐसी महासेना प्रतिवर्ष शिक्षा प्रणाली से निकल रही हो तो हमें शिक्षकों की एक बड़ी भारी और कुशल सेना चाहिए, जिनके खून में अध्ययन-अध्यापन RBC-WBC बनके दौड़े, लेकिन आम तौर पे इंजीनियरिंग, मेडिकल और सिविल सेवाओं समेत अन्य क्षेत्रों में असफल रहे लोग यहाँ कुंठित होकर आ रहे हैं, और अगली कई पीढ़ियों को यही कुंठा की घुट्टी पिलाने में लगे हैं। नतीज़ा, जहाँ एक तरफ हमारे 80% इंजीनियरिंग स्नातक किसी तकनीकी ज़िम्मेदारी क़ाबिल नही हैं वहीं दूसरी ओर 90% से भी ज्यादा MBA डिग्रीधारियों को मामूली नौकरी के लिये भी कई जोड़ी जूते घिसने पड़ते हैं। अब, फरदीन खान से एक्टिंग सीख के इऱफान खान बनने का सपना देखना भी कहाँ तक जायज़ है?
जहाँ, आधी जनसंख्या खेती-किसानी से अपना घर चलाती है, हमारे सबसे प्रतिभाशाली युवाओं का कृषि में प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई योगदान नही है। तकनीक, प्रबन्धन, नेतृत्व जैसे किसी भी आयाम में युवा प्रतिभा की भागीदारी नगण्य है। परिणामस्वरूप बहुसंख्यक अनपढ़ किसान मज़बूरी में रोते-गाते खेती में लगे हैं, कोई रिक्शा चलाने के लिए खेती छोड़ रहा तो कोई शहर में मज़दूर बन जा रहा है। हम अभी भी वर्षा, सूखे, बाढ़ और ओला-पाला की दयादृष्टि पे जी रहे हैं, जबकि इज़राइल अपनी रेगिस्तानी धरती पे भी दुनिया के सर्वोत्तम टमाटर उगा रहा है, जबकि हम दुनिया की सबसे उपजाऊ जमीनों पे भी सर पकड़े बैठे हैं।
कमोबेश हर जगह आवश्कयता-आपूर्ति का यही बीमार अनुपात है। क़रीब 3 करोड़ लम्बित मुक़दमों की वजह से न सिर्फ़ दफ्तरों की फाइलें पीली पड़ रही हैं बल्कि लोगों के जीवन भी पीले पत्तों की तरह झड़ कर; मिट्टी में मिलते जा रहे हैं, लेकिन मिलार्ड को भगवान का दर्ज़ा, अवमानना का राजदण्ड और 2 महीने की छुट्टी चाहिए। महोगनी की मेज के पीछे आरामदायक कुर्सियों से ये बौद्धिक जुगाली करने में ज्यादा मशगूल हैं, नींद से जागते भी हैं तो रात 3 बजे याकूब मेनन सरीखों को इंसाफ़ देने के लिए।
चूँकि सरकारी नौकरी में फिसड्डी होने पर आपकी तरक्की भले रुक जाए नौकरी बनी रहती है, इसलिए छटनी की खबर और उससे पनपी खलबली का उत्पादन 21वीं सदी में आईटी सेक्टर से ही हो रहा है।
इस खलबली में हम कारणों से ज्यादा लक्षणों की बात ही करते रह जाते हैं। समय बदलता है लक्षण लुप्त हो जाते हैं, और हमारा उत्सव फिर शुरू हो जाता है, बिना कारणों का पता किये और निदान तो दूर की कौड़ी है।
लेखक की समझ से कारण है हमारा – ‘जुगाड़-प्रेम’! लोग योग्यता और अर्हता के लिए एड़ी-चोटी एक करने के बजाय कैसे जुगाड़ लग जाए, जुगाड़ मिल जाए या जुगाड़ चल जाए आदि पे अपनी गिद्ध-दृष्टि लगाए होते हैं। कुँजी और क्वेश्चन बैंक की भीड़ में रिफरेन्स बुक का गला घोंट देते हैं। निम्न स्तरीय आदतें निम्न स्तरीय जीवन की आधारशिला बन जाती है। हम निम्नता के गहरे अँधे कुएँ में गिरते जाते हैं, और अगर ग़लती से भी इसका एहसास होता है तो उस कूप के असंख्य मण्डुकों को देखकर संतोष कर लेते हैं कि – ‘चलो यार हम अकेले नही हैं इस दलदल में’। बस भीड़ में छुप कर कमी छुपाने की ये आदत, हमें ऐसे दिन दिखाता है जहाँ हम डरे सहमें अपनी बारी का इंतज़ार करते हैं। जिस दिन हम निर्भीक, उद्यमी और कल्पनाशील बनकर अपने कदम बढाएंगे न सिर्फ़ इस कुँए से बाहर निकलेंगे बल्कि इससे निकल कर अपने नए-नए सम्राज्य खड़े कर देंगे जो आईटी की छोटी सी कुंतल रियासत के सामने माहिष्मती से कम न होंगे।