भारत में कुछ नया कैसे हो सकता है। नई शुरुआत और भारत? मियां दिन में भांग खाए लिए हो क्या? समझते नहीं क्या भारत के अंदर नया शब्द सूट ही नहीं करता। अब देखो न्यूयॉर्क, न्यूज़ीलैंड, न्यूजर्सी कितना टिप- टॉप है। और वही नई दिल्ली एकदम रद्दी के भाव। न्यूटन, गैलीलियो नाम से ही वैज्ञानिक लगते है। अब दधीचि, विश्वामित्र की तो हमने कहानियाँ बना रखी है। आखिर हमारी सोच इतनी विकसित कैसे हो सकती है?
और अभी को आयी बाहुबली की तुलना कोई 300 से करता है तो मेरा खून खौल जाता है। मतलब जुर्रत देखिये! एक टुटपुंजिया फिल्म क्या बन गई हम भारतीयों की हिम्मत देख रहे हैं। अरे 100 मिलियन डॉलर के हु-हु के सामने 39 मिलियन डॉलर के जय महिष्मति की क्या बिसात? UN के अलिखित क़ानून के अनुसार पश्चिम से पूरब की तुलना करना अपने में जघन्य अपराध है। और उसमें भी पूरब को श्रेष्ठतर बताना तो अपराधों में सर्वोपरि।
पर भला हो हमारे फिल्म समीक्षकों का जो इस धर्म निरपेक्ष देश को इस फिल्म के आतंक से बचाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। भारत में हिन्दू धर्म आधारित फिल्म बनाना, भारत के गौरवशाली इतिहास और अस्मिता दोनों के लिए खतरा है। अब इतिहास की बात आ ही गई है तो इस फिल्म का सबसे बड़ा फरेब, इसमें दिखाए गए उत्कृष्ट शिल्पकला, सुन्दर महल, अजेय सेना एवं उनके युद्ध कौशल हैं। बिना मुगलों के मदद से ये कैसे हो सकता है। हमारे इतिहास के अनुसार ये सब कलाएं तो तुर्क अफगान की हमें भेंट हैं। इससे पहले तो भारत में लोथल में ही थोड़ा बहुत पत्थर से पत्थर रगड़ने के प्रमाण मिलते हैं।
तुर्क, अफगानों ने भारत में हमला, लुटने के उद्देश्य से थोड़े ही किया था अपितु हमें विकसित करना उनका एकमात्र लक्ष्य था। रेत से आये तुर्को ने ही हमें खेती के गूर सिखाये। वो थोड़ा खून तो उद्देश्य समझाने में बह गया। आगरा का किला, लाल किला जैसे अभेद्य किले तो बस मुगल ही बनवा सकते थे। वरना इससे पहले तो यहाँ के राजा अपनी अकूत सम्पदा के साथ झोंपड़े में रहते थे। तुर्को ने ही तो हमारे कबीलाई समाज को राष्ट्र का रूप दिया।
पर येनकेन प्रकारेण द हिन्दू अखबार में छपे लेख ने आखिरकार बाहुबली के सफलता का राज़ ढूंढ ही लिया। उनके अनुसार बाहुबली बहुत घटिया होने के साथ ही गैर-जरूरी फिल्म भी है।
द हिन्दू के अनुसार इसकी सफलता के पीछे सिर्फ इसके प्रचार का हाथ है। क्योंकि आज से पहले शाहरुख़ और सलमान जैसे सितारों की फिल्में तो हमें सपनों में ही अपने आने की दस्तक दे देती थी। और अब तो मुझे ये भी लगता है कि ये बाहुबली ने कट्टपा को क्यों मारा वाले मेसैज का ट्रेंड भी राजमौली ने ही शुरू किया था, इसीलिए फिल्म रिलीज़ होने में थोड़ा विलम्ब भी हो गया। हिन्दू के लेखक के अनुसार फिल्म सामंती व्यवस्था का समर्थन करती है। फिल्म कहीं से भी प्रगतिशील नहीं लगती। अब द हिन्दू के बुद्धिजीवी ने कहा है तो उस समय के अनुसार ही सोचा होगा। राजमौली को लोकतांत्रिक व्यवस्था का वर्णन इसमें करना चाहिए था और भल्लालदेव को युद्ध के द्वारा नहीं वोट के द्वारा पदच्युत करवाना चाहिए था।
पर सच तो ये है कि वाकई में राजमौली को भंसाली जी से तथ्यों से छेड़छाड़ के बारे में थोड़ा सीखना चाहिए। बाहुबली को तथाकथित बुद्धिजीवियों के अनुसार प्रगतिशील बनाने हेतु फिल्म में छद्म वामपंथ का तड़का तो देना ही चाहिए था। और कुछ ‘ले के रहेंगे आज़ादी’ जैसे डायलॉग फिल्म में कहीं ना कहीं तो हीने ही चाहिए थे। बुरा लगता है जब कोई फ़िल्मकार बिना इतिहास के जानकारी के कुछ भी परोस देता है। राजमौली जी से मैं भारत की जनता की तरफ से ये आग्रह करता हूँ कि पहले इतिहास को जाने तभी VFX का प्रयोग करें। खैर अभी भी देर नहीं हुई है, महाभारत को और भी भव्य बनाइये पर आशा है हमें महाभारत में तुर्क आक्रांता के दर्शन हो जायेंगे और आप धर्म निरपेक्षता का अच्छा उदाहरण पेश करेंगे।