जब से बाहुबली के दूसरे भाग के रिलीज होने की खबर आई है तभी से मीडिया और सोशल मीडिया पर यह फ़िल्म चर्चित है। अब तो यह फ़िल्म रिलीज भी हो गयी है और अप्रत्याशित रूप से यह न सिर्फ सफल हुई है बल्कि इस पर, खास तौर से सोशल मीडिया पर लिखा भी गया है।
पिछले 4/5 दिनों में बाहुबली भाग 2 पर इतना लिखा गया है कि हर वह राष्ट्रवादी, जो इसको नही देख पाया है या जो फ़िल्म नही देखता है उसको एक अजीब तरह की हीनता का सामना करना पड़ रहा है। इसी माहौल में मैंने बहुत से लोगो की बाहुबली पर उनकी प्रतिक्रियाएं पढ़ी है जो जहां उनकी खुद की बात तो करती है वहीँ वह भारतीय संस्कृति और हिंदुत्व के अभिमान की बात भी करती है। यह भारतीय जनमानस की जाग्रत चेतना की अभिव्यक्ति की एक अभूतपूर्व घटना है।
आखिर ऐसा क्यों हुआ है?
मुझे लगता है कि बाहुबली ने भारतीय जनमानस की सुप्त चेतना को जाग्रत किया है। दशकों से भारतीयों के अंदर अपनी संस्कृति और धर्म को लेकर पल्लवित हो रही हीनता को एक मरहम दिया है और निदान किया है। वैसे तो मैं फिल्मों का न सिर्फ शौकीन हूँ बल्कि उसकी अच्छी समझ भी रखता हूँ लेकिन 80 के दशक से मेरा भारतीय फिल्मों और उसमें से खास तौर से मुम्बई की मसाला हिंदी फिल्मों से पूरी तरह मोह भंग हो चुका था इसलिए जब बाहुबली का प्रथम भाग आया था, तब तमाम तारीफों के बाद भी मैंने उसे नही देखा था। फिर करीब एक वर्ष पहले जब उसको टीवी पर पहली बार देखा तो पहली बार यह कोफ्त हुई कि क्यों नही मैने इस फ़िल्म को हाल के पर्दे पर देखा! इस फ़िल्म को देख कर यह समझ मे आ गया की बाहुबली भारतीय फिल्मों के इतिहास की अनूठी घटना है। इस फ़िल्म में वह सब था, जो भारतीय सिनेमा में अभी तक नही दिख रहा था।
यह फ़िल्म तमाम आधुनिक तकनीकी के साथ एक बड़े कैनवास पर, हमको अतीत और फेंटासी के कोहरे में छिपी अपनी सांस्कृतिक इतिहास से मिला रही थी। बाहुबली ने हमारी सामूहिक चेतना को यथार्थ के पंख दे दिये है। जब मैंने बाहुबली के अंतिम दर्शय को देख कर अपना टीवी बन्द किया था तब मेरे लिए, ‘कट्टप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?’ कोई प्रश्न नही था, मेरे लिए यह प्रश्न ज्यादा बड़ा था कि ‘मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री ने मेरी संस्कृति मेरे धर्म को क्यों मारा?’ यकीन मानिये हम लोगो को दक्षिण भारतीय फिल्मकारों का ऋणी होना चाहिए कि उन्होंने, अपनी तमाम अतिरेकता के बावजूद भारतीय संस्कृति और धर्म को फिल्मों में जीवित रखा है।
बाहुबली की इसी विजयघोष के बीच कल रात मैंने बाहुबली भाग 2 भी देख डाली है और इस बार फ़िल्म के साथ मैं हॉउसफुल थिएटर में बैठे दर्शकों को भी देख रहा था। बहुत वर्षो बाद मैंने लोगो को अपने छोटे बच्चों के साथ फिल्म हाल में आते हुए देखा। सबसे विचित्र अनुभव यह रहा कि इस पूरी फिल्म के अंतराल के बीच मुझे बच्चो के रोने और उससे परेशान मां बाप को थिएटर से अंदर बाहर जाते हुए नही दिखे। मैंने, वाल्ट डिज्नी के कार्टून और हॉलीवुड की एनिमेशन फिल्मों की चका चौन्ध से बंधे वर्ग को अमर चित्र कथा लोक से सम्मोहित हुए देखा। सँस्कृत और शिव के नाद में लोगो को आल्हादित होते देखा। बड़ी हॉलीवुड फिल्मों की भव्यता के आधे अधूरे आवरण से शिल्पित, भारतीय चरित्रों के माध्यम से प्रदर्शित भारतीय संस्कृति और धर्म की अत्यंतता पर तटस्थो को विस्मृत देखा।
राजामौली निर्देशित बाहुबली उतनी ही लार्जर देन लाइफ है जितनी डेविड लीन, सिसिल बी डेमिलो, स्पिलबर्ग, लुकास, टेरिनटिनो, रिडली स्कॉट, जेम्स केमरून, कोपला, नोलन इत्यादि की फिल्में होती है।
इन फिल्मकारों को अति समझ कर कोई भी हिंदी फिल्मों का प्रगतिशील और बाजारू आलोचक या फिर कोई भी बुद्धजीवी , एक सनीमा के तौर पर, बाहुबली की निर्मम आलोचना के लिए स्वतंत्र है। लेकिन आलोचना करते वक्त वह यही नही समझ पाता है कि बाहुबली न ‘टेन कमंडमेन्ट’ है न ‘बेन हूर’ है न ‘ग्लैडिएटर’ है और न ही वह मुम्बईया हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की तरह पाश्चात्य विषयो का भारतीयकरण है। दरअसल बाहुबली, हमारे वातावरण से इन्ही आलोचकों और इनको पोषित करने वाले वर्ग द्वारा विलुप्त की गई मूल भारतीय संस्कृति और धर्म की पुनर्खोज है।
बाहुबली हमारे भारतीय के हम ‘भारत’ होने की एक खोज है।
अंत मे यह बड़ी दृढ़ता से कहूंगा, मुम्बई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री पर सेक्युलर प्रजाति और दाऊद इब्राहिम व उसके आका पाकिस्तान के वित्तीय सहयोग से इस्लामिकृत समुदाय के आधिपत्य से कुंठित भारतीय समाज के लिए ‘बाहुबली’, भारत के प्रारब्ध की एक कड़ी है।
बाहुबली को आना ही था!
ऐसा नही होता तो 16 मई 2014 से पहले प्रकल्पित फ़िल्म जिसकी घोषणा 2011 में हुई थी और जिसके सेट 2013 से बनने शुरू हुए, वह 2015 में अपने प्रथम भाग के साथ आकर, 2017 में पूरी तरह भारतीय जनमानस पर भारतीय संस्कृति और धर्म को लेकर उद्वेलित कर जाती है?
आशंकित और मन से कमजोर राष्ट्रवादियों को भारत के प्रारब्ध पर विश्वास कर, अपने ही विचारों पर गिरवी कटप्पा बनने से बचना चाहिए।
Awasthi Saab accha likha Hai apne, BT zarurat Hai aur is type ki movies ki. Aur Mai to kahunga ki series of movies ki Jo ek baar fr bhartiyon ko yaad dilaye ki hamari roots Kya hain aur unka potential bhi..
सुंदर विश्लेषण, फ़िल्में हमारे जीवन और संस्कृति को समृद्ध करने का माध्यम हैं, दुर्भाग्य से वो सिर्फ अश्लीलता और मूल्य ह्रास का उपकरण बन कर रह गई है, निश्चय ही बाहुबली एक नया अध्याय है भारतीय सिनेमा के नवीनीकरण और जन मानस की चेतना को अपने खोये हुए गौरव और सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत को पुनः स्मरण और प्रतिष्ठित करने का, इस देश के मानस को जो गुलामी के अँधेरे की काली छाया, वामपंथी दूषित और घ्रणित सोच से विकृत और विषाद से ग्रस्त थी उसे एक नयी ताजगी और उत्साह मिला है उसके प्राणों मे नयी उर्जा और अपनी पवित्र भूमि और उसकी अनूठी विरासत के प्रति रूचि और सम्मान जागृत हुआ है, इसे कायम रखना होगा और एक नए तल पे ले जाना होगा, ताकि १२०० वर्षों की कालिमा की कालिख और उसके निचे दबी हमारी आत्मा का गौरव और श्रेष्ठता अपने पूरे स्वरुप मे विकसित और प्रकट हो और भारत का आत्मगौरव पुनः प्रतिष्ठित हो, यह आगाज़ है एक नए भारत का जो जाग रहा है और जो कृत संकल्पित है अपने विकास और महान प्राचीन वैभव और गरिमा को पुनः प्रतिष्ठित करने और जीवंत करने के लिए, जय माँ भारती , जय भारत, जागो हे भारत, जागो, धरती की पुकार सुनो
Aaj bahubali 2 dekhi aur dosto sach me aisa lga ki abhi tak hum log kya bakwas dekh rhe the .such a great movie hme hamare culture aur bharteeyta se milane ke liye
Thanks raajmouli sir