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एक दिन ऑफिस धोती पहन कर चला गया, उसके बाद जो हुआ वो आप खुद ही देखिये

Marmik Shah द्वारा Marmik Shah
25 June 2017
in संस्कृति
धोती
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एक दिन ऑफिस धोती पहन कर चला गया

हर वर्ष समूचे विश्व में 19 जून को विश्व एथनिक दिवस [World Ethnic Day] ज़ोर शोर से मनाया जाता है। हर वैश्विक संस्था का अनुकरण करने के उद्देश्य से भारतीय संस्थाएं भी इस दिन में छोटा ही सही, पर अपना योगदान भी देती है। एक संस्था, जिसके लिए मैं काम करता हूं उसने भी इसका अनुसरण किया और इस अवसर के हिसाब से सभी को एथनिक पहनने के लिए कहा गया था। ऑफिस के ईमेल में दिये गए निर्देशानुसार मैंने एक सफ़ेद धोती पहनी, और साथ में एक सादा लाल कुर्ता पहना था। पहनावे को पूरा करने के लिए मैंने कोल्हापुरी चप्पलें भी पहनी थी।

अपने पहनावे पर मुझे गर्व था और इसी पहनावे के साथ सुबह सुबह अपने कार्यालय के लिए लोकल ट्रेन पकड़ी। पर उस दिन सब कुछ अलग लग रहा था, और मुझे ज़्यादा समय नहीं लगा यह पता करने में की ऐसा क्यों लग रहा था ?

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ट्रेन का पूरा कंपार्ट्मेंट ऑफिस या कॉलेज जाने वाले युवा पीढ़ी से भरा हुआ था,  और उनके लिए मेरा पहनावा कुछ अजीब था तभी मैं उस वक्त सभी का आकर्षण केंद्र बना हुआ था। ऐसा हो भी क्यों न बड़े शहरों में कॉलेज या ऑफिस में भला कोई पारंपरिक परिधान धोती में क्यों आएगा?  पर फिर भी इस तरह से परिधान (धोती) को लेकर दिनभर मिलने वाली तीव्र प्रतिक्रियाओं ने मुझे काफी अचंभित किया था।

ऑफिस पहुंचने पर एक अलग ही दृश्य देखने को मिला। महिलाएं पारंपरिक परिधान में दिखाई दीं ज़्यादा परंतु पुरुष पूरी तरह से इसका अनुसरण करते हुए नहीं दिखे, ऐसा कोई नजर नहीं आ रहा था जिसने भारतीय परिधान पहनने की बात का अनुसरण किया हो। ऐसा नहीं था कि किसी ने भारतीय परिधान नहीं पहना था, पर अधिकांश लोग बड़े चाव से जीन्स और टी शर्ट पहनकर आये थे। फिर भी भारतीय परिधान जिसने पहना भी था वो खिचड़ी की तरह मिश्रित था, जैसे इंडोवेस्टेर्न्स, पोलो पेंट के साथ छोटे कुर्ते, चूड़ीदार पाजामों के साथ जोधपुरी बंधगला, या फिर शेरवानी। पर जब अपने परिधान पर मुझे गर्व करना चाहिए लेकिन सम्पूर्ण भारतीय परिवेश में होते हुए भी मुझे ऑफिस में अजनबी सा लग रहा था।

और इसपर सभी की प्रतिक्रिया? बाप रे बाप, खुद ही देखिये इनकी समझ……….

एक व्यक्ति ने चौंकते हुए पूछा – तुम धोती में चल कैसे लेते हो?

दूसरा व्यक्ति – धोती गिरता नहीं है क्या?

चूड़ीदार में घुटता आदमी पूछता है – डूड , सेफ़्टी पिंस लगाई है न?

एक और भाई बोला:- भाई ये कुछ ज़्यादा हो गया?

इससे मेरे दिमाग में कई खयाल उभर आए:-

धोती और कुर्ता को क्यों नाकारा जाने लगा है?

ख्याल ये कि सभी की ये प्रतिक्रियां क्यों? इसमें इतना आश्चर्यचकित होने की क्या आवश्यकता है? इसमें नया क्या है? अब मालगुडी डेज़ को ही ले लीजिये, जब एक युवा स्वामी धोती में भागता था 90 के दशक के लोगों के जहन में आज भी होगा ही, या अपने सुपरस्टार रजनीकान्त को ही देख लीजिये, जो अपने लुंगी बांधने की कला के लिए दुनिया में प्रसिद्ध भी हैं फिर लोगों के अंदर मेरे पहनावे को लेकर इतनी हैरानी क्यों। अपने देश के इतिहास में ये सर्वविदित है कि कैसे कुर्ता धोती या लुंगी प्राचीन हिन्दू सभ्यता का एक अभिन्न हिस्सा बन गया था, अब आज के समय में आते हैं 2019 के समय में और पाते हैं कि हिंदू सभ्यता का अभिन्न हिस्सा रहे धोती कुर्ते बड़े शहरों से गायब है, और कैसे अब भारत के ग्रामीण इलाकों में भी ये चलन सेंध मारी कर रहा है।

आजकल के मेट्रो शहर में लोग धोती कुर्ते को अनपढ़ गंवार का पहनावा समझते हैं, जिसे पश्चिमी सभ्यता और विचारधारा की रत्ती भर भी समझ नहीं है। अरे इन मंदबुद्धियों को कौन समझाये की रमन इफैक्ट का आविष्कार करने वाले सीवी रमन, हमारे अमर क्रांतिकारी और बहुरूपिया श्री चन्द्र शेखर आज़ाद, या फिर खुद हमारे देश के महान बापू, महात्मा गांधी, सब कुर्ता धोती ही तो पहनते थे। ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य सोच हानिकारक है, पर उस सोच का क्या औचित्य, जो हमें हमारी ही सभ्यता को भूलने में शाबाशी समझे? भारतीय युवा पिछले 3  दशकों में आधुनिकता के नाम पर ऐसी अंधाधुंध दौड़ में शामिल हो गया है कि वो अपने मूल जड़ों से ही विमुख होगया है, और उन्हें 2019 में धोती पहनना हास्यास्पद प्रतीत होता है।

और इस अलगाव की भावना को और तूल दिया कथित मिशनरी संस्थाओं ने अपने मीडिया के दलालों के जरिये हमारे दिमागों  में ये डाला कि भारत और उसकी सभ्यता असभ्य लोगों की सभ्यता है, और हमारे परिधान गंवार बंजारों वाले हैं। स्कूल की किताबें हो या टीवी सिरियल/ मूवी, हर जगह भोले भारतियों को उनकी सभ्यता के विरुद्ध बरगलाने की कोशिश की गयी है, मानो भारतीय सभ्यता नकारा है, और पश्चिमी सभ्यता खुशहाल और अलौकिक। हिन्दी अनपढ़ गंवारों की भाषा है और अंग्रेजी सभ्य लोगों की भाषा। धोती कुर्ता लाचारों और बेरोजगारों के लिए है और जीन्स टी शर्ट सभ्य, वैश्विक नागरिकों के लिए है।

हैरानी की बात है कि 21वीं सदी के उदारवादियों को प्रसन्न करने के लिए लोग अपने ही सभ्यता से मुंह मोड़ रहे हैं. परन्तु अगर कोई जो भारतीय सभ्यता के नजदीक बना भी हुआ है तो  उसका बुरी तरह मज़ाक उड़ाया जाता है। जो सोच अंग्रेजों ने प्रसारित की है, और बाद में इवेंजलिस्ट मिशनरियों ने इसे और ज्यादा बढ़ावा दिया कि ये सोच आज के लोगों में अंदर तक समा गयी है. और लोगों को पता ही नहीं चला कि कैसे और क्यों, हर रोज़ उन्हें बरगलाया और बहकाया जाता रहा है।

अब मेरा सवाल है कि भारत जैसे गरम और उमस से परिपूर्ण देश में धोती या लुंगी से बेहतर क्या परिधान हो सकता है भाई? चाहे दक्षिण में लुंगी या मुंडु हो, यहाँ अरुणाचल प्रदेश में पहनी जाने वाली चदोर या रिगू हो, मणिपुर का फनेक/ सरोंग हो या फिर मेघालय में पहनी जाने वाली जैनसेन हो, ऐसे परिधान हमारे पूर्वजों की धरोहरें है। पहले के परिधान हमारे सुविधा अनुसार बनाए जाते थे, जबकि आज के परिधान, चाहे औपचारिक हों, या अनौपचारिक, सिर्फ दिखावे के लिए बनाए जाते हैं।

निष्कर्ष:-

ये सच है कि किसी को क्या पहनना चाहिए और क्या खाना चाहिए, इस पर उपदेश देने का हमारा कोई अधिकार नहीं है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि 21वीं सदी में आगे बढ़ने के नाम पर हम अपने ही जड़ों से विमुख हो जायें, अपनी ही संस्कृति को ठेंगा दिखायें। सोश्ल मीडिया के प्रभाव और लोगों में बढ़ती जागरूकता के जरिये, हमारे सभ्यता वापसी का अभियान चलाया जा सकता है। पूर्वोत्तर और मेट्रो शहरों के वासी दक्षिण भारत से थोड़ी प्रेरणा ले सकते हैं, जहां आज भी लुंगी और मुंडु को बड़े सम्मान से देखा और पहना जाता है। नरेंद्र मोदी को ही देख लीजिये, कैसे बिना पाश्चात्य संस्कृति की अंधाधुंध नकल किए अपनी संस्कृति और परिधान, दोनों की विश्व में गरिमा बढ़ाते आ रहे हैं!

इस लेख को पढ़ने के बाद जो धोती, लुंगी या मुंडा पढ़ने के इच्छुक हैं और उन्हें ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है कि कैसे पहना जाये, ये काफी सरल है। इसे बांधने के तरीके आपको सरलता से इंटरनेट पर मिल जायेंगे।

Tags: धोती
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