पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर से कोई बेवकूफ़ ही अपरिचित होगा अपने भारत में। एक आम हिन्दू को अपने जीवन काल में जिन पवित्र चार धामों की यात्रा करनी है, ये उन्ही में से एक ऐसा धाम है।
जगन्नाथ मंदिर को कभी इस्लामिक आतताइयों के अत्याचार भी झेलने पड़े थे।
सनातनियों के प्रिय तीर्थ स्थलों में से एक पर बारंबार कट्टर मुसलमानों ने हमले किए, क्योंकि उन्हे लगता था की बुतपरस्त हिन्दू तभी हटाये जा सकते हैं, जब भारत भर में कोई मंदिर ही नहीं पूजने के लिए बचेगा।
13वीं सदी से लेकर मराठाओं के 18वीं सदी में आगमन तक, जगन्नाथ मंदिर ने बारंबार कई हमले झेले, पर उड़िया राजाओं की प्रतिबद्धता के कारण एक बार भी अपनी जगह से नहीं उखड़ पाया, खासकर खुर्दा के बागी राजाओं की कृपा से।
इससे पहले की दिल्ली या बंगाल के इस्लामिक शासकों द्वारा बरसाए गए कहर को विस्तार से समझे, हमें ये जानना चाहिए की जगन्नाथ मंदिर पर इस्लामी शासकों ने क्यों थोड़ा रहम रखा, क्योंकि इस भूमि से जो तीर्थ यात्रा महसूल के नाम पर राजस्व वसूला जा सकता था, उसका कहीं कोई मुकाबला नहीं था।
मखजान ए अफ़्घाना में नियामतुल्लाह ने लिखा है की कैसे सुलेमान काइरारानी के कट्टर सरदार काला पहाड़ ने जगन्नाथ मंदिर पर चढ़ाई की थी। इस कथा का जगन्नाथ मंदिर के वृत्तांत, मादला पणजी में भी है, जिसमें लिखा है की काला की चढ़ाई से पहले मुख्य मूर्ति को हटाकर चिलिका झील में एक द्वीप पर स्थाननिरंतित किया गया, पर ये उसने देख लिया, और मंदिर को लूटकर वहाँ के सारे मूर्तियाँ ध्वस्त करने के बाद उन्होने इस मूर्ति को आग के हवाले कर दिया, क्योंकि वो लकड़ी का बना था, और उसके अधजले हिस्से समुद्र में फेंक दिये। मादला पणजी में कहा गया है की पवित्र मूर्ति के अवशेषों को गंजाम के शासक ने समुद्र से बाहर निकाला, और उन्हे मिलकर नई मूर्तियाँ सम्मान सहित 1575 में स्थापित की।
कई सेक्युलर इतिहासकार इसका श्रेय अकबर के राजस्व मंत्री श्री टोडरमल को देते हैं, पर आइन ए अकबरी में लेखक अबुल फज़ल इस मसले पर चुप्पी साधे बैठे हुये हैं।
बाद में ये इलाका अफगान और मुग़लों के युद्ध में फंस गया, जिससे यहाँ प्रार्थना करने का प्रश्न पीछे खिसक गया।
1589 में मुग़लों ने मान सिंह के अंतर्गत एक विशाल सेना भेजी, जिसके बाद संधि के तहत जगन्नाथ मंदिर परिसर को राजभूमि में परिवर्तित करा गया, जिससे सारा राजस्व मुग़ल सल्तनत के नाम हो गया। अफगानों से मंदिर की मरम्मत का आदेश दिया गया, पर जैसे ही मुग़ल पीछे हटे, इनहोने मन्दिर को फिर से तहस नहस कर दिया [अकबरनामा, तीसरा भाग, पृष्ठ 934]
मानसिंह फिर आए 1591-92 में मसलों को सुलझाने के लिए और जगन्नाथ मन्दिर के लिए मंडप कक्षा बनाने के वास्ते। ये वाकये से हमें बताने की कोशिश की जाती है की कैसे मुग़लों ने हमारे धर्मों का मान सम्मान रखा, पर हमें ये भी जानना चाहिए की नियमतुल्लाह ने अपनी पुस्तक में क्या लिखा। वो लिखते हैं की वहाँ सब कहते हैं की जो कोई उन मूर्तियों को अपने साथ ले गया, उन पर आपदा आ पड़ी और साल भर के अंदर ही उनकी मृत्यु हो गयी।
इस मन्दिर की पवित्रता और अलौकिकता का खौफ़् इनके घर कैसे करा, इसकी बानगी अहमद राज़ी, जो हफ्ट इकलीम के लेखक भी थे, ने दी है, जिसमें उन्होने एक मौलवी की दर्दनाक मौत की दास्तां बयान की है, जिनकी मौत उनके जगन्नाथ में श्रीकृष्ण की मूर्ति पर थूकने से हुई थी।
जहाँगीर के राज में जगन्नाथ मन्दिर को फिर संकट का दौर झेलना पड़ा, जब उनके सेनापति हाशिम खान को उड़ीसा का सूबेदार नियुक्त किया गया। हर बार की तरह इस बार भी मूर्तियों को कहीं और भेजना पड़ा। खुर्दा के राजा ने दुश्मनों से लड़ने की हिम्मत ज़रूर की, पर वे हार गए और दंड के तौर पर उन्हे अपनी एक बेटी जहाँगीर के शाही हरम में भिजवानी पड़ी।
जब राजा कल्याण ने सत्ता संभाली, जो राजा टोडरमल के पुत्र थे, तब भी स्थिति यथावत थी। शाह जहां के दौर में भी कुछ नहीं बदला, क्योंकि वे बागी मुग़ल सरदार मुकर्रब खान से लड़ने में व्यस्त थे।
पर औरंगजेब के काल में तो हद ही हो गयी, जब खान-ए-दौरान- ने पास के बलदेव मन्दिर को नष्ट कर दिया। चूंकि मन्दिर अच्छा राजस्व देता था, इसलिए उसे छूया तक नहीं गया।
1676 में शाइस्ता खान की आक्रमणकारी मुग़ल सेना बीच रास्ते लौट आई, जब उनके शिविर में बिजली के गिरने से आग लगने लगी। डरी हुई मुग़ल सेना ने अगले एक दशक तक मन्दिर पर हमला करने की सोचा तक नहीं।
1686 में एकरम खान को उड़ीसा का राज्यपाल नियुक्त किया गया, और उसने खुर्दा के राजा को धम्की दी, की यदि सुल्तान को जगन्नाथ की मूर्ति नहीं दी गयी, तो बुरा हश्र होगा। खुर्दा के राजा ने रक्षा में युद्ध तो ज़रूर किया, पर संधि के लिए उन्हे 1692 में मजबूर होना पड़ा।
राजा ने समर्पण तो कर दिया, पर असली मूर्ति को चंदनपुर भिजवा दिया, जहां वे 15 साल तक रही, और जहां औरंगजेब शिविर में रुका था, यानि बीजापुर में, वहाँ उसकी प्रतिमूर्ति भिजवा दी। उस मूर्ति को तोड़कर स्थानीय मस्जिद की चौखट पर फेंक दिया गया।
एकरम खान ने भोगमंडम को विस्थापित ही नहीं किया, बल्कि मंदिर के द्वार भी उखाड़ दिये, और मंदिर को दर्शनों के लिए बंद कर दिया गया।
(एंटिक्वीटीस ऑफ उड़ीसा –आरएल मित्रा, प्रथम वॉल्यूम पृष्ठ 112)
1727 में इस इलाके का शासन बंगाल के नवाब के सुपुत्र ताकि खान ने किया, जो एकरम खान जितना ही कट्टर था। मूर्ति को फिर से मुफ़लिसी के दिन देखने पड़े।
1741 में मराठाओं ने आखिरकार उड़ीशा को आतताइयों के चंगुल से मुक्त कराया, और जगन्नाथ मंदिर को उसकी श्रद्धा के अनुसार पूरे सम्मान से पुनर्स्थापित किया।
ये वामपंथी इतिहासकार चाहे जितना भी चिल्ला ले, हिंदुओं की आस्था इसीलिए आज तक बची है, क्योंकि सनातन धर्म से जो सांस्कृतिक जुड़ाव एक व्यक्ति का होता है, वो शायद ही किसी और पंथ में देखने को मिले। आइये, इस रथ यात्रा याद कर उन्हे, जो इसके आन बान और शान के लिए अपने आप को न्योछावर कर बैठे।