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पीएम मोदी कांग्रेस को 2014 से लेकर अबतक 14 बार धूल चटा चुकें हैं, और हम चुनावों की बात नहीं कर रहे

Asutosh Mohanty द्वारा Asutosh Mohanty
24 June 2017
in समीक्षा
काँग्रेस मोदी

Image Courtesy: Firstpost

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चाणक्य से कालजयी राजनीतिज्ञ शायद ही इस दुनिया में कहीं पैदा हुआ होगा। जब उन्होने यह कहा था ‘बाहरी शत्रु से सीमा की सुरक्षा सरल है, परंतु अगर सीमा के अंदर देशद्रोही हो, तो कोई भी आपके देश को पटखनी दे सकता है।“ , तो वो बिलकुल भी गलत नहीं थे। हाल ही में घटित कुछ घटनाएँ ऐसी हैं, जो बरबस ही इस कथन की याद दिला देती हैं। ये उस शत्रु की तरफ इशारा करती है, जो पहचान में तो नहीं आता, पर जब अपनी औकात पे आता है, तो अपने देश में अकल्पनीय तबाही मचाने का माद्दा भी रखता है, जिससे उनके विदेशी आकाओं और स्थानीय हैंडलरों की सत्ता की ठसक को कोई ललकारने का साहस भी न कर सके।

मई 2014 में हमारी मातृभूमि के राजनैतिक पटल पर एक लंबी छलांग लगाई गयी, जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केसरिया सुनामी ने पूरे राजनैतिक समर को भगवा रंग से रंग दिया। ये हिन्दू आशाओं का प्रतीक था, यह वोट नरेंद्र मोदी के प्रेरणादायक नेतृत्व और ‘पहले भारत’ की नीति के लिए था। अब छद्म धर्मनिरपेक्षता या धर्म/जाति के नाम पर तुष्टीकरण आधारित राजनीति अब और नहीं चलने वाली थी। चाहे नकली सेकुलरवादी राजनेता हों, या बुद्धिजीवी वर्ग, या फिर आदर्शों से भटकी पूर्व फोर्थ इस्टेट [भारतीय मीडिया], सबके इरादों पर भगवा पानी फेरा गया।

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सीपी राधाकृष्णन की जीत: राष्ट्रवादी संदेश, विपक्षी प्रतिक्रिया और भारतीय राजनीतिक परिदृश्य

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राजनीति में बने रहने के लिए मुद्दे को सुलगाना राजनीति की दुनिया का शाश्वत सत्य है। हाशिये पर लगभग सिमट चुकी काँग्रेस को ज्ञात हो चुका की मोदी किसका प्रतिनिधित्व करते हैं, और ये भी जान गए थे की मोदी लोकसभा से पायी बहुमत और जनता के विश्वास के साथ क्या बदलाव ला सकते थे।

अब काँग्रेस के पास सिर्फ एक उपाय बचा था, की हवा से मुद्दे निकालना और छोटे छोटे लड़ाइयों को दंगे का रूप देना, वरना क्या पता बीजेपी की सौगातें उनका नाम ही इस दुनिया के इतिहास से मिटा दें।

इस नफरत से भरे अभियान का आरंभ हुआ चर्चों पर कथित हमले करवाके, वो भी ठीक दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 से आएँ पहले, और अवार्ड वापसी और असहिष्णुता का राग अलापकर बिहार चुनाव में अपने आकाओं को विजय भी इनहोने दिलवाई। उसके बाद चाहे जेएनयू में भारत विरोधी नारों का समर्थन हो, या वन रैंक वन पेंशन का बखेड़ा बनाना हो, या रोहित वेमुला की मौत का भद्दा राजनीतिकरण हो, या फिर गुजरात में पाटीदार आंदोलन को और भड़काना हो, या फिर केरल में खुलेआम एक निर्दोष गाय की हत्या हो या फिर मध्य प्रदेश में हाल ही में निर्दोष किसानों को भड़काकर विरोध के नाम पर ये पार्टी अब कानून अपने हाथ में लेकर दंगा करवाना चाहती है।

इनकी नीति एकदम साफ है, पहले हाहाकार मचाओ, फिर इसे रोकने में लगे लोगों को ही खलनायक बनाओ, और फिर मसीहा बन इस देश पर कब्जा करो, और इसे अपनी तानाशाही से और बर्बाद करो, बिलकुल जैसे अव्वल दर्जे के तानाशाही गुंडे एडम सटलर ने मशहूर हॉलीवुड फिल्म ‘वी फॉर वेन्देत्ता’ में अपने गुंडों की टोली के साथ किया था।

अब आप एक दृष्टि डालिए इस महान पार्टी के नेक इरादों पर, जो मोदी सरकार [जो अभी तक घोटाला मुक्त रही है और ग्रामीण भारत को सशक्त करने के लिए कुछ ठोस कदम भी उठाई हैं] के रंग में भंग डालने को आतुर हैं:-

आरक्षण के नाम पर हिंसा भड़काना:-

  1. जाट आंदोलन की पटकथा स्वयं काँग्रेस ने लिखी थी, जिससे न सिर्फ हिंसा भड़के और एनडीए की सरकार गिरे, बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के पंचकुला में अवैध तरीके से आवंटित भूमि पर बिठाई सीबीआई जांच पर से नज़र भी हटे। सार्वजनिक और निजी संपत्ति मिलाके इस आंदोलन से करीब 20000 करोड़ का नुकसान हरियाणा की जनता को उठाना पड़ा। राज्य प्रशासन की जांच में ये सामने आया की कैसे पूर्व मुख्यमंत्री के मुख्य सलाहकार, प्रोफेसर वीरेंदर ने राज्य में ये आग भड़काई थी, जिसके तहत सबूत में पेश एक औडियो क्लिप में साफ सुनाया गया था, की कैसे वीरेंदर साहब ने सिरसा में आग भड़काने के निर्देश दिये थे, देशवाल क्षेत्र, जिसमें रोहतक, जींद और सोनीपत के कुछ हिस्से आते हैं, में व्याप्त हिंसा के लिए अपने गुर्गों की प्रशंसा की थी।
  2. गुजरात का पाटीदार या पटेल आंदोलन। जुलाई 2015 में पाटीदार समुदाय के लिए आरक्षण की मांग करने वाले हार्दिक पटेल ने सम्पूर्ण गुजरात में आंदोलन और प्रदर्शन करवाए। महज 22 वर्षीय इस नेता के नेतृत्व में ऐसे वक़्त पर हिंसा और आगजनी हुई, जब बिहार चुनाव ज़्यादा दूर नहीं था। इसके चक्कर में जो कर्फ़्यू लगाया गया था, और जिस स्तर पे लगा था, वो बिना किसी बड़े राजनैतिक पार्टी के समर्थन के संभव ही नहीं था। इसका उत्तर भी है हमारे पास, जो खुद काँग्रेस की गुजरात इकाई ने कुछ ही दिन पहले प्रकाशित की थी। “अहमदाबाद में 12 मई 2017 को गुजरात काँग्रेस ये एलान करती है, की वो पाटीदार आंदोलन के मुख्य चेहरे, युवा और जोशीले नेता हार्दिक पटेल को पूरा समर्थन देगी, बावजूद इसके की काँग्रेस खुद 2017 के गुजरात चुनाव के लिए बतौर विपक्षी पार्टी चुनाव लड़ रही है।“

दलित घटनाओं से समाज में नफरत फैलाना

  1. दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय चर्च पर सुनियोजित हमले कराकर, और दादरी में फैली हिंसा में नमक मिर्च लगा के, गोपाल कृष्ण गांधी के साक्षात्कार सहित काँग्रेस पार्टी ने असहिष्णुता नामक नाटक की सफलतापूर्वक रचना की। उनके दलाल, माने की लुटयेंस वाली दिल्ली से निकले उनके बुद्धिजीवी चाटुकार असहिष्णुता के कथित विषय पर चर्चा कर अपने अवार्ड वापस करने का ढोंग रचते हैं, उसी वक़्त जब बिहार के चुनाव नजदीक हों। इनके आडंबरों से न सिर्फ भारत की विश्व में छवि खराब होती है, बल्कि इनके आकाओं को 10 जनपथ में बैठे बैठे परम आनंद मिलता है। मज़े की बात तो यह है, की यह सारा नाटक चुनाव के परिणाम घोषित होते ही बंद हो जाता है, और यही बुद्धिजीवी अपने पुरुस्कार वापस भी ले लेते हैं।
  2. फिर बात आई रोहित वेमुला की असामयिक मृत्यु की। राहुल गांधी और उनके परम चापलूस केजरीवाल की बी टीम तुरंत हैदराबाद पहुँच गयी और इसको एक अलग ही तूल देने लग गए, और इसमें दलित एंगल डाल कर मोदी सरकार की मिट्टी पलीद करने में जुट गए, जबकि गुंटूर जिले, आंध्र प्रदेश द्वारा बिठाई गयी जिला स्तरीय जांच समिति ने यह निष्कर्ष निकाला, की न तो रोहित वेमुला दलित है, और न ही उसकी माँ, राधिका वेमुला, जो दलित के नाम पर झूठी सहानुभूति बटोर रही थी।
  3. रातों रात मानवाधिकार के करता धर्ता पहुँच जाते ऐसे स्थलों पर, जहां पर वो अमन बहाल करना कम, कानून व्यवस्था की पुंगी ज़्यादा बजाते हैं। झूठी सहानुभूति के नाम पर वो ऐसे दिखाते हैं, मानो दलितों के हितों की रक्षा सिर्फ राहुल गांधी और उनके चमचे ही कर सकते हैं, और सहारनपुर घटना से इस सिद्धान्त का प्रत्यक्ष प्रमाण आपको कहीं और नहीं मिलेगा। पर यही ढोंग तो स्टेलिन और हिटलर के चमचों ने भी अपने आका को सत्ता दिलाने के लिए किया था न?
  4. खुले आम गौ माता की केरल में कथित बीफ प्रतिबंध के विरोध के नाम पर हत्या, जबकि सच तो यह है की मांस के नज़रिये से गौवध पे रोक को मीडिया वालों ने बीफ बैन का नाम दे दिया।

देश द्रोही कृत्यों का अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, मानव अधिकार और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के नाम पर सहयोग और समर्थन

7. जेएनयू का विद्रोह, जहां पर कई विद्यार्थी खुले आम देशद्रोही नारे लगा रहे थे, जैसे ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’, ‘भारत की बरबादी तक जंग रहेगी’, ‘अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल ज़िंदा हैं’, इत्यादि। इनके समर्थन में सीताराम येचूरी, अरविंद केजरीवाल और राहुल गांधी जैसे कई नामचीन नेता कूद पड़े, और तो और लुटयेंस मीडिया ने खुले आम इनके नारों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के आड़े में समर्थन भी दिया। ये वो अवसर था, जब अलगाववादी और अति वामपंथी एक ही आवाज़ में कई विश्वीविद्यालयों में अपना जहर एक ही सुर में फैला रहे थे।

8. पत्थरबाज़ों और हुर्रियत नेताओं के प्रति हमदर्दी। काँग्रेस के प्रमुख नेता मणिशंकर अय्यर गीलानी और बाकी अलगावादियों से बातचीत के लिए एक पूरी बुद्धिजीवियों की संगठित टोली बना कर ले गए, जिससे न सिर्फ भारत और जम्मू कश्मीर के वासी, बल्कि वैश्विक हितों के संरक्षकों को भी एक निहायती वाहियाद और दुविधाजनक संदेश भेजा गया। याद रहे, ये वही अय्यर हैं, जिनहोने मोदी जी के चायवाले होने का मज़ाक भी उड़ाया, और पाकिस्तान जैसे आतंकवादी मुल्क से एनडीए सरकार की तख्तापलट में काँग्रेस की सहायता के लिए भी मांग की। हाल ही में, जब एनआईए और ईडी की संयुक्त टीम ने श्रीनगर से लेकर नई दिल्ली तक आतंकी फंडिंग को लेकर धावा बोला, तब सबसे पहले विरोध में काँग्रेसियों ने ही आवाज़ उठाई।

हमारे पवित्र सेनाओं को अपमानित करना/ फूट डालना

9. यह इन्दिरा गांधी ही थी, जिनहोने वन रैंक वन पेंशन को 1973 में हटाया था, और आगामी काँग्रेस सरकारों ने हर बार भारतीय सैनिकों की प्रतिष्ठा को ओआरओपी के नाम पर मिट्टी में मिलाया था। यही नहीं, कार्यान्वयन के लिए इनहोने महज 500 करोड़ रुपये निकाले  थे, जबकी इतने का घोटाला तो अरविंद केजरीवाल पहले ही छह महीने में निकाल चुके थे। मजे की बात, जब नरेंद्र मोदी सरकार ने पूरी प्रतिष्ठा सहित सैनिकों को ओआरओपी की तहत उन्हे उनका उचित हक दिया, तो यही फैसला महान पार्टी के थिंक टैंक के गले नहीं उतर पाया। सही ही तो है, कुत्ते को देसी घी और ठगों को लोक कल्याण के फैसले कभी हजम नहीं होते।

10. सर्जिकल स्ट्राइक्स राष्ट्रविरोधी राजनैतिक संगठनों ने तो सेना के उन नौजवानों को भी नहीं छोड़ा, जिनहोने उरी हमले में शहीद अपने 17 भाइयों की मौत का बदला एलओसी पार जाकर लिया। पाकिस्तान के झूठे दावे का समर्थन कर अपनी ही सेना पर सवाल उठाने में इन्हे ज़रा भी शर्म नहीं आई। इतना ही नहीं, इनका तो यह मानना था की भारतीय सेनाओं में ऐसा कार्य करने की क्षमता ही नहीं है। अच्छा, तो भाई, कार्गिल युद्ध में क्या हमारे सैनिकों ने दुश्मन की आरती उतारी थी? इस्से देख तो लक्ष्य फिल्म का वो संवाद मेरे दिमाग में कौंध उठता है:- “……..तो क्या करें? हाथ जोड़ के खड़े हो जाएँ उनके सामने? थाली में सजा के अपना मुल्क, हवाले कर दें उनके?”

11. बीएसएफ़ का रद्दी खाने वाला विडियो:- कथित तौर पर खराब खाने के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले सैनिक तेज बहादुर यादव को न कोई गरीबी की दिक्कत है, और न ही वो बेसहारा है। विपक्ष के हर नेता के साथ इनका उठाना बैठना होता है, और मध्य प्रदेश की काँग्रेस यूनिट ने ही मई 2017 में इन्हे सम्मानित भी किया है। अब तार जोड़ लीजिये।

12. राष्ट्रविरोधी काँग्रेसियों ने वामपंथियों के साथ मिलकर सेना की प्रतिबद्धता पर एक बार फिर सवाल उठाए, जब मेजर गोगोई ने अनूठे ढंगे से पत्थरबाज़ों को काबू में किया। काँग्रेस के नेता संदीप दीक्षित ने न सिर्फ भारतीय थलसेना को अपमानित किया, बल्कि सेनाध्यक्ष बिपिन रावत को ‘सड़क का गुंडा’ भी कहा।

किसानों का राजनैतिक फाड़े के लिए बेजा इस्तेमाल

13. गरीब किसानों को भूमि अधिग्रहण बिल रोकने के लिए उकसाना, क्योंकि काँग्रेसियों को डर था की कहीं भाजपा सरकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विकास की नयी ऊँचाइयाँ न नापने लगे। सच तो वैसे यह है की आरटीआई क्वेरी के अनुसार कई काँग्रेस शासित राज्य ही यह चाहते थे की इस बिल में सुधार हो।

14. तमिल नाडु एवं मध्य प्रदेश किसान आंदोलन, जिसमें तमिल नाडु आंदोलन तमिलनाडू में न होकर जंतर मंतर, दिल्ली में कराया गया, और इसके मुक़ाबले किसानों ने मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के अंदर अंदर ही आंदोलन किया। तो यह पहचानना काफी आसान है की कौन इसके पीछे है। देखिये कुछ तथ्यों को , जिससे यह साबित होता है की कैसे राज्य के काँग्रेस नेताओं ने 10 जनपथ से ऑर्डर लेकर दंगा भड़काने और सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचने का बीड़ा उठाया।

काँग्रेस के नकाबपोश गुंडों ने सारी शराब की दुकानें और टोल प्लाज़ा पर जमकर लूटपाट की, दर्शनीय स्थलों पर तोडफोड मचाई, बसें, ट्रक और न जाने क्या क्या जलाकर राज्य पुलिस और जिला कलेक्टरों के साथ अभद्रता भी की। पुलिस के पास अब इन निम्नलिखित गुंडों के खिलाफ पुख्ता सबूत हैं:-

  1. काँग्रेस नेता डीपी धाकड़, जिन्हे टेप पर मध्यप्रदेश में आगजनी और दंगा भड़काते हुये पकड़ा गया।
  2. काँग्रेस विधायक जीतू पटवारी, जिन्हे एसडीएम इंदौर संदीप सोनी के साथ अभद्रता करने और हिंसा भड़काने के साथ किसानों को गरियाने का भी दोषी पाया गया।
  3. एक और काँग्रेस नेता, फैज़ान खान, जो दिग्विजय सिंह के खास हैं, और जिन्हे सोनिया गांधी के कहने पर दंगा भड़काने का आदेश दिया गया था।
  4. युवा काँग्रेस के अध्यक्ष श्याम गुज्जर, जिनहोने रेल्वे की पटरियाँ खोदने का आदेश दिया अपने कार्यकर्ताओं को।
  5. करेरा क्षेत्र से वर्तमान विधायक शकुंतला खटीक, जो खुलेआम पुलिस थाने में आग लगाने के लिए लोगों को भड़का रही थी।

काँग्रेस पार्टी, जिसकी पहचान ही नेहरू गांधी खानदान से है, ने बहुत साल तक इस देश को अपनी बपौती समझ कर शासन किया था। ये लोग सत्ता से निष्कासन हजम नहीं कर पाते। उनके जले पर नमक छिड़कने के लिए राहुल गांधी का गैर जिम्मेदाराना रवैय्या ही काफी है, जो राजनीति को एक पार्ट टाइम जॉब समझते हैं, और मतदाताओं को आकर्षित करने का जो करिश्मा होना चाहिए, वो उनमे नदारद है।

नेतृत्व के इस खालीपन से एक बात साफ है, जब देश की सबसे पुरानी पार्टी हाशिये पर चली जाये, तो वापसी के लिए अगर ये साम दाम दंड भेद की नीति भी अपनाए, तो कोई हर्ज़  नहीं! चाहे इसके लिए इन्हे देश को तोड़ने वाली ताकतों से हाथ मिलाकर अराजकता ही क्यों न फैलानी पड़े। भय बिनु होइए न प्रीति के सिद्धान्त को इनहोने बड़ी ही गलत तरीके से आत्मसात किया है।

एक बात तो साफ है, काँग्रेस हार स्वीकार करने को तैयार नहीं है, और मोदी सरकार के आने के बाद से और भी कुटिल और घातक बनने की कगार पर है। वक़्त की मांग है की बीजेपी सतर्क रहे और भारत के विकास रथ में बाधा बन रही ऐसी ताकतों के इरादों पर पानी फेर दे।

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