कारगिल विजय की 18वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू विवि में विजय दिवस का एक कार्यक्रम किया गया था जिसमें जेएनयू के शिक्षकों और छात्रों ने कारगिल के शहीदों और पूर्व सैनिकों के साथ मिलकर 2200 फीट का तिरंगा लेकर एक मार्च निकाला और जेएनयू के कन्वेंशन सेंटर में परमवीर चक्र से सम्मानित जवानों की तस्वीरों को श्रद्धांजलि अर्पित की।
इसी कार्यक्रम में जेएनयू के कुलपति एम जगदीश कुमार ने कार्यक्रम में शामिल केंद्रीय मंत्री धर्मेद्र प्रधान और जनरल वी के सिंह से विश्वविद्यालय में सेना के एक टैंक दिलवाने में मदद करने की बात कही। छात्रों में देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति की भावना जागृत करने तथा सैनिकों के प्रति सम्मान के भाव को उठाने के लिए एक प्रतीकात्मक रूप से टैंक रखने की बात कही गयी है।
लेकिन जेएनयू के वामपंथी छात्रों द्वारा इसका पुरजोर विरोध किया जा रहा है। इन वामपंथियों के समर्थन में इनकी पूरी जमात एक चुकी है। मेनस्ट्रीम वामपंथी मीडिया से लेकर सोशल में ‘उगे’ हुए नए हिंदी के वामपंथी ‘फ़ेसबुकिया पत्रकार’ लेख लिखने से लेकर एजेंडा चलाने में व्यस्त है। अपने एजेंडे के तहत यह अपने ही विचारधारा से जुड़े लोगों के ट्वीट और लेखों को परोस कर लोगों को दिग्भ्रमित करने की कोशिश में लगे हुए हैं कि पूरा जेएनयू इसके खिलाफ है, जबकि सेना के टैंक से जेएनयू के बाकि के विद्यार्थियों और समूचे देश के लोगों को कोई आपत्ति नहीं है।
मुद्दा यह है कि आखिर इन्हें समस्या क्या है टैंक रखने में ? टैंक को तो सिर्फ रखा जा रहा है किसी पर चलाया नहीं जा रहा।
टैंक एक तरह से शौर्य और वीरता का प्रतीक है और यदि यह भारतीय सेना का टैंक है तो फिर इसको हम अपनी सेना के वीरता से जोड़कर देख सकते हैं। एक सेना का टैंक किसी भी युद्ध में थल सेना का सबसे बड़ा हथियार होता है जो कि सेना का मनोबल बढ़ाता है। किसी विश्वविद्यालय में टैंक रखने से छात्रों में देशभक्ति आएगी या नहीं आएगी यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह तय है कि सेना के टैंक को देखकर मुझे निजी तौर पर गौरव की अनुभूति होती है। वैसे भी विवि परिसर में सिर्फ टैंक रखा जा रहा है किसी भी फ़ौज को नहीं, टैंक रखने का उद्देश्य मात्र सेना के शौर्य के प्रतीक को एक प्रदर्शनी के तौर पर छात्रों तक पहुँचाने का है जिसे देखकर छात्र अपनी सेना पर गौरवान्वित हो सके और परिसर में पूर्व की तरह ‘भारतीय सेना मुर्दाबाद’ जैसे नारे ना लगे। गौरतलब हो कि पिछले वर्ष जेएनयू परिसर में भारतीय सेना के अपमान से लेकर कश्मीर की आज़ादी तक के नारे वामपंथी छात्राओं द्वारा लगाये गए थे जिसके बाद पुरे देश में उन छात्रों के प्रति आक्रोश उठा था।
भारत के मूल में प्रतीकों का सम्मान सदैव रहा है, इसीलिए तो अशोक स्तम्भ भारत राष्ट्रीय प्रतीक है। मैं निजी तौर पर एक प्रिंट मीडियाकर्मी का पुत्र हूँ, मेरा घर, परिवार अख़बार से चलता है, यह नहीं हो सकता कि अख़बार को मैं फेंक दूँ या तिरस्कार कर दूँ, कभी पैर भी लग जाये तो प्रणाम कर माफ़ी मांगता हूँ, ऐसा नहीं कि अख़बार को फेंकने से कुछ हो जायेगा लेकिन वह मेरे लिए एक प्रतीक है, लक्ष्मी और सरस्वती दोनों का प्रतीक है।
ठीक उसी तरह सेना का टैंक भी भारत के वीरता का प्रतीक है, और उसका अपमान करना सेना का अपमान है।
आज देश के कई शहरों के किसी चौक में सेना का टैंक है तो किसी गार्डन में मिग विमान! जिस विश्वविद्यालय से मैंने पढ़ाई की है वहाँ भी मिग विमान रखा गया था, लेकिन एक भी छात्र ने इसका विरोध नहीं किया, बल्कि पुरे उत्साह से उसका स्वागत किया। सेना के युद्ध स्मारक, अमर ज्योति स्मारक, जयस्तंभ, और सेना के लड़ाकू हथियार किसी शिक्षण संस्थान में छात्रों को नहीं भटका सकते, यह सिर्फ और सिर्फ छात्रों और लोगों में सेना के प्रति सम्मान और विश्वास की ही अनुभूति कराएंगे।
आज यदि हम टैंक रखने के विरोध की समीक्षा करें तो यह चीज साफ़ दिखती है कि जो छात्र विवि परिसर में अफज़ल गुरु की बरसी मनाते हो, जहाँ आतंकी याकूब के लिए मार्च निकाला जाता हो, जहाँ सेना के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया जाता हो, विवि के छात्र सेना को बलात्कारी कहते हो, उस परिसर में सेना के विजय दिवस में तिरंगा मार्च होना इनको विचलित कर गया है। जिस परिसर में अफज़ल की फोटो लगाकर ‘अफज़ल हम शर्मिंदा हैं, तेरे क़ातिल ज़िंदा हैं’ जैसे नारे लग रहें हो वहाँ सेना के परमवीर चक्र पाने वाले साहसी योद्धाओं की तस्वीर लगने से तो इनको दिक्कत होना लाज़मी है। राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज, वंदे मातरम के सम्मान में जब इनको समस्या होती है तो फिर ये कैसे देश की अखंडता के रक्षक के प्रतीक सेना के ‘टैंक’ रखने का समर्थन करेंगे।