अगर मैं शीर्षक से ‘क्यों’ हटा दूँ, तो यह न सिर्फ बड़े पैमाने पर चर्चित बयान हैं, बल्कि एक तथ्य भी है, जिसे हमारे मस्तिष्क में देश के कथित बुद्धिजीवी ठूँसना चाहते हैं, की ‘भारतीय पुरुष बलात्कार करते हैं’, या अगर इनकी चले तो यह कहें, की ‘सिर्फ भारतीय पुरुष बलात्कार करते हैं’। आरंभ करने से पहले मैं ये कहना चाहती हूँ की जिन राक्षसों ने यह अपराध वाकई में किया है, उनकी रक्षा में यह लेख बिलकुल भी नहीं समर्पित है। बस अभी अभी मैंने एक ट्विट्टर हैंडल देखा, जो इस नाम से जाता है :- @WhyIndMenRape
इस हैंडल के नाम ने सिर्फ मुझे खिलखिलाने, बल्कि मुझे झकझोरने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि एक अपराध के तौर पर बलात्कार किसी एक क्षेत्र की बपौती नहीं है, और यह कोई रिवाज नहीं है जिसका सिर्फ भारत में पालन होता है। पर हमारे महान भारतीय नारीवादियों, या असल में पुरुष विरोधियों की माने तो यही दुनिया को हमारे बारे में यही जानकारी होनी चाहिए, और भारतियों को भी यही पहचान बनानी चाहिए।
पर हमने भारतीय पुरुष और बलात्कार को जोड़ना कब शुरू किया? इस पर कुछ प्रकाश डालने से पहले मैं आपको उस दौर में ले जाना चाहती हूँ, जब निर्भया के क्रूर बलात्कार की खबर पूरी दुनिया में फैली हुई थी।
‘इंडिया’ज़ डौटर’ [भारत की बेटी] – जो सबसे विवादास्पद डॉक्युमेंट्री में से एक है, जिसने उस कुख्यात गैंगरेप केस के बारे में कुछ प्रकाश डाला था, जिसने हमारे देश की मानसिकता को झकझोर के रख दिया था, को भारतीय संसद ने प्रतिबंधित कर दिया था, जब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एक दिन पहले चेतावनी दी थी, और इसकी अवहेलना कर के इसका प्रदर्शन किया गया था।
जब प्रतिबंध की अवहेल्ना कर इस डॉक्युमेंट्री का निर्देशक लेस्ली उडविन ने प्रदर्शन किया, तो संसद में हँगामा मच गया था। प्रतिबंध के पीछे मुख्य वजह थी मामले का सूप्रीम कोर्ट में विचारधीन होना, और इसके रक्षण में संसदीय कार्य मंत्री श्री वेंकैया नायडू ने कहा ‘भारत को बदनाम करने की ये साजिश है, और ये डॉक्युमेंट्री कहीं और टेलेकास्ट की जा सकती है।’ पर कई सांसदों, विशेषकर विपक्षी सांसदों ने इस प्रदर्शन का समर्थन किया, और ये भी कहा की भारतीयों को इससे शरमाना नहीं चाहिए।
कपट की बू:-
ऊपरी ट्वीट में कथित पत्रकार सदानंद धूमे को 2012 के बलात्कार कांड के बाद पाश्चात्य मीडिया के एजेंडा में कोई कमी नहीं दिखाई देती। पर यहाँ कुछ ऐसा है जो उनके इस दावे को चुनौती देता है। कुछ ही दिन पहले इस फिल्म की छायाकार अंजलि भूषण ने इस डॉक्युमेंट्री के निर्माता एवम निर्देशक सुश्री उडविन पर बलात्कारी मुकेश को प्रशिक्षण देने और पीड़िता के परिवार से पहले से तैयार संवाद बुलवाने का आरोप लगाया।
हालांकि इन आरोपों में कितना सत्य है, ये तो ईश्वर ही जाने, पर ये पूरी तरह से झूठ भी नहीं हो सकते। क्यों, इसका कारण निम्नलिखित है:-
उडविन जी ने इस डॉक्युमेंट्री को “लैंगिक समानता की एक आवेग रहित याचिका…’ बताई थी। इनके अनुसार, “………..ये एक डॉक्युमेंट्री है जिसके लिए मुझे अपने घर का सुख और अपने बच्चे दोनों छोडने पड़े थे, ताकि मैं दो वर्ष एक अहम मक़सद, जोकि महिलाओं के हित में है, के लिए दे सकूँ, सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया भर की औरतों के लिए…..” या तो उनके इरादे अटपटे लग रहे हैं या फिर एक तीर से दो शिकार की जुगत भिड़ा रही हैं लेस्ली उडविन, जिसमें दूसरा शिकार है भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचाना।
अंजलि भूषण के आरोपों के अलावा ऐसी कई चीज़ें हैं, जिससे इस डॉक्युमेंट्री के शूटिंग पर सवाल उठते हैं। लेस्ली उडविन ने भारत में दो साल बिताने का दावा किया है, जो सरासर सफ़ेद झूठ है। असल में एक डॉक्युमेंट्री फ़िल्मकार को सिर्फ 6 महीने का वीजा मिलता है, अगर सरकारी कानून के हिसाब से चले, और इसे समय समय पर नवीनीकरण करना पड़ता है, और पर्यटक वीजा पर डॉक्युमेंट्री शूट करना कानून के खिलाफ है। वैसे भी इनके डॉक्युमेंट्री का असल शीर्षक भारत की बेटी नहीं बल्कि ‘दिल्ली – दुनिया का बलात्कारी राजधानी’ था।
और ये भी देखें, इनहोने पूरी डॉक्युमेंट्री की सम्पूर्ण फुटेज नहीं जमा की, जिसे जेल प्रशासन की अनुमति मिलती ; जिस आरोप का खंडन करती हुई ये बोली, की इनहोने 16 घंटे का सम्पूर्ण फुटेज जेल ले गयी थी, पर एक तीन सदस्यीय समिति ने तीन घंटे देखने के बाद बोला था की ‘हम पूरा समय इसे नहीं दे सकते, ये ज़्यादा ही लंबी है’ तो उन्होने एक संपादित संस्करण जमा किया, जिसे प्रशासन ने अपनी अनुमति देदी।
असल षड्यंत्र
विदेशी षड्यंत्र पर वापस आते हुये मारिया विर्थ के ब्लॉग से कुछ शब्द व्यक्त करना चाहूंगी:-
“जर्मनी में मेरी पिछली यात्रा पर, मैं हैरान रह गयी, जब टीवी पर सबसे लोकप्रिय खबर खत्म हुई ‘एक और बलात्कार हुआ भारत में’। 15 मिनट के प्रसारण के ये पाँच विषयों में से एक विषय था। इस बलात्कार का अप्रत्याशित प्रचार किया गया। पूरे दुनिया में ये खबर जंगल के आग की तरह फैल गयी। ये स्लोवेनिया में मेरे एक दोस्त के पास भी पहुंची, जिसे आमतौर पर इन सबसे कोई मतलब नहीं। पर इसे इतनी तीव्रता से क्यों प्रकाशित किया गया? क्या इसलिए की भारतीयों ने इसका पुरजोर विरोध किया, और कड़ी से कड़ी सज़ा की मांग की? अगर हाँ, तो ऐसे प्रदर्शन तो भारत का गौरव बढ़ाने में मददगार होनी चाहिए, क्योंकि इनहोने साफ ज़ाहिर किया की एक आम भारतीय बलात्कार को अपनी सभ्यता के विरुद्ध समझता है। पर हुआ तो उल्टा।“
जब पूरा देश इस जघन्य कृत्य के विरुद्ध सुलग रहा था, पाश्चात्य मीडिया भारत का अपमान करने और विश्व में उसकी छवि बिगाड़ने की कवायद में लगा हुआ था। अधिकांश विदेशी अखबारों और मीडिया ने इस घटना का ऐसे चित्रण किया, मानो बलात्कार तो भारत की रीति है, जो सिर्फ भारत में व्याप्त है, जबकि पश्चिमी देश इस जघन्य कृत्य को करने में भारत से कहीं आगे हैं। मीडिया ने भारत के बलात्कार की समस्या को उसकी सांस्कृतिक समस्या बताकर पल्ला झाड लिया है और भारतीय पुरुषों का चित्रण ‘हवस के पुजारी’ और क्रूर, असंस्कृतिक मनुष्यों के तौर पर किया है। इसे इस कल्पना के आधार पर इन मीडिया वालों ने बनाया है की भारतीय पुरुषों को औरतों का यौन शोषण करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, और भारतीय बलात्कारी संस्कृति का मान बढ़ाते हैं।
पर मित्रों, जिनके घर शीशे के हों, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते।
दिल्ली केस से चार महीने पहले स्ट्यूबेनविल्ल, ओहायो में एक 16 वर्षीय बालिका के साथ एक हाइ स्कूल फुटबाल टीम ने समूहिक बलात्कार किया था। इस केस में इस बालिका को ज़बरदस्ती शराब पिलाकर, घसीटते हुये पार्टी से पार्टी ले जाया गया, जहां उसके साथ यौन शोषण किया गया। भारत में हुये ऐसे घटना के विरुद्ध प्रदर्शन और कानून में बदलाव की मांग के बजाए इस लड़की को बलात्कार का कारण ठहराया गया। सिर्फ बलात्कार ही नहीं, उस फुटबाल टीम के एक लड़के ने उस घटना का 12 मिनट का विडियो बनाकर यूट्यूब पर प्रदर्शित भी किया, जिसे पुलिस के रिपोर्ट मिलने से पहले ही डिलीट कर दिया गया था। एमर ओ टूल के लेख से उनके शब्दों की व्याख्या करते हुये:-
“स्ट्यूबेंविल्ल में, फुटबाल प्रेमी शहरवासियों ने लड़की को ही दोषी बना दिया, और इसे ब्लॉगर – अलेकसेंद्रिया गोड्डार्ड, जिसपर अब मुकदमा चलाया जा रहा है, और न्यू यॉर्क टाइम्स में छपे एक लेख के बाद भी इस कहानी को घटना के चार महीने बाद देश भर में तवज्जो मिली।”
दिल्ली के बलात्कार कांड के वैश्वीकरण के बाद ही इस केस में गिरफ्तारियाँ हो पायी। इस बात से अनभिज्ञ रहते हुये की भारतीय महिलाओं का सम्मान करते हैं, तभी उनके लिए सड़कों पर उनके सम्मान की लड़ाई में उतर आए, विदेशी मीडिया तो यह समझने में लग गयी की भारत बलात्कारियों का देश है और भारत में आदमी आसुरिक प्रवृत्ति के होते हैं।
उदाहरण 1: हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट जिसमें इंटरनेशनल बिज़नेस टाइम्स ने बलात्कार को भारत की बीमारी बताया
उदाहरण 2: इसी विचार को बढ़ाते हुये एलए टाइम्स का लेख
ऐसा नहीं है की भारत जानबूझकर बलात्कार को अनदेखा करता है, पर पाश्चात्य मीडिया भी अपने गिरेबाँ में झांक कर देख लें तो उचित रहेगा।
केनेथ तुरान नाम के लेखक ने इस भाग को हैरान करने वाला बताया:-
एक साक्षात्कार में बीबीसी से बात करते हुये, निर्भया के बलात्कारियों में से एक, मुकेश सिंह ने कहा, “एक लड़के से ज़्यादा एक लड़की बलात्कार के लिए जिम्मेदार होती है।“ द टेलीग्राफ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इसने यह भी कहा की अगर लड़की और उसके दोस्त ने हाथापाई न की होती, तो उन लोगों ने वो अमानवीय बर्ताव न किया होता। उसकी मौत को एक दुर्घटना बताते हुये इनहोने कहा, ‘जब बलात्कार हो रहा हो, तो हाथापाई नहीं करते। उसे चुपचाप इसे होने देना चाहिए। फिर उसके बाद लड़के को कूटते हुये उन दोनों को छोड़ देते।“
(Source –India.com)
निस्संदेह कोई अपराध दूसरे से छोटा नहीं होता, पर शायद अगर इस लेखक ने अपने देश में एक बार झांक के देख लिया होता, और अपने नागरिकों से कुछ बात की होती, तो इन्हे पता चल जाता की इनके और उन अपराधियों की सोच में कोई अंतर नहीं है।
मैं इनका ध्यान इस तरफ केन्द्रित करना चाहती हूँ , विशेषकर कुछ ऐसी घटनाओं पर, जो इन्ही के देशवासियों ने की है, और जो इन्हे इतना हैरानी भरा न लगे:-
ये इस बारे में नहीं है की कौन सा अपराध दूसरे से कम है, पर अपने महिला विरोधी मानसिकता को छुपाकर भारत को बलि का बकरा बनाने की इनकी कुटिल चाल को हम कामयाब नहीं होने दे सकते।
ऐसे और भी कई केस हैं, जिनहे मीडिया का ध्यान मिलना चाहिए था, पर मिला नहीं, जैसे रोथेरहम बाल शोषण केस, वैटिकन सिटी बाल शोषण, काल्डरडेल का बलात्कार, 40 ब्रिटिश राजनयिकों की संलिप्त बाल शोषक गिरोह, ऑक्सफोर्डशायर केस, इत्यादि।
और भी ऐसे कई केस हैं, जिनहे उनका प्रसारण नहीं नसीब हुआ, पर क्या इनपे इतना ध्यान दिया गया था, और ऐसे देशों को दुनिया के बलात्कार केंद्र बताए गए? क्या कभी यूएस या यूके जो संस्कृति का बोझा ढो रहे हैं, उसपर किसी ने टिप्पणी की है? या पाश्चात्य देशों में महिलाओं के प्रति संकीर्ण सोच के ऊपर? या कभी किसी ने तमीज़ से खबरों में रोथेरहम केस में लिप्त पाकिस्तानियों पर कभी सीधा आरोप लगाया है? नहीं, क्योंकि ये इनके एजेंडा के विरुद्ध जाएगा। कितनी बार वैटिकन सिटी के धार्मिक ठेकेदारों की पोल खोली गयी है, जबकि यूएन ने भी यहाँ व्याप्त यौन शोषण की परंपरा का पुरजोर विरोध किया है। पर अपने कथित नारीवादियों का क्या, दूसरे देश में ऐसा कुछ भी हो, मुंह में दही जम जाएगी इसके विरुद्ध बोलने में, पर ऐसा भारत में हो, तो यह प्रकाश की गति से भी तेज़ अपने एजेंडे का प्रसार करेंगी
जबकि ये साफ है की लगभग 90% बलात्कार पीडिताओं ने कहा है की उन्हे इसके गुनहगार पता हैं, इनमें से सिर्फ 15% ही पुलिस के पास गए, क्योंकि अनुसंधान करने वालों के अनुसार, ये इनके लिए ‘शर्मनाक’ था, या काफी छोटी बात थी, या फिर लोकलाज और परिवार के अपमान का भय सता रहा था। हर साल, 95000 औरतों के बलात्कारियों में सिर्फ 1070 बलात्कारियों को ही दोषी साबित किया जाता है।
(Source: http://t.co/5o0npMmcx3)
ऐसे तेवर क्यों भाई?
एक विवाद इस बात पर उठ सकता है की वो दुनिया के हर बलात्कारी को उपदेश नहीं दे सकती, पर मेरा सवाल उनके लिए यह है की सिर्फ भारत की बेटी ही क्यों? यदि उन्हे पीडिताओं से इतनी ही हमदर्दी है तो वो रोथेरहम की 1200 लड़कियों को कैसे अनदेखा कर सकती है? हम यहाँ दो बलात्कारों की तुलना नहीं कर रहे, पर 5-12 राक्षसों का एक गैंग जो 1200 लड़कियों की अस्मत लूटे, उसे भी उतना ही ध्यान देना बनता है, पर आश्चर्य है की मैंने इनसे इस विषय पर एक भी शब्द नहीं सुना। मैं चाहती हूँ की सुश्री उडविन से यूके की बलात्कार की समस्या पर एक महीना बिता कर यूके की इस विषय में ‘कानूनी प्रतिबद्धता’, कोर्ट और नेताओं की इस मसले को छुपाने की कला का भी पर्दाफ़ाश करे।
धार्मिक और सांस्कृतिक प्रेरणा:-
मीडिया का ऐसे मुद्दों में पक्षपाती रवैय्या इस बात से साफ है की इसमें एक धार्मिक फायदा भी जुड़ा हुआ है, जैसा की नीतिसेंट्रल पर छपे इस लेख में साबित हुआ है। इस लेख में मीडिया के पक्षपाती रेपोर्टिंग की पोल खोली गयी है, जो एवंजेलिस्म के लिए एक उचित प्रचार का हथियार साबित होता है। भारतीय मुख्य मीडिया भी कोई कम नहीं है, विशेषकर अंग्रेज़ी मीडिया, अगर रिपब्लिक टीवी और ज़ी न्यूज़ के अंग्रेज़ी संस्करण डीएनए / टाइम्स नाऊ को छोड़ दिया जाये तो। अगर इस तरह का कोई भी अपराध किसी मौलवी या पादरी के हाथों हुआ हो, तो उसे छुपाने में ये मीडिया कोई कसर नहीं छोडती। ज़रा याद कीजिये, आखिर ऐसा क्या कारण था की निर्भया के सबसे क्रूर बलात्कारी का नाम तक नहीं बताया गया? मुस्लिम जो ठहरा।
अभी एक केस सामने आया है, जहां एक पादरी ने एक लड़की का बलात्कार किया, और उसके पिता से दोष अपने सिर लेने को कहा, इस जघन्य कृत्य को मीडिया की दृष्टि मिलनी चाहिए थी, पर क्या हुआ? नहीं मिली। वामपंथी पक्षपात के चक्कर में राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सांठगांठ में नमक मिर्च लगा के सच का बखेड़ा बनाया जा रहा है।
भारत को जानबूझकर विश्व का बलात्कार केंद्र बनाया गया है, जबकि असल केंद्र स्वीडन की तरफ कोई आँख उठा कर नहीं देखता।
जोसफ गोएब्बेल्स ने ठीक ही तो कहा था ‘अगर एक झूठ को इतना बढ़ा दो की बार बार आप उसे बोल सकें, तो लोग उसे अवश्य मानेंगे’
अब उस विषय पे आते हैं, जहां हम इस भारत के वैश्विक बलात्कार केंद्र के सिद्धान्त को झूठा साबित कर सकें:-
Figure 1: Reported rapes per 100000 people (source – nationmaster.com)
Figure 2: Reported rapes per capita
अब प्रथम चित्र में दिये तथ्यों के अनुसार, 100000 लोगों के हिसाब से भारत का पाश्चात्य देशों के मुक़ाबले काफी कम बलात्कार दर है, वो भी निर्भया कांड के पश्चात जागरूकता बढ्ने के बाद। यहाँ तक की भारत शीर्ष पंद्रह में भी नहीं है। इससे एक और विवाद उठ सकता है की भारत में बलात्कार कम दर्ज किए जाते हैं पुलिस थानों में , पर ये तो दुनिया के किसी भी देश में हो सकता है। [सच पूछो तो भारत का यूके से ज़्यादा दोष सिद्ध करने का दर साबित हुआ है बलात्कारों के केस में, जिससे यह साबित होता है की भारत औरतों के लिए उतना नरकीय नहीं है जितना दुनिया आपको दिखाना चाहती है]
मेरी हंसी छूट गयी जब मैंने देखा की किसी भी भारतीय मीडिया हाउस ने पाश्चात्य मीडिया के इस विषैले अभियान का कहीं विरोध नहीं किया। इसकी वजह से पाश्चात्य मीडिया को हमारी खिल्ली उड़ाने का मौका और मिल जाता है, और दिल्ली बलात्कार कांड के बाद भारतीय पर्यटन में पूरे 25% की गिरावट आई थी।
हमारी मुख्य मीडिया के लिए, एक ढोंगी विचारधारा की रक्षा करना, जो हमारे देश की अर्थव्यवस्था, और विश्व में छवि, दोनों मिट्टी में मिला दे, कभी भी एक गलत कदम रहा ही नहीं।
एक भारतीय होने के नाते मैं शर्मिंदा हूँ की औरतों को ऐसे दर्द झेलने पड़ते हैं और अपराधी बेलगाम घूमते हैं। पर मुझे इस बात से भी घिन्न आती है की हमारी खुद को ग्लानि पहुँचने की खराब आदत ने पाश्चात्य मीडिया को हमारे कथित पितृसत्ता का मखौल बना हमारी हंसी उड़ाने का एक मौका दिया है, जिसे हम स्लमडॉग मिल्यनेर सिंड्रोम भी बोल सकते हैं। और क्या कारण हो सकता है की अति नारीवादी एवं प्रख्यात अभिनेत्री मेरिल स्ट्रीप इस डॉक्युमेंट्री को ओस्कर्स तक पहुंचाने की कवायद में लगी हुई हो।
हम तो दो बार भी नहीं सोचते यह बताने में की यूएस या यूरोप कितना सुरक्षित हैं, जबकि सच्चाई इससे काफी भिन्न है। हम पश्चिमी ढोंगियों को बड़ी आसानी से उनके आडंबरों सहित जाने देते हैं, और जिस लैंगिक समानता के लिए इन्हे अपनी सत्ताओं से लड़कर विजय हासिल करनी पड़ी, उसे निर्विरोध हमारे देश ने हमारे संविधान में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित किया।
ये ऐसा प्रयास कतई नहीं है की भारत दूसरे देशों से इस मामले में कहीं बेहतर हो, पर सवाल तो अब भी बनता है : केंद्र में सिर्फ भारत ही क्यों?