काफी गहमागहमी के बाद, दोनों सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष ने आखिरकार जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपने उम्मीदवार घोषित कर दिये। एक लगभग गुमनाम उम्मीदवार के तौर पर बिहार के पूर्व राज्यपाल श्री रामनाथ कोविन्द के चुनाव ने विपक्ष की बत्ती गुल कर दी, जिस्से सकते में आकर उन्हे मजबूरी में भारत के प्रथम नागरिक के लिए दलित बनाम दलित का आयोजन करने पर मजबूर करते हुये, कथित दलित नेता एवं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को इस पद के लिए नामांकित किया।
आइये, दृष्टि डालें दोनों उम्मीदवारों पर :-
- श्री राम नाथ कोविन्द:-
मीडिया में फैले अफवाहों को धता बताते हुये भाजपा ने एक ही झटके में पूरे विपक्ष की धज्जियां उड़ा दी, जब उन्होने राष्ट्रपति के उम्मीदवार के तौर पर बिहार के पूर्व राज्यपाल रामनाथ कोविन्द को नामांकित किया, जिनहे मीडिया ने पूछा तक नहीं। इनहोने हमेशा अपने आप को मीडिया और पब्लिसिटी से अलग रखा है, सो ज़ाहिर है की काफी कम जानकारी इनके उपलक्ष्य में प्राप्त होगी। 2015 में श्री कोविन्द को बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया गया, जो इससे पहले पार्टी के राष्ट्रिय प्रवक्ता और राज्य सभा सांसद भी रह चुके हैं। 1999-2002 तक भाजपा के अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष भी यह रह चुके हैं।
दिल्ली हाइ कोर्ट में 1977-1979 में राम नाथ कोविन्द केन्द्रीय सरकार के वकील रह चुके हैं, और 1980-1993 तक केन्द्रीय सरकार के स्थायी वकील भी रह चुके है सुप्रीम कोर्ट में। भारत के सुप्रीम कोर्ट में ये 1978 में एडवोकेट ऑन रेकॉर्ड नियुक्त किए गए। 1993 तक इनहोने दिल्ली हाइ कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों को अपनी सेवाएँ दी।
इनहोने सिविल सेवा परीक्षा भी उत्तीर्ण की, पर सम्बद्ध सेवाओं में नियुक्ति के कारण इनहोने इन सेवाओं में हिस्सा नहीं लिया। राम नाथ कोविन्द को 1994 में राज्य सभा सदस्य नियुक्त किया गया, और 12 सालों तक इनहोने उत्तर प्रदेश और देश को अपनी सेवाएँ मार्च 2006 तक दी। एक प्रशासक के तौर पर इनकी क्षमताओं पर सवाल उठाने वाली विपक्ष ये भूल गए की गृह कार्य, सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण , कानून एवं न्याय के तमाम सांसदीय समितियों की अध्यक्षता की और राज्य सभा सदन समिति के अध्यक्ष भी रहे। यही नहीं, इनहोने भारतीय प्रबंधन संस्थान, कलकत्ता के बोर्ड ऑफ गोवेर्नोर्स के सदस्य के तौर पर सेवा भी की।
कानपुर के पास परौख गाँव से दिल्ली के सुप्रीम कोर्ट और संसद और फिर पटना में राज भवन का सफर करने वाले कोविन्द जी का सफर एक प्रतिबद्ध पार्टी कार्यकर्ता और एक समाजसेवी के तौर पर रहा है।
वो इलाका जहां रामनाथ कोविन्द बाज़ी मारते हैं अपने प्रतिद्वंदी से, वो है इनका पिछड़ापन। बतौर वकील, इनहोने समाज के पिछड़े वर्गों को अपनी सेवाएँ मुफ्त में प्रदान कारवाई, खासकर अनुसूचित जंजातियों की महिलाओं को । इनकी साफ सुथरी छवि और भ्रष्टाचार मुक्त आचरण भाजपा के लिए सोने पे सुहागा है।
पर वो क्या है न, जिसमें कोई कमी न हो, उसमें मीडिया फर्जी की कमियाँ निकालने में माहिर हैं। इनके साथ भी वही हुआ, हालांकि इनके हाथ कुछ खास नहीं लगा, सिवाय इसके की 2010 में हिंदुस्तान टाइम्स को दिये गए साक्षात्कार ने कुछ हलचल ज़रूर मचवाई।
पर यह पूरी कहानी तो नहीं है, असली कहानी और समीक्षा तो यहाँ मिलेगी
शायद राम नाथ कोविन्द पूरी तरह गलत भी नहीं है, जब वो मुसलमानों और इसाइयों के आरक्षण के खिलाफ हैं। वर्तमान में जब उन्हे पिछड़ी जातियों के तौर पर आरक्षण मिल रहा हो, तो उन्हे और आरक्षण किस खुशी में मिलना चाहिए?
श्री कोविन्द जी को चिंता थी की कहीं ये लोग दलितों के लिए बनाए गए निर्वाचन क्षेत्रों में इन्ही के अधिकार न छीन ले, जो कुछ हद तक वाजिब भी है।
- मीरा कुमार:-
मीरा कुमार के पास कहने को उनके प्रतिद्वंदी से ज़्यादा रसूख प्राप्त हैं। लोक सभा की पहली महिला अध्यक्ष ये रही हैं, और पाँच बार सांसद भी रह चुकी हैं। ये बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं , जो एक कुशल स्वतन्त्रता सेनानी होने के साथ साथ 1977-1979 तक उप प्रधानमंत्री भी रहे हैं। हालांकि मीरा कुमार अपने पिता के साये से निकल कर बाहर आई, और अपने लिए अलग पहचान बनाई। ये पूर्व भारतीय विदेश सेवा अफसर रह चुकी हैं, जिनहोने स्पेन, यूके और मॉरीशस के दूतावासों में काम किया है। ये विधि की ग्रेजुएट भी हैं, पर रामनाथ कोविन्द की तरह इनहोने वकालत नहीं की। 1985 में ये काँग्रेस से जुड़ी, और राजनीति में इनका आगमन दलित नेता के तौर इनकी काबिलियत को तब साबित किया, जब इनहोने मशहूर दलित नेताओं, राम विलास पासवान और मायावती को पटककर उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में चुनाव में विजय हासिल की।
इनके पिता का गृह राज्य बिहार होने के बावजूद इनहोने दिल्ली से तीन बार चुनाव लड़ा, जिनमे दो में विजय प्राप्त की, और एक में हार। 2004-2009 तक ये सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण की मंत्री भी रह चुकी है। इन्हे फिर से कैबिनेट में मंत्री बनाया गया था 2009 में, पर लोक सभा अध्यक्ष बनने के चक्कर में इनको अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि अपने राजनीतिक रसूख को यह संभाल न पायी, और 2014 में अपने ही घर, बिहार के सासाराम से करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा।
पर कोविन्द, जिनहे बीजेपी या आरएसएस से कोई शिकायत नहीं थी, मीरा कुमार ने 2000 में मतभेद के कारण काँग्रेस छोड़ दिया था। इन्हे दोबारा 2002 में पार्टी में जगह मिली।
पर इनके उपलब्धियों के साथ साथ इनका विवादों से भी चोली दमन का नाता रहा है, जिसके कारण ये रायसीना हिल्स में रहने लायक कतई नहीं है।
लुटयेंस’ दिल्ली में बंगले का भूत
पूर्व लोकसभा अध्यक्ष ने यूपीए I से ही अपने 6, कृष्ण मेनन मार्ग स्थित अपने पिता के बंगले को एक स्मारक में परिवर्तित करना चाहती थी। फिर अध्यक्ष के तौर पे अपने पद का दुरुपयोग करते हुये इनहोने न सिर्फ मनमोहन सरकार से इस बात की रजामंदी कराई, बल्कि इसके लिए केंद्र और न्यायपालिका तक को ताक पर रखा। ये फैसला न सिर्फ 2000 के एनडीए सरकार के कैबिनेट के खिलाफ गया, जो ऐसे भेदभाव रोकने को तत्पर थी, बल्कि ये सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के सिर्फ एक महीने बाद हुआ, जिनहोने ये निर्णय लिया की आवासीय सुविधाओं के लिए आवंटित सरकारी घरों में कोई स्मारक नहीं बन सकता।
पर जिसके लिए ये सरकार कुख्यात थी, यूपीए 2 ने इस निर्णय की धज्जियां उड़ाते हुये 2013 के अगस्त महीने में मीरा कुमार की यह इच्छा पूरी कर दी। एक समय पर इनके पास दो बंगले थे लुटयेंस’ दिल्ली में, जिसमें एक बंगला इन्हे 20, अकबर रोड पर अध्यक्ष होने के नाते मिला था। एक आरटीआई जवाब के अनुसार मीरा कुमार पर सरकार ने 1.98 करोड़ रुपये का किराया संबन्धित बिल चस्पा किया था, जिसमें मीरा कुमार पर ये आरोप लगे की अध्यक्ष रहते हुये इस बिल को माफ करवा दिया। प्रत्यक्षा प्रमाण होने के बाद भी कई लोगों ने इस पूरे विवाद को नज़रअंदाज़ किया, पर काँग्रेस के हालिया ट्वीट ने तो मानो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली।
हो सकता है काँग्रेस इस ट्वीट को डिलीट कर दे, जैसा की मशहूर है। ये नैतिक भ्रष्टाचार का पहला ऐसा केस होगा, जहां काँग्रेस पीड़ित भी, अभियुक्त भी और न्यायाधीश भी वही। पार्टी ने अपने एक सदस्य का कर्जा अवैध तरीके से माफ कराया, और इसे अपनी उपलब्धि बता कर नाच भी रहा है। शायद इसीलिए लोग एक काँग्रेस मुक्त भारत चाहते हैं।
लोक सभा टीवी सीईओ को पद से हटाना:-
ये तो कुछ भी नहीं है। जब नरेंद्र मोदी की सरकार ने 26 मई 2014 को शपथ ली थी, नए अध्यक्ष के नामित होने तक मीरा कुमार कार्यवाहक अध्यक्ष का पद संभाल रही थी। पर 4 जून, को अपने पद के आखरी दिन, इनहोने लोक सभा टीवी के सीईओ राजीव मिश्रा को उनके पद के खत्म होने से पहले ही न सिर्फ हटाया, बल्कि आरटीआई याचिकाओं के अनुसार इनहोने मिश्रा जी का बकाया वेतन आरबीआई से कहकर वापस निकलवा लिया, जो बदले की भावना से किया गया था। और क्यूँ? सिर्फ इसलिए, क्योंकि इनहोने मीरा कुमार को अपने ही क्षेत्र से हारते हुये इनकी लोक सभा के चुनाव की तस्वीर प्रसारित कर दी। सच दिखाने के लिए इतनी बड़ी सज़ा?
हो सकता है मीरा कुमार की उपलब्धियां रामनाथ कोविन्द से ज़्यादा हों, पर उनके घोटाले उन्हे प्रथम नागरिक बनने के योग्य कहीं भी नहीं ठहरती। रामनाथ कोविन्द के जीवन का संबल ही था आत्म निर्माण, जबकि मीरा कुमार खुद काँग्रेस की प्रतिबिंब है, वंशवाद की चापलूस और भ्रष्टाचार समर्थक।
पर जब से कोविन्द जी का नामांकन हुआ है, तब से वामपंथी प्रेमी मीडिया जैसे हफ़्फ़्पोस्ट उन्हे बेइज़्ज़त करने का कोई मौका नहीं छोड़ रही रही है। उनकी योग्यता गयी तेल लेने, ऐसे लोगों के लिए वो मीरा कुमार से कम दलित जो ठहरे, क्योंकि इनके हिसाब से बीजेपी के दलित दलित थोड़ी ना होते।
पर अगर किसी भी बिरादरी का कोविन्द प्रतिनिधित्व करते हैं, तो वो है भारत के बहुमत का, जो मिट्टी से जुड़ी है, कृषि प्रधान है, और आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ है। यही वो बिरादरी है, जिससे नरेंद्र मोदी भी आते हैं।
कई लुटयेंस बुद्धिजीवियों ने इन्हे चायवाला के नाम से भी चिढ़ाया। पर इसी हफ़्फ़्पोस्ट ने फारूक अब्दुल्लाह का नाम बतौर राष्ट्रपति सुझाया। जी हाँ, वही फारूक अब्दुल्लाह, जो पत्थरबाज़ों का समर्थन करता है और भारत के विचार से कोई संबंध नहीं रखता, वो इस एजेन्सी के हिसाब से राष्ट्रपति के पद के लिए रामनाथ कोविन्द से ज़्यादा योग्य है।
यह तो साफ है की मीरा कुमार ने अपने फायदे के लिए अपने पद का खूब दुरुपयोग किया है, जबकि रामनाथ कोविन्द अपने राज्यपाल के पद के दौरान किसी प्रकार की भिड़ंत के लिए प्रख्यात नहीं थे, जिससे नितीश कुमार ने न सिर्फ उनकी तारीफ की, बल्कि उनका समर्थन भी किया, खुदा न खस्ता, अगर काँग्रेस को बहुमत मिलता है, जो इस देश की बहुत बड़ी गलती हो सकती है, तब रामनाथ कोविन्द अपना काम बिना किसी भेदभाव के करने में सक्षम होंगे।
यहाँ तक की जब इनके परिवार वालों ने सिफ़ारिशों की बात की, तो श्री कोविन्द ने कहा, ‘मैंने जैसे स्वयं सफलता पायी, वैसे तुम लोग भी मेहनत करो।“