एक वीरमणि नाम के व्यक्ति की याचिका पर हाल ही में मद्रास हाइ कोर्ट सुनवाई कर रही थी। ‘वंदे मातरम किस भाषा में लिखा गए हैं’ पर इनके उत्तर बंगाली को शिक्षक रिक्रूटमेंट बोर्ड ने सिरे से नकार दिया। वीरमणि को 89 अंक मिले, जो दाखिले के लिए आवश्यक 90 से सिर्फ एक कम था। बोर्ड के अनुसार वंदे मातरम पहले संस्कृत में लिखी गयी थी। इसपर न्यायाधीश ने एडवोकेट जनरल को सही जवाब ढूँढने को कहा। अनुसंधान के पश्चात इनहोने कहा की वंदे मातरम संस्कृत भाषा में ज़रूर रचित थी, पर उसे लिखा गया था बंगाली लिपि में। न्यायाधीश ने फिर बोर्ड को वीरमणि को चयन प्रक्रिया के अगले स्तर में प्रवेश देने के आदेश दिया।
निस्संदेह इसका वर्तमान केस से कोई लेना देना नहीं, जहां न्यायमूर्ति मुरलीधरन जी ने वंदे मातरम को तमिल नाडु के हर विद्यालय, सरकारी दफ्तर, यहाँ तक की निजी उद्योगों में गाने का आदेश जारी किया है।
ये पढे लिखे हैं, जिनहोने श्रद्धापूर्वक अपने विधि की पढ़ाई पूरी की, और उन्हे ये भी पता है की इस फैसले का परिणाम क्या होगा। तो इनहोने कहा, की ऐसे अवसर पर, किसी भी व्यक्ति या संगठन को अगर इससे कोई दिक्कत है, तो उनके साथ ज़बरदस्ती नहीं की जाएगी, पर उनके पास इसके विरुद्ध ठोस कारण होने चाहिए!
न्यायमूर्ति मुरलीधरन के अनुसार, राष्ट्र गीत को बच्चों को हफ्ते में एक बार, चाहे सोमवार, या शुक्रवार, दफ्तरों को महीने में एक बार गाना पड़ेगा। अगर लोगों को संस्कृत गीत से चिढ़ मचती है तो तमिल में भी इससे गा सकते हैं। अपने फैसले पर मुहर लगाते हुये इनहोने कहा की इस देश का भविष्य है इस देश की युवा जनसंख्या, और इस निर्णय को इसके सही मायनों में अमल कराया जाएगा।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद न्यायमूर्ति जी। हाँ हाँ, कुछ लोग ऐसे भी है जो फ़र्स्टपोस्ट के लिए खबरें लिखते हैं, और जिनके अनुसार न्यायपालिका देशभक्ति में अपने हद से आगे बढ़ गयी। पर मैं इसे समस्या नहीं, समाधान समझता हूँ।
कल ही कुछ उदारवाद के ठेकेदारों में से एक, हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक ने एक रचना प्रकाशित की है, जहां पर उन्होने लिखा है की यह उप कुलपति का काम नहीं है की बच्चों में राष्ट्रवाद की अलख जगाए। जेएनयू के उप कुलपति ने कार्गिल विजय दिवस को मनाते हुये परिसर में आर्मी के जवानों का भी प्रवेश सुनिश्चित कराया। शायद एचटी के अति उदरवादी संपादक को जेएनयू की ‘पवित्र भूमि’ पर ‘पापी’ आर्मी के जवानों की उपास्थिति रास नहीं आई।
देखो भाई, ताली तो एक हाथ से बजती नहीं। उप कुलपति पर भी थोड़ा दोष तो डालना ही पड़ेगा। न्यायमूर्ति मुरलीधरन, जो ऐसे मामलों में अनुभवी हैं, उनके मुक़ाबले उप कुलपति कुछ ज़्यादा ही जोश में आ गए और उन्होने विश्वविद्यालय में एक पुरातन आर्मी टैंक को लाने का बीड़ा उठा लिया। उनको पता होना चाहिए था की बिना ध्यान खींचे कैसे अपना काम करते हैं। वैसे तो ऐसे कई पुरातन धरोहरें हैं विभिन्न वैज्ञानिक और अभियांत्रिकी [इंजीन्यरिंग] संस्थानों में, पर शायद इनका एचटी के मुख्य संपादक से पाला ही नहीं पड़ा होगा।
पर कुलपति के निर्णय ने इन्हे इतना क्रोधित किया की इनहोने इस फैसले की भरत्स्ना करने के लिए क्योटो विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर, रोहन डी’सूजा को नियुक्त किया। अगर संपादक साहब अधपके बुद्धिजीवी हैं, तो साहिब पक्के वाले हैं। बस उठाया कलम, अपने सहूलियत के हिसाब से केस डाले और कहा ‘क्या तलवार को कलम से ज़्यादा शक्तिशाली होना चाहिए।‘
अब आप किसी भी बुद्धिजीवी से ये तो निस्संदेह आशा करेंगे की वो अपने देश के सभ्यता और रीतियों का निष्पक्ष विश्लेषण करे। पर यहाँ तो साहिब अपने ही खयाली पुलाव बनाने में इतना व्यस्त हुये हैं, ये तो यही देखना भूल गए की जापानी अपने बच्चों का लालन पालन कैसे करते हैं। थोड़ा इनका भी कल्याण हो जाता अगर इनहोने समझा होता की कैसे जापान के शिक्षण प्रणाली का एक अभिन्न अंग है राष्ट्रवाद। राष्ट्रवाद इनके पढ़ाई में रचा बसा हुआ है, और एक टटपुंजिया लोकतन्त्र होने का बाद भी [वैसे यह सब जगह समान है] जापानी अपने देश के प्रति वफ़ादार रहते हैं।
जब से मैंने इन दोनों पत्र बम को हिंदुस्तान टाइम्स में पढ़ा है, तब से थोड़ा उदास सा हो गया हूँ [शेक्स्पीयर वाला]। कुछ भी कहो, न्यायमूर्ति मुरलीधरन का ये निर्णय सूखे भूमि पर वर्षा की पहली बूंद समान थी [वैसे भी, यह श्रावण है]
एक बार फिर आपका बहुत बहुत धन्यवाद, न्यायमूर्ति जी।
वैसे, एक बात और,
वंदे मातरम!