एक न्यूज़ चैनल ने हाल ही में भारत के सबसे “प्रगतिशील और आदर्श राज्य” केरल में हो रहे धर्मांतरण के धंधे पर एक सनसनीखेज खुलासा किया, विशेषकर एक मुस्लिम बहुल जिले में। इस पत्रकार ने केरल के कसरगोद जिले में अभी कुख्यात हुये गाज़ा चौक की यात्रा और धर्मांतरण गिरोह के इस घिनौने काम का पर्दाफाश किया।
इस रिपोर्ट ने दिखाया की कैसे धर्मांतरण माफिया इस्लाम में हिन्दू और सिख लड़कियों के धर्मांतरण के दर निर्धारित किए जाते हैं। एक सिख लड़की के धर्मांतरण पे 7 लाख रुपये, और एक हिन्दू ब्राह्मण कन्या के धर्मांतरण पर पाँच लाख, और ऐसे ही बाकी जतियों को 2-4.5 लाख के बीच में धर्मांतरण करने पे मिलता है। यकीन नहीं होता न? नीचे सबूत भी हैं!
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भारत में मुस्लिम बहुल इलाकों में क्या होता है, इसके बारे में अंजान रहने की सहूलियत रखने वालों के लिए ये आँखें खोलने से कम नहीं होगा। पर पर जो भी केरल में हो रही घटनाओं को करीब से देखता है, उसे ये साफ दिखता है की कितने करीने से और कितनी क्षमता इस धंधे को न सिर्फ केरल, बल्कि देश के बाकी हिस्सों में भी फैलाया जा रहा है।
धर्मांतरण के कट्टर समर्थकों का यह कहना है की इस्लाम में गैर मुस्लिमों का धर्मांतरण अल्लाह का फरमान है, जिसका पालन करना हम सबके लिए अवश्यंभावी है। इस विषय को समझने के लिए कुरान में धर्मांतरण के रिवाज का औचित्य साबित करने वाली पंक्तियों को समझना बेहद आवश्यक है:-
“उनसे लड़ो जिनहे अल्लाह या आखरी दिन में यकीन नहीं, उसे भी हराम समझो जिसे अल्लाह ने हराम समझा और उनसे भी जो अल्लाह की सच्चाई और उनके मजहब से इंकार करते हैं, जब तक ये जज़िया देने को मजबूर न हों, और अल्लाह के बंदों के सामने कमतर न महसूस करे……”
तो आपने सही सुना, इसलामियों की पवित्र किताब का यह धार्मिक फरमान है की इस्लामी गैर इसलामियों को या तो परिवर्तित करे या फिर उन्हे भेदभावी जज़िया कर देने के लिए बाध्य कर उन्हे ग़ुलाम के स्तर पे पहुंचा दें।.
जिस किसी को इस्लाम और उसके हिंसक प्रवृत्ति का थोड़ा बहुत भी ज्ञान होगा, उसके लिए टाइम्स नाऊ की रिपोर्ट कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। ऐसे लोग, जो भारतीय शिक्षा क्षेत्र में बड़े ही कम देखने को मिलते हैं, ये बखूबी जानते है की और कोई धर्म कैसा भी हो, इस्लाम ने कभी भी गैर मुस्लिमों के प्रति किसी प्रकार की हमदर्दी नहीं दिखाई है, और अगर दिखाई भी है, तो सिर्फ अपना मक़सद पूरा करने के लिए। कुरान में जितनी स्पष्टता से लिखा है सिर्फ अल्लाह में यकीन रखने वालों को ही इज्ज़त मिलेगी, और बाकी सब को ग़ुलामी का जीवन व्यतीत करना पड़ेगा, ये साफ दर्शाता है की इस्लाम से असहिष्णु इस संसार में कोई पंथ नहीं, और दोष बदकिस्मती से हिन्दुओं पर लगता है।
यह जानना अवश्यंभावी की धर्मांतरण असहिष्णुता का जीता जागता प्रतीक है, जिसके इतिहास के लिए हम 7वीं सदी तक पीछे जा सकते हैं, जब भारत का पाला इस्लामिक जगत से पड़ा था। इस दुर्घटना ने न सिर्फ भारतीय इतिहास का नक्शा ही बादल दिया, बल्कि इस्लाम को भारतीय उपमहाद्वीप् में जड़े जमाने का भी अवसर दे दिया, जिसका हश्र सबके सामने है।
7वीं सदी में जो अरब व्यापारी भारत आए, उन्होने दो जगह अपना गढ़ बनाया, मलाबार और गुजरात। मज़े की बात, पहला मस्जिद भारत में 7वीं सदी में केरल में ही एक अनुयाई मालिक इब्न दिनार ने बनाया, जिसका एकमात्र उद्देश्य भारत में इस्लाम का प्रचार करना था। ये भी जानना ज़रूरी है की भारत में धर्मांतरण के पहले शिकार भी मालाबार के ही लोग थे।
जिन मोपलाह वासियों ने इस्लाम को अपनाया, चाहे स्वेच्छा से चाहे ज़बरदस्ती, ये तो वाद विवाद का विषय अवश्य है, पर 7वीं सदी में हिन्दू बाहुल्य भारत में एक नए पंथ के ध्वजवाहक बने। इसीलिए ये कोई हैरानी वाली बात नहीं है की केरल आज कश्मीर घाटी के बाद इस्लामिक कट्टरपंथ का दूसरा सबसे बड़ा गढ़ है। ऐतिहासिक रूप से यही राज्य सबसे पहले इस्लाम के कब्जे में आया और इसे कहने में कोई अतिशयोक्ति न होगी की इस्लाम के प्रचारकों का इरादा भाईचारा और सद्भाव बढ़ाने का था ही नहीं, ये तो सिर्फ एक ही मक़सद से यहाँ आए थे, या तो लोगों का इस्लाम में परिवर्तन या फिर इन्हे आजीवन ग़ुलाम बनाए रखने की मुहिम सफल करना।
इसे स्वीकारना ही तार्किक है की केरल में व्याप्त इस्लामिक कट्टरपंथ इसी मुहिम की एक अहम कड़ी है, जिसकी शुरुआत 7वीं सदी में हुई थी। आपको भले ही उदारवादी इतिहासकार इस भुलावे में डालने का प्रयास करे, की केरल में इस्लामिक कब्जे का देश के धार्मिक आस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ा, पर अब यह निस्संदेह प्रमाणित है की जहां भी इस्लाम का परिचय कराया गया, न सिर्फ उसने धार्मिक आस्था को पलट दिया, बल्कि काफी अहम रूप में राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संस्थानों को भी परिवर्तित किया, चाहे वो केरल हो, दिल्ली हो, सिंध, बंगाल या फिर डेक्कन प्रांत हों।
7वीं सदी में पहले इस्लामिक कब्जे के बाद, अरबों का नेतृत्व करते हुये कट्टरपंथी मुहम्मद बिन कासिम ने 8वीं सदी में सिंध पर आक्रमण किया और उम्मईद का प्रभुत्व इस प्रांत में स्थापित किया। प्राचीन ओरिएंटलिस्ट इतिहासकार जैसे स्टेनली लेन पूल और सर वोल्सेलेय हेग ने अरब विजय को भारत की इतिहास में सिर्फ एक छोटा अध्याय समझा। कुछ विद्वानों के अनुसार सिंध पर अरबी कब्जे का मुख्य स्त्रोत धार्मिक उन्माद था। ए एल श्रीवास्तव का कहना है की ‘अरब का मुख्य प्रेरणा स्त्रोत उनका धार्मिक उन्माद था, जिसमें उन्हे ये यकीन हुआ की उन्हे अल्लाह ने भेजा है गैर मुस्लिमों और काफिरों का सर्वनाश करने के लिए।”
अरब इस मुहिम में कुछ हद तक कामयाब भी रहे, क्योंकि वे स्थानीय आबादी में से कुछ लोगों का धर्म परिवर्तन करने में कामयाब रहे। धर्मांतरण और इनकी ग़ुलामी इस तरह इसलामियों को प्राप्त हुई, जो एक ट्रॉफी के समान हर इस्लामिक विजेता अपने खलीफाओं को बड़े जोश में दिखाता था।
पर चाहे जितना छोटा महत्व हो अरब कब्जे का, इसने भारत के आगामी आक्रमण के लिए द्वार ज़रूर खोल दिया, जिसका फायदा घजनावी के खूंखार लुटेरे महमूद ने बखूबी उठाया 11 वीं सदी में और साथ ही साथ में सोमनाथ मंदिर जैसे पवित्र तीर्थ स्थल का भी विध्वंस किया, बारंबार किया। इनहि घजनावी हमलों की वजह से विशाल स्तर पर धर्मांतरण संभव हो पाया , जिसमें मुख्य क्षेत्र पंजाब, मुल्तान, उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्र और दूसरे राज्य।
ग़ाज़ी मियां के नाम से कुख्यात ग़ाज़ी सईद सालार मसूद, जो घजनी के महमूद की सेना का सेनापति था, कई हिन्दुओं का धर्मांतरण करने में 11वीं सदी में सफल रहा। 12वीं सदी तक आते आते उसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी की उसे एक योद्धा संत बना दिया गया, और उसकी दरगाह बहराइच में बनाई गयी। यह अलग बात है की इस ग़ाज़ी को हमारे देशवासियों ने बहराइच के युद्ध में महाराजा सुहेलदेव पासी के नेतृत्व में एक विशाल सेना ने इन्हे तबीयत से धोया भी था, और इन्ही की शैली में इनका सिर धड़ से अलग भी किया। पर ऐसे योद्धा संतों की लंबी फेहरिस्त है, जो भले सूफी पंथ के अनुयाई के भेस में आए हो, पर उनका मूल उद्देश्य था भारत को दार उल हर्ब [काफिरों की भूमि] से दार उल इस्लाम [इस्लाम की भूमि] में परिवर्तित करना था।
दिल्ली सल्तनत की 12वीं सदी में स्थापना होते ही दार उल इस्लाम के ख्वाब को मानो मूरत ज़मीन मिलने लगी। इसका महिमामंडन करने वाले भी कम नहीं है, जिनका यह मानना है की उत्तर भारत में व्याप्त एक तानाशाही जीवन शैली को खत्म करने का पुण्य इस्लाम ने किया है, और इसी बिरादरी के एक कुख्यात इतिहासकार हैं मोहम्मद इरफान हबीब, जो कट्टर मार्क्सवादी भी है।
इनका मानना था की तुरकियों ने भारत में असमानता को हटाते हुए समान समाज की स्थापना की। और यही मनुष्य जब कहे की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस्लामिक स्टेट से भी खतरनाक आतंकी संगठन है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इन्ही विचारों पर बाकी इतिहासकारों ने इनकी जमकर खिल्लीयां उड़ाई, जिन्होने सही ठहराया है की इस्लाम समानता को छोड़ किसी भी चीज़ के लिए खड़ा हो सकता है। जिस तरह के धर्मांतरण के पश्चात पक्षपाती नियम धर्मांतरित लोगों को पालने पड़ते थे, उससे ये साफ है की समानता के कारण इस्लाम में धर्म परिवर्तन तो कभी भी नहीं हुये। या तो कपट से, या तो ज़बरदस्ती, नहीं तो जज़िया देने के डर से लोगों को धर्म परिवर्तन कराना पड़ा।
जब बाबर ने भारत पर 1526 में आक्रमण किया, तब दिल्ली के सुल्तानों का राज खत्म हुआ, और मुग़ल राज की स्थापना हुई। अंग्रेजों के आने से पहले इन मुग़लों का राज इस्लामिक शासन पे आधारित था, जो शरिया के सिद्धांतों पर चल गैर मुस्लिमों को चाहे सामने से, या पीठ पीछे, दोनों तरह से भेदभाव करता था। कहने को सुल्तानों ने भी शरिया अपनाया था, पर चूंकि मुग़लों में शासन वंश के अंतर्गत ही होता था, इसीलिए राज्य की इस नीति को और शक्तिशाली रूप में पारित किया जा सकता था।
पहले दो शासकों, बाबर और हुमायूँ के पास देने को कुछ खास नहीं था, इसीलिए सारा केंद्र मुग़ल शासन का अकबर से शुरू होता इस विषय में। जिसे हिन्दुओं का मसीहा कहा जाता है, वो शुरू में भी एक कट्टर मुस्लिम थे, और आजीवन इस्लाम का पालन किया, जिसने बस यह समझा की एक हिन्दू बाहुल्य देश पर शरिया के दिमाग सहित शासन नहीं किया जा सकता। जो भी अकबर ने किया, वो राजनैतिक मजबूरी थी, उन्हे कोई व्यक्तिगत दिलचस्पी नहीं थी हिन्दू धर्म में। अगर ऐसा होता, तो 1564 में उन्होने जो जज़िया हटाया था, उसे दोबारा नहीं अमल में लाते।
सबसे कट्टर शासक तो औरंगजेब था, जिसने हिन्दुओं को मानो बेइज्जती के सागर में डुबोने की कसम खा ली थी। एक कट्टर मुल्ले होने के नाते, उसने भारत को इस्लाम की भूमि बनाने का बीड़ा उठाया, और उन्हे परिवर्तित कराने के लिए भयानक तरीके अपनाये। मशहूर यूरोपीय यात्री निकोला मनुक्की, जिसने औरंगजेब के शासन को करीब से देखा, ने यह बताया की कैसे करों का बोझा हिन्दुओं पर ही धोया जाता था, जिसके चक्कर में कई हिन्दुओं ने इस्लाम में परिवर्तन कराया। भला हो छत्रपति शिवाजी जी, लचित बोर्फुकान और गुरु गोबिन्द सिंह जैसे योद्धाओं का, वरना हमारे देश का पता नहीं क्या होता।
इस धर्मांतरण के इतिहास को देखते कासरगोड के इस केस पर हैरानी नहीं होती। ये तो सिर्फ उस शर्मनाक प्रक्रिया का विस्तार है, जो सातवीं सदी से चला आ रहा है, और अगर नहीं रोका गया, तो ऐसे ही भारत के अस्तित्व को धूमिल करता रहेगा।