जिस हिसाब से तापमान ऊंचे से नीचे की ओर जाता है, उसी तरह बांग्लादेश से आप्रवासी भारत में घुस रहे हैं। काफी वक़्त तक ये लोग गायब रहते हैं, और अपने आप को पल्लवित पोषित करते हैं, और जहां बहुमत मिला नहीं की लगे दंगा फैलाने, और उक्त क्षेत्र की शांति भंग करने। इस हिंसा में सिर्फ संपत्ति ही नहीं, मूलनिवासी भी खाक होते हैं, और इस विषैले कड़ी को कुछ ही वक़्त पहले तक असम राज्य ने महसूस किया था, जब अनचाहे बंगलादेशी आप्रवासी राज्य में बेतरतीब दंगे करवाते और इलाके की शान्ति को भंग करते। कोई विरोध करे तो अगले दिन उसकी लाश मिलती।
विडम्बना तो यह है की इस तरह के समान उदाहरण उभरते भारतीय महानगरों, जैसे नवी मुंबई, गुरुग्राम और नोएडा में देखने को मिल रहे हैं। गरीब से दिखने वाले, पतले कंधों वाले, शांत रहने वाले बांग्लाभाषी मुसलमान और उनकी औरतें हमारे चमचमाते शहरों को धीरे धीरे प्रदूषित करने आ रहे हैं।
अपने घरों के बारे में बताओ तो कहेंगे की मुर्शिदाबाद या मालदा से आते हैं, जो बंगलादेशी सीमा पर स्थित बंगाली शहर हैं। काफी उचित जवाब, नहीं? थोड़ा और पूछो, तो कहेंगे की इनके पास सारे रसीद और संबंधी कागज हैं। ये आम बात है की खुद सरकारी मुलाजिमों और नेताओं की देखरेख में एक खतरनाक रैकेट चलता है, जो ऐसे दस्तावेज़ बनाने में माहिर हैं, जिसमें आधार कार्ड तक शामिल हैं, और इन्हे अवैध आप्रवासियों को प्रदान किया जाता है, और इनके नाम वोटेरों की सूची में डलवाने का प्रबंध भी करवाया जाता है, जिससे इनपर कोई उंगली न उठाने पाये।
Source – Kanchan Gupta’s editorial in The Pioneer
इनके तौर तरीके काफी सरल है। कर्मचारियों में घर पे काम करने वाले नौकर नौकरानियों की बड़े शहरों में मांग ज़्यादा होती है। नए शहरों में नित नए मकान और अपार्टमेंट बनते जा रहे हैं, जिनसे आबादी की प्रति स्क्वाएर फीट घनत्व बढ़ता ही चला जाता है। इनहि मकानों के आसपास ये बंगलादेशी आप्रवासी अस्थायी बस्तियों और झुग्गियों में बढ़ते जाते हैं। ये सस्ते दाम बता नौकरी हासिल करते हैं और धीरे धीरे संबंध गहरे कर अपनी कमाई भी बढाते हैं। अपने देश में इन्हे जितना पैसा नहीं मिल पाता, उतने से कई गुना तो यह यहाँ कमा लेते हैं।
अब इनके चोंचलों पर ज़रा वापस नज़र डालते हैं, पहला और मौजूदा पड़ाव है पैर जमाना, माने जहां ये आप्रवासी इकट्ठा होते हैं और धीरे धीरे कब्जा जमाने लगते हैं। पर जो हुड़दंग अभी 300 आप्रवासियों ने मिलके महागुण मोडेर्ने सोसाइटी, सैक्टर 78 में मचाई थी, वो अगर दूसरे पड़ाव की शुरुआत नहीं, तो उसके लिए मोड़ अवश्य बनती है, और वो है बाहुबल का प्रदर्शन। जिस सफाई से इनहोने एक आधुनिक सोसाइटी में 3 घंटे तक निरंतर हिंसा की थी, सिर्फ इसलिए क्योंकि एक नौकरानी को कथित रूप से उसके मालिक ने बंदी बना के रखा था, एक नयी नवेली सोसाइटी पर अपना शक्ति प्रदर्शन का एक नमूना भर था। क्योंकि ऐसे शहरों में कानून व्यवस्था तो ढंग की कभी होती नहीं, इसलिए यहाँ के सौम्य और सुशील निवासी अपने आप को आत्मरक्षा के लिए तैयार नहीं रख पाते।
आम तौर पर इन बंगलादेशी आप्रवासियों की पहली पीढ़ी अपने अस्तित्व से भली भांति परिचित हैं, और ऐसे मामलों में अपने आप को नहीं उलझाती
पर इन बस्तियों में पले बढ़े युवा पीढ़ियों को अकूत संपत्ति काफी भाई है और अपने पड़ोस के समृद्ध जीवनशैली से काफी हद तक प्रभावित भी रहे हैं। इस संपत्ति के लालच में ही इन बस्तियों में निशाचरों का लालन पालन होता है, जो आगे चलकर गुरुग्राम, नोएडा और नवी मुंबई जैसे नगरों में महागुण सोसाइटी कांड की तरह आतंक मचाने का माद्दा भी रखते हैं।
और भी कई कारण है, जिनसे इस प्रक्रिया को हवा दी जाती है, जैसे राजनीति और मीडिया का संरक्षण। यह धारणा रही है की राजनेता इन आप्रवासियों को अपने वोट बैंक के चक्कर में खुली छूट देते रहते हैं, जो इनकी पूर्व नीतियों में स्पष्ट रूप से साफ दिखता है। इसके बदले में इन पार्टियों को इन आप्रवासियों का वोट मिलता रहता है। और क्या कारण है की इतने अत्याचारों के बावजूद ममता बैनर्जी को अकूत समर्थन प्राप्त है बंगाल में?
और तो और, क्योंकि अधिकांश आप्रवासी मुस्लिम होते हैं, इसलिए इन्हे मीडिया का भरपूर प्रेम भी मिलता है। महागुण घटना की तरह इनसे जुड़ी किसी भी घटना के खिलाफ कारवाई को ये गरीब और पिछड़े अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के तौर पर चित्रित करते है। और उदाहरण चाहिए? तो यह लीजिये, बोड़ो आप्रवासी संघर्ष को हमेशा से बोड़ो मुस्लिम संघर्ष के तौर पे दिखाया जाता है। अब सारी मेहनत इसी बात में लगाई जा रही है की कैसे महागुण सोसाइटी पर हुई पत्थरबाजी को वर्गीय संघर्ष में परिवर्तित किया जा सके, जहां पिछड़ा वर्ग सम्पन्न वर्ग के खिलाफ विद्रोह कर रहा है। समझे क्या हो भाई?
आप्रवासियों से निपटने में आधुनिक सोसाइटी को हमेशा से मुसीबतों का सामना करना पड़ा है। भारत के परिप्रेक्ष्य में ये समस्या और जटिल हो जाती है, क्योंकि सत्ता इसपर देर से प्रतिक्रिया दे पाती है, और मीडिया इसकी जड़ों में जाने को तैयार ही नहीं। मतलब चित भी मेरी, पट भी मेरी और सिक्का भी मेरे बाप का? सोश्ल मीडिया पर जो गुस्सा इसके प्रति ज़ाहिर होता है, वो क्षणिक है, और थोड़े ही दिन बाद ठंडा पड़ जाता है। नोएडा की घटना #मालदाइननोएडा के नाम से चर्चित तो अवश्य हुई, पर कुछ ही दिनों में हटा दी गयी, और समाधान तक अपना सफर ही नहीं तय कर पायी। ऐसे में इस समस्या से निपटने का बीड़ा केवल और केवल व्यक्तियों और समाज पर आता है।
अब वक़्त आ गया है की ऐसे नई नवेली सोसाइटी ऐसे बंगलादेशियों पर हर तरह से प्रतिबंध लगाए, और इन्हे रोजगार के वास्ते प्रवेश का अवसर ही न दें। किसी भी व्यक्तिगत परिवार को ऐसे लोगों को काम पर लगाने से भी बचना चाहिए। इस आर्थिक प्रतिबंध से इनकी कमर ही टूट जाएगी, और इनके मंसूबों पर पानी भी फिर जाएगा। और साथ ही साथ इन्हे इनकी औकात याद दिलाने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरह समय समय पर त्वरित कारवाई भी की जाए।