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हिन्दू विरोधी अभियानों के लिए वामपंथी या सेक्युलर लोग ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि ये लोग हैं

Shashank Bhandari द्वारा Shashank Bhandari
4 July 2017
in मत
हिन्दू विरोधी अभियानों के लिए वामपंथी या सेक्युलर लोग ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि ये लोग हैं
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देखिये, मैं पहले ही ये बताना चाहता हूँ की भीड़ की हिंसा को सही तो नहीं ठहरा सकते, अगर एक बेकसूर आदमी की जान चली जाए तो। पर एक तरफ तो अपना लोकतन्त्र बहुमत को देश की दशा और दिशा बनाने की स्वतन्त्रता देने की बात करता है, और वहीं इसी बहुमत से कानून की मर्यादाएँ न लांघने की नसीहतें भी देता है। मेरे विवाद की नींव साफ और स्पष्ट है, लोकतन्त्र में बहुमत और अल्पसंख्यकों के बीच के अंतर को दिखाना। न कम, न ज़्यादा।

समस्या है बहुमत द्वारा अल्पसंख्यक के पहचान की सालों पुरानी प्रणाली में। पर उससे बड़ी समस्या है की भीड़ द्वारा हिंसा की घटनाओं का चयनात्मक विलाप, विशेषकर जब बहुमत दोषी हो और पीड़ित अल्पसंख्यक। एक हिंसा विरोध के काबिल है और एक हिंसा जितनी जल्दी दबा दो उतना अच्छा।

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मेरा आपसे प्रश्न सिर्फ इतना है की कौन ये निर्णय लेता है की क्या चीज़ कैसे होनी चाहिए? और किसने इन लोकतन्त्र के स्वघोषित ठेकेदारों को अधिकार दिया है की वो अपनी सहूलियत के हिसाब से अपनी हिंसा की घटना चुनकर उसपर विधवा विलाप करेंगे? और इनकी नौटंकियाँ बिना कोई बदलाव लाये गुमनामी में क्यों धूमिल हो जाती है?

इसका जवाब ही इसकी विडम्बना – हम, जो हिन्दू हैं

इन हिंसक घटनाओं के खिलाफ न ही हम हिन्दू निष्क्रिय हैं, बल्कि हम बराबर से इस विषैली विचारधारा का मुकाबला करने के लिए एक जिम्मेदार बुद्धिजीवी दल न बनाने के भी दोषी हैं। ये इसलिए है क्योंकि हम मेहनत नहीं करना चाहते, जिस वजह से हम किसी भी हिंसक घटना से मुंह मोड लेते हैं। हम हिंदुओं के लिए हिंसा तो हिंसा है, चाहे वो हमारे खिलाफ हो या मुसलमानों के। हम इस पर राजनीति नहीं करते। इससे आप विमुख भी हो सकते हैं,पर अगर इसके विरुद्ध बोलना है, तो आपको यह बताना होगा की इस प्रकार की हिंसा के खिलाफ कुछ न बोलना ही ऐसे हिंसा को बढ़ावा देता है।हिंदुओं भीड़ हिंसा

हाल ही में इन ठेकेदारों ने एक लिंच मैप ऑफ इंडिया प्रकाशित किया। पर इसमें एक भी ऐसी घटना को चित्रित नहीं किया है, जहां भीड़ ने एक हिन्दू की हत्या की हो। मतलब हिंदुओं की जान बड़ी सस्ती है, नहीं? मज़े की बात, इस लिंच मैप में सारी घटनाएँ 2015 के बाद ही हुई हैं। इससे पहले, अगर हम इस पवित्र, निर्विवाद मीडिया की माने, तो कभी उन्मादी हिंसा हुयी ही नहीं थी। सब भाई भाई थे, हैं?

ये है इनकी हिंदुओं के विरुद्ध फूहड़ता का असर। वैसे भी, इसकी पूरी कवरेज करने के लिए मीडिया तो है ही, वो भी पूरे तड़के और मसाले के साथ । अगर हम हिन्दू ऐसी किसी भी हिंसा का विरोध न करे, तो गलती हमारी भी है। तो असली समस्या आती ऐसी ओछी राजनीति के विरुद्ध एक सशक्त बुद्धिजीवी समूह बनाने की।

आप दुनिया में ही देख लें। यूएन सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यों में दो से तीन देश हैं, जो इस्लामिक आतंकवाद को जानते है और उसे समझते भी हैं। पर उसे परिभाषित करने की कोई प्रक्रिया नहीं है। काम करने का ढंग यह है की इसके विरुद्ध एक अभियान चलेगा, चर्चा होगी, और फिर कुछ दिनों बाद सब कुछ ठंडे बस्ते में घुस जाएगा। नतीजा, नील बट्टे सन्नाटा! आतंकवाद का कोई रंग नहीं, कोई मजहब नहीं, जबकि सच तो सब जानते है, बस बोलने में ही पसीने छूटते हैं। एक धर्मनिरपेक्ष इंसान होने के नाम पर आपने स्वतंत्र विचारों का मानो गला ही दबा दिया हो। इसपर तो आपको तारीफ करनी होगी की कैसे ये चील्पकौव्वा आतंकवादियों से आतंकवादियों पर उंगली उठाने वालों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। ये होता है नीतिगत ब्रांड प्रबंधन का एक बढ़िया उदाहरण।

जब इसे चलाने वाले वो लोग, जिनकी वजह से दुनिया में तमाम मुसीबतें आती है, तो मुझे तो कोई कारण नहीं लगता की क्यों हम लोग एक ऐसा समूह न बनाए। मेरा विचार किसी हिन्दू द्वारा किए गए गलती को छुपाने का नहीं है, बल्कि हिंदुओं पर हो रहे हमलों को रोकने के लिए ये समूह बनाना चाहिए। इसीलिए यह अवश्यंभावी है की हम समझे ऐसा पहले क्यों नहीं किया गया।

हिन्दू, ऐतिहासिक और राजनैतिक रूप से हमेशा लोगों का था, श्रेणियों का नहीं। हाँ ठीक है की समुदाय में कुछ श्रेणी हैं, जिनमें जाति भारी पड़ जाती है, पर हमारे पंथ ने कभी भी किसी को भी बुद्धिजीवी बनने से नहीं रोका। और ये तो इतिहास में भी दर्ज़ हैं, की जो कोई भी अंग्रेज़ी बोलने और समझने लायक बना है, वो हमेशा सेक्युलर बुद्धिजीवियों की जमघट में जा घुसा हैं। उनही की तरह बोलना, उन्ही की तरह अजीब आदतें पालना, और उन्ही की तरह दोगलापन दिखाना। आज़ादी के बाद से पढे लिखे कुलीन हिंदुओं की कायरता पहले भी थी, और अब इस परंपरा ने तो अपनी जड़ें और मजबूत की हैं।

इसीलिए ये कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की नकली बुद्धिजीवी माफिया को साधी चुनौती साठ साल के काँग्रेसी कुशासन की ही उपज है, और इस तरह के लीचड़ न सिर्फ मीडिया में, बल्कि साहित्य में, विश्वविद्यालयों में, चर्चों में, यहाँ तक की कला में भी अपनी पैठ बनाए रखें हैं। ये ऐसे संगठित है की जहां इनके धंधे को नुकसान पहुंचा नहीं, आ गए अपनी विचारधारा लेके सड़क पे। अब तो प्रोपगैंडा इस बात को लेकर है की कैसे हिंदुओं के हर एक कृत्य को सांप्रदायिकता और फासीवाद से जोड़े। तो सवाल ये बनता है, की हिन्दू इस विचारधारा से लड़े तो लड़े कैसे?

हिंदुओं को अब एक सेफ़्टी वाल्व नज़रिया रखना पड़ेगा, जिसे कोई राजनैतिक पार्टी नहीं हथिया सकती, इनका मूल सिद्धान्त अपने धर्म और उसके आदर्शों की मृत्युपर्यन्त रक्षा करना होगा। शब्दों और कला से अपने दुश्मनों का संहार करना होगा। इन्हे देश के हर उस क्षेत्र में डालना होगा, जहां अभी विषैले प्रवृत्ति के लोग भरे पड़े हैं, और तबीयत से इनकी सफाई करनी पड़ेगी। इसके अलावा इस ओछी राजनीति से निपटने का कोई चारा नहीं है। सालों तक पीड़ित होने के बावजूद हिन्दू ही सबसे पहले अपने आप को दोषी ठहराएंगे। नहीं समझे? एक हाथी को किसी जगह अगर ज़ंजीर से बांधा जाता है, तो वो ज़ंजीर ऐसी है, की उसे छुड़ाकर हाथी निकल सकता है, पर ऐसा क्यों नहीं होता? क्योंकि हाथी को उस ज़ंजीर की ग़ुलामी की आदत पड़ चुकी है। हमें ऐसी ही इस आदत को हटाना पड़ेगा।

पश्चिम बंगाल, केरल के बारे में कोई नहीं बोलता। ये भी बोलने में कथित बुद्धिजीवियों को साँप सूंघ जाता है की कैसे एक कश्मीरी सिर्फ इसलिए मारा गया, क्योंकि उसका उपनाम ‘पंडित’ था, जबकि वो एक मुसलमान था? दिक्कत यह है की तथ्य और आंकड़े हमारे पक्ष में हैं तो अवश्य, पर इनकी पैरवी करने के लिए कोई नहीं।

अब यहाँ हिंदुओं के लिए दो ही रास्ते बचते हैं। या तो जो हो रहा है, होने दो, बर्दाश्त करते जाओ, जैसे की पहले से करते आ रहें हैं। या फिर ज़िम्मेदारी उठाओ, इसे बदलने की। चतुराई से अब अपने बुद्धिजीवियों को उन्ही क्षेत्रों में डालें, जहां पर ऐसी ओछी राजनीति करने वाले कंजर व्याप्त हैं। जैसे को तैसा मिले। अगर हिंदुओं ने ठीक उसी तरह विरोध किया होता, जैसे ये बुद्धिजीवी करते हैं, खासकर उस मौके पर जब पश्चिम बंगाल और केरल में हिंसा हुई थी, तो शायद इनका आडंबर दो दिन भी न टिकता।

अंत में, हिंदुओं को लुटयेंस दिल्ली वालों की तरह एक लॉबी का निर्माण करना चाहिए, जहां पर पशमीना शौल और बोर्द्युक्स 24 की गिलासों सहित कश्मीरी पंडितों के निष्कासन पर चर्चा करनी चाहिए। हमें भी जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय बनाने चाहिए, जहां पर हम प्लाकार्ड बना के चिल्लाएँ ‘उमस ने हिंदुओं को नहीं मारा बंगाल और केरल में, वामपंथियों ने मारा’ । हमें भी डॉक्युमेंट्री बनाकर ये बताएं की कैसे मूलनिवासी कश्मीरी अब अपने ही घर में नहीं रहते। हमें दुनिया को दिखाना चाहिए की कैसे पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ भेदभाव किया जाता है। हमें दुनिया को यह भी दिखाना चाहिए की कैसे नेपाल अब हिन्दू राष्ट्र क्यों नहीं है।

और कोई उपाय नहीं है हिंदुओं को बहुसंख्यक होने के लिए मारे जाने से रोकने के लिए, भीड़ वाली हिंसा की बात तो भूल ही जाइए!

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