आइन्सटाइन ने बेवकूफी की परिभाषा में ये बताया की बेवकूफी वही एक चीज़ को बार बार करने की प्रवृत्ति है, जिसमें इंसान ये सोचता है की उसे दूसरा परिणाम मिलेगा। एक अयोग्य राजनेता के हर भाषण के बाद भारतीय मीडिया वैकल्पिक राजनीति का नया मसीहा ढूँढने निकल पड़ता है। राहुल गांधी, कन्हैय्या कुमार, अरविंद केजरीवाल, उमर खालिद, गुरमहर कौर जैसों से उम्मीद लगाके और उन्हे टूटता हुआ देखके इन्हे अब लालू प्रसाद यादव के छोटे सुपुत्र, तेजस्वी यादव में एक उम्मीद की नयी किरण दिखी है। अभी हाल ही में इनहोने एक भाषण दिया था, जिसे भारतीय मीडिया ने बढ़ा चढ़ाकर ‘अद्भुत और प्रभावशाली’ की उपाधि देने की पूरी कोशिश की।
जिसे तेजस्वी यादव का एक प्रभावशाली प्रदर्शन बताया गया, वो कुछ नहीं बल्कि एक पार्टी के नेता की खिसियाहट थी, जिसे एक सुलझे हुये राजनैतिक विरोधी ने बड़ी सफाई से चकमा दिया था।
अपने 45 मिनट के भाषण [वी के कृष्ण मेनन के लंबे और उबाऊ भाषणो की याद आ गयी इन्हे देखकर] में तेजस्वी यादव ने नितीश कुमार द्वारा पार्टी को धोखा देने का रोना रोया, जिनहे 2015 में लोगों ने भाजपा के विरोध में सत्ता में बिठाया था। उन्होने नितीश बाबू के इस फैसले को ‘एक सुनियोजित चाल’ बताया, पर राहुल गांधी की तरह ये साहब ये नहीं बता पाये, की इस चाल को रोकने के लिए उन्होने किस प्रकार की नीतियाँ बनाई।
वो क्या है न, मीडिया के लिए सदैव एक ही एजेंडा सर्वोपरि रहता है, वो है देश विरोधी गतिविधि। इसीलिए इनहोने इस भाषण को नितीश बाबू द्वारा दिये उचित और सटीक जवाब की तरफ मुंह भी नहीं ताका। इनहोने यादव जी के खोखले दावों की पोल खोलते हुये कहा की आरजेडी शहाबुद्दीन जैसे अपराधियों को बचाने के लिए एक अतिरिक्त मील चलने को तैयार थी और जो विजय इस महागठबंधन को मिली थी, वो इस इस उद्देश्य के लिए कतई नहीं मिली थी। इनकी धर्मनिरपेक्षता पर सवालों का चुटीला जवाब इनहोने ये दिया :- धर्मनिरपेक्षता को भ्रष्टाचार को सही ठहराने के लिए नहीं उपयोग में लिया जा सकता।
ये कहने को मीडिया के चश्मे से एक प्रभावशाली भाषण था, क्योंकि तेजस्वी नितीश जैसे मंझे हुये राजनेता के सामने एक नौसिखिया ही रहेंगे, जिनपे व्यक्तिगत रूप से निशाना साधते हुये इनकी जनता में लोकप्रियता पर सवाल उठाया। इनहोने इनकी जनता पे पकड़ पर सवाल उठाया, यह कहते हुये की उन्होने सिर्फ 2 सीटें जीती थी 2014 में, जबकि इनकी पार्टी ने भी लोकसभा चुनावों में कोई विशेष झंडे नहीं गाड़े थे।
तेजस्वी यादव ने नितीश बाबू के लालू यादव के साथ 2015 में संधि करने पर भी सवाल उठाया, क्योंकि इनके हिसाब से लालू प्रसाद यादव पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हुये थे। लो भई, इनहोने तो बिना किसी मुसीबत के इस बात को मुंह बना के ही सही, पर अपने पिताजी के भ्रष्टाचारी प्रवृत्ति पे हामी भरी, जिसे स्वीकारने में इन्हे कोई शर्म नहीं है। तेजस्वी बाबू शायद ये भूल गए की यह नितीश ही थे जिनहोने महागठबंधन को अपने साफ सुथरे छवि और विकास के लिए तत्परता के कारण विजयश्री दिलाई थी।
तेजस्वी यादव फिर सिद्धांतों की दुहाई देने लगे की अगर उन्हे इस्तीफा देने को कहा जाता, तो वो अवश्य दे देते, पर यह भूल गए की 10 जुलाई को ही आरजेडी ने मिलकर फैसला किया था की इस्तीफे का तो सवाल ही नहीं उठता।
तेजस्वी यादव ये भूल गए हैं की जो सार्वजनिक जीवन में सिद्धांतों का पालन करते हैं, वो भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगते ही बिना कहे इस्तीफा दे देते हैं। जिस सैद्धान्तिक विचारधारा की बात करते हैं ये, उसे उचित कार्य का समर्थन चाहिए, खोखली बकैती का नहीं। तेजस्वी यादव अभी भी एक ऊंचा मुकाम बना सकते हैं, यदि वे विधायक के पद से इस्तीफा दे दें और अपनी बात सदन में सही ठहरा के दिखाएँ। पर ऐसा कुछ नहीं होगा, क्योंकि इन्हे अपने पिता और चाचा साधू यादव से काफी उच्च राजनैतिक विचार जो विरासत में मिले हैं।
मीडिया भले ही इनके भाषण का पाँव धो धो के गुणगान करे, पर उम्दा भाषण कागज से पढ़कर, खुले आम, और निस्संकोच जनता से आँख में आँख मिलाकर बोला जाता है। तेजस्वी और भारतीय मीडिया के पिछले राजनैतिक मसीहों में कोई विशेष अंतर नहीं है। उनके भाषण में 20 महीने के शासन में राजद विधायकों के कार्यों की झलक नहीं मिली। हो भी नहीं सकती थी, क्योंकि पापों के अलावा उनके पास गिनाने को था ही क्या आखिर? उनका भाषण सत्ता हारने की खुन्नस में निकली खिसियाहट है, जो पार्टी की एक आखरी उम्मीद थी। और मीडिया, आपके नायक न दया के लायक है, न ही समझदार है, और सबसे बड़ी बात, क्षणिक है।